पातञ्जलि योग सूत्र के द्वितीय अध्याय के प्रथम सूत्र मे साधना के तीन प्रमुख आधार बताये गये हैं। तपः स्वाध्यायेश्वर प्राणिधानानि क्रियायोगः। क्रिया योग के, साधना के तीन सूत्र हैं- तप, स्वाध्याय और ईश्वर शरणागति। इस सूत्र में जो तीन विभिन्न क्रियायें बताई गई हैं, उनका उद्देश्य मानव स्वभाव के तीनों पक्षों- इच्छा, ज्ञान और प्रेम- कर्म, ज्ञान और भक्ति को विकसित करना पड़ता है। गायत्री मन्त्र के तीन चरणों में कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग का दर्शन छिपा पड़ा है। जिस प्रकार प्रकाश, जल एवं वायु को पाकर पौधे उगते, पुष्पित एवं फलित होते हैं, उसी प्रकार उपासना भी इन तीनों को अवलम्बन पाकर चमत्कारी परिणाम दिखाती है। गायत्री उपासक को तप, स्वाध्याय एवं समर्पण की तीनों क्रियायें अपनानी होती हैं।
जीवन की गम्भीर समस्याओं का गहराई से अध्ययन ही स्वाध्याय है। पुस्तकों मा अध्ययन तो इसका छोटा एवं स्थूल भाग है। अधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष है- आत्म समीक्षा, स्व का अध्ययन ।। हम शरीर हैं या और भी कुछ? शरीर से अलग यदि हमारी सत्ता है तो क्या उसके विकास के लिए उसे समझने के लिए प्रयत्न चल रहे हैं? इन प्रश्नों पर विचार एवं चिन्तन करना ही वास्तविक स्वाध्याय है। हम विराट के अंश हैं, तो क्या दिव्य बनने, देवत्व धारण करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। हमारी प्रवृत्तियाँ, गतिविधियाँ आत्म गरिमा के प्रतिकूल तो नहीं जा रही है? पिछला जीवन कैसा रहा? क्या सुर दुर्लभ इस मानव शरीर का सदुपयोग हुआ? भावी जीवन की रीति- नीति क्या होनी चाहिए ? अब तक की हुई त्रुटियों के प्रायश्चित्त के लिए क्या किया जा रहा है? इन सभी प्रश्नों पर गहराई से विचार करना ही स्वाध्याय है। महापुरुषों का सत्संग एवं अच्छी पुस्तकों का अध्ययन भी इसी के अन्तर्गत आता है, पर वर्तमान समय में सत्संग के लिए सत्पुरुषों का अभाव है। जो हैं भी, उनके पास इतना समय नहीं है कि अनेकानेक समस्याओं की चर्चा की जा सके। ऐसी स्थिति में सत्संग का प्रयोजन पुस्तकें पूरा कर सकती हैं। महापुरुषों के विचार पुस्तक ों में भरे पड़े हैं। उनके अध्ययन, मनन, चिन्तन द्वारा आत्म- समीक्षा एवं आत्म- विकास के लिए मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है।
गायत्री को वेदमाता कहा गया है। वेद कहते हैं ज्ञान को। गायत्री उपासक ज्ञान का उपासक होता है। उसे ज्ञान संचय के लिए स्वाध्यायशील होना चाहिए। ज्ञानयोग की वैचारिक पृष्ठभूमि यहीं से बनती है। स्वाध्यायशील साधक ही साधना मार्ग में आये अवरोधों तथा जीवन की अनेकानेक समस्याओं से जूझने में समर्थ होता है। भटकाव का डर नहीं रहता। ज्ञान के प्रकाश में सत्य- असत्य का, उपयोगी- अनुपयोगी का चयन करने में समर्थ होता है। स्व के सतत अध्ययन- मनन द्वारा वह आत्मज्ञान की पृष्ठभूमि तैयार करता है। भ्रान्तियों का निवारण और अपने शाश्वत स्वरूप का बोध होता है।
गायत्री उपासना के साथ जुड़ा दूसरा अनिवार्य तत्त्व तप का है। सामान्य अर्थों में इसे संयम समझा जाता है ।। साधक को संयमी होना चाहिए। इन्द्रिय निग्रह एवं मनोनिग्रह इसके अन्तर्गत आता है। तपः संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ है- उच्च तापमान तक गरम करना। अशुद्ध वस्तुओं को तपा कर, गला कर शुद्ध किया जाता है। सोना खदान से अशुद्ध रूप में निकलता है। उसे उच्च तापमान पर गरम किया जाता है तब वह शुद्ध एवं परिमार्जित होता है। उसकी चमक तीव्र ताप में ही निखरती है। मनुष्य भी मूलरूप से अनगढ़ है। पंचतत्त्वों से बनी काया में उसके जड़वत् संस्कार विद्यमान हैं, जन्म- जन्मांतरों के पशुवत् संस्कार भी चेतना के साथ जुड़े हुए हैं । उसे दूर करने, चेतना को परिष्कृत करने के लिए तप की गर्मी आवश्यक है। उपवास, अस्वाद, तितीक्षा, मौन जैसी तप की क्रियायें इसी आवश्यकता की पूर्ति करती हैं। संयमित एवं तपस्वी जीवन में ही आद्यशक्ति गायत्री की शक्तिधारायें अवतरित होती हैं। शक्ति अवतरण के लिए तप की प्रक्रिया अति आवश्यक है। तप से शक्ति प्राप्त करने के उपाख्यानों से सारे पौराणिक ग्रन्थ भरे पड़े हैं । उनकी यथार्थता में थोड़ा भी सन्देह नहीं किया जा सकता है। उपासना से मन्त्र द्वारा उत्सर्जित शक्ति की धारणा तप के माध्यम से ही सम्भव होती है। गायत्री मन्त्र के जप से प्रचण्ड ऊर्जा निकलती है पर संयम के अभाव से साधक में ठहर नहीं पाती। असंयमित इन्द्रियों से होकर बाहर निकल जाती है।
गायत्री- उपासना के लिए सबसे आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है- साधक की भक्ति- भावना। इसके बिना उपासना के सारे कृत्य अधूरे एवं अपूर्ण सिद्ध होते हैं। उपासना का वह लाभ नहीं मिल पाता जा कि शास्त्रों में वर्णित है। इष्ट के साथ तादात्म्य की व्याकुलता जितनी अधिक होगी साधक को उतनी ही अधिक सफलता मिलेगी। समर्पण का- एकत्व का अद्वैत का भाव स्थापित करना होता है। इसे ही भक्तियोग कहा गया है। अन्तः की विह्वलता- आकुलता ही इष्ट से तादात्म्य कराती है। इष्ट के प्रति समर्पण की महत्ता का प्रतिपादन गीता भी करती है।
‘‘ जो कर्मफल का त्याग करता है, जो समस्त कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर देता है, वह कुछ त्याग कर निर्द्वन्द्व हो जाता है ।’’
कर्म के बिना तो एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता है। यहाँ कर्मों के त्यों की बात नहीं कही गई है। वरन् कर्म ऐसे किए जायँ क बन्धन के कारण न बनें, इस बान की विवेचना हुई है। प्रत्येक कर्म से नयी प्रवृत्तियाँ कामनायें एवं वासनायें उत्पन्न होती हैं। परमात्मा को समर्पित कर देने तथा उसकी इच्छापूर्ति के लिए कर्म करते रहने से साधक बन्धनों से नहीं बंधता। इस प्रकार भक्ति- भावना समर्पण, कर्मों से पलायन की नहीं सच्चे कर्मयोग की प्रेरणा देती है।
गायत्री उपासना में परमात्मा को मातृशक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। जीवन के भावनात्मक रिश्तों में माँ का स्थान सर्वोपरि है। उसके ही स्नेह संवेदनाओं का पोषण पाकर मनुष्य मानवोचित गुणों से सम्पन्न बनता है। इस तथ्य को तत्त्ववेत्ता ऋषियों ने समझा और उन्होंने उस महाशक्ति से तादात्म्य जोड़ने के लिए प्रतीक अवलम्बन लिया। बच्चे का समर्पण भाव माँ को बड़े से बड़े त्याग- बलिदान के लिए बाध्य करता है। आद्यशक्ति के समक्ष भी जब हम बाल स्वभाव, निश्छल हृदय से अपनी सत्ता को समर्पित कर देते हैं, उसे करुण स्वर में पुकारते हैं, वह महाशक्ति अपने दिव्य अनुदानों के साथ प्रकट होती और अपने अनुग्रहों से सिक्त करती है। भाव संवेदनाओं का उभार ही सघन होगा, पवित्र होगा महाशक्ति की निकटता का उतना ही अधिक लाभ मिल सकेगा।
गायत्री उपासना के साथ साधना के ये तीन चरण स्वाध्याय, तप एवं शरणागति के भी बढ़ाने होंगे। वायु, जल और प्रकाश का सम्पर्क पाकर बीज उगते, फूलते एवं फलते हैं। गायत्री उपासना रूपी बीज भी स्वाध्याय, तप एवं समर्पण- भावना का अवलम्बन पाकर पुष्पित एवं पल्लवित होते तथा फल देते हैं ।। गायत्री उपासना की इस सर्वांगीण पद्धति को अपनाया जा सके तो इतना कुछ प्राप्त किया जा सकता है, जिसे असामान्य, अद्भुत एवं चमत्कारी कहा जाता है। गायत्री मन्त्र के तीनों पदों में सन्निहित शिक्षायें भी साधना के इन तीनों पक्षों को अपनाने की प्रेरणा देती है।