गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि

दैनिक उपासना की सरल किन्तु महान् प्रक्रिया

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नियमित उपासना के लिए पूजा- स्थली की स्थापना आवश्यक है। घर में एक ऐसा स्थान तलाश करना चाहिए जहाँ अपेक्षाकृत एकान्त रहता हो, आवागमन और कोलाहल कम से कम हो। ऐसे स्थान पर एक छोटी चौकी को पीत वस्त्र से सुसज्जित कर उस पर काँच से मढ़ा हुआ भगवान् का सुन्दर चित्र स्थापित करना चाहिए। गायत्री की उपासना सर्वोत्कृष्ट मानी गई है।

इसलिये उसकी स्थापना को प्रमुखता देनी चाहिए। यदि किसी का दूसरे देवता के लिये आग्रह हो तो उस देवता का चित्र भी रखा जा सकता है। शास्त्रों में गायत्री के बिना अन्य सब साधनाओं का निष्फल होना लिखा है। इसलिये अन्य देवता को इष्ट माना जाय और उसकी प्रतिमा स्थापित की जाय तो भी गायत्री का चित्र प्रत्येक दशा में साथ रहना ही चाहिए ।।

अच्छा तो यह है कि एक ही इष्ट गायत्री महाशक्ति को माना जाय और एक ही चित्र स्थापित किया जाय। उससे एकनिष्ठा और एकाग्रता का लाभ होता है। यदि अन्य देवताओं की स्थापना का भी आग्रह हो तो उनकी संख्या कम से कम रखनी चाहिए। जितने देवता स्थापित किये जायेंगे, जितनी प्रतिमाएँ बढ़ाई जायेंगी निष्ठा उसी अनुपात से विभाजित होती जायगी। इसलिये यथासम्भव एक अन्यथा कम से कम छवियाँ पूजा- स्थली पर प्रतिष्ठापित करनी चाहिए।

पूजा स्थली के पास उपयुक्त व्यवस्था के साथ, पूजा के उपकरण रखने चाहिए। अगरबत्ती, पञ्च- पात्र, चमची, धूपबत्ती, आरती, जल गिराने की तश्तरी, चन्दन, रोली, अक्षत, दीपक, नैवेद्य, घी, दियासलाई आदि उपकरण यथा- स्थान डिब्बों में रखने चाहिए। आसन कुशाओं का उत्तम है। चटाई से काम चल सकता है। आवश्यकतानुसार मोटा या गुदगुदा आसन भी रखा जा सकता है। माला चन्दन या तुलसी की उत्तम है। शंख, सीपी, मूँगा, जैसी जीव- शरीरों से बनने वाली मालाएँ निषिद्ध हैं। इसी प्रकार किसी पशु का चमड़ा भी आसन के स्थान पर प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्राचीन काल में अपनी मौत मरे हुए पशुओं का चर्म वनवासी सन्त सामयिक आवश्यकता के अनुरूप प्रयोग करते होंगे। पर आज तो हत्या करके मारे हुए पशुओं का चमड़ा ही उपलब्ध है। इसका प्रयोग उपासना की सात्विकता को नष्ट करता है।

नियमित उपासना ,, नियत समय पर नियत संख्या में, नियत स्थान पर होनी चाहिए। इस नियमितता से वह स्थान संस्कारित हो जाता है और मन भी ठीक तरह लगता है। जिस प्रकार नियत समय पर सिगरेट आदि की ‘भड़क’ उठती है, उसी तरह पूजा के लिये भी मन में उत्साह जगता है। जिस स्थान पर बहुत दिन से सो रहे हैं, उस स्थान पर नींद ठीक आती है। नई जगह पर अक्सर नींद में अड़चन पड़ती है। इसी प्रकार पूजा का नियत स्थान ही उपयुक्त रहता है। व्यायाम की सफलता तब है जब दण्ड- बैठक आदि को नियत संख्या में नियत समय पर किया जाय। कभी बहुत कम, कभी बहुत ज्यादा, कभी सवेरे, कभी दोपहर, को व्यायाम करने से लाभ नहीं मिलता।

इसी प्रकार दवा की मात्रा भी समय और तोल को ध्यान में न रखकर मनमाने समय और परिमाण में सेवन की जाय तो उससे उपयुक्त लाभ न होगा। यही बात अस्थिर सन्ध्या की उपासना के बारे में कही जा सकती है। यथा- सम्भव नियमितता ही बरतनी चाहिए। रेलवे की रनिंग ड्यूटी करने वाले, यात्रा में रहने वाले, फौजी, पुलिस वाले जिन्हें अक्सर समय- कुसमय यहाँ- वहाँ जाना पड़ता है, उनकी बात दूसरी है। वे मजबूरी में अपना क्रम जब भी, जितना भी बन पड़े, रख सकते हैं। न कुछ से कुछ अच्छा। पर जिन्हें ऐसी असुविधा नहीं उन्हें यथा- सम्भव नियमितता ही बरतनी चाहिए। कभी मजबूरी की स्थिति आ पड़े तो तब वैसा हेर- फेर किया जा सकता है।

सर्वांगपूर्ण साधना पद्धति अपनाने के लिए साधक को लगभग ४५ मिनट का समय लगाना चाहिए। उसमें ३० मिनट जप एवं ध्यान के लिए तथा शेष समय आगे- पीछे के अन्य कर्मकाण्डों के लिए निर्धारित करना चाहिए। प्रारम्भ में जिनसे इतना न बन पड़े वे न्यूनतम १० मिनट से भी शुरुआत कर सकते हैं। उसमें केवल एक माला जप के लिए मिनट तथा शेष मिनट में षट्कर्म आदि कृत्य पूरे किये जा सकते हैं।

उपासना प्रारम्भ करने से पूर्व नित्य- कर्म से निवृत्त होना, शरीर, वस्त्र और स्नान उपकरणों की अधिकाधिक स्वच्छता के लिए तत्परता बरतना आवश्यक है। स्नान और धुले वस्त्र बदलने से मन में पवित्रता का संचार होता है। चित्त प्रफुल्लित रहता है। आलस्यवश मलीनता को लादे रहने से मन भारी रहता है और उपासना से जी उचटता है। जँभाई आती है। ऊब लगती है और अधिक बैठना भारी पड़ता है। स्थान और पूजा उपकरणों की मलीनता से मन में अरुचि उत्पन्न होती है और उत्साह घटता है। अस्तु, उपासना स्थल को, पूजा के पात्र उपकरण प्रतीक आदि को स्वच्छ कर लेने की बात को महत्त्व दिया ही जाना चाहिये ।।

पूजा की चौकी पर पीत वस्त्र बिछाया जाय और उस पर गायत्री माँ का, मन्त्र का चित्र स्थापित किया जाय। उसके आगे एक कोने पर जलती अगरबत्ती को रखा जाय। जहाँ शुद्ध घी उपलब्ध है, वहाँ घृत- दीप भी जलाया जा सकता है अन्यथा उसके अभाव में अगरबत्ती से भी काम चल सकता है।

भारतीय धर्म में त्रिकाल सन्ध्या का विधान है। प्रातः सूर्योदय के समय, सायं सूर्यास्त के समय और मध्यान्ह १२ बजे यह मध्यवर्ती समय है। थोड़ा आगे- पीछे होना हो तो वैसा भी हो सकता है। जिन्हें सुविधा हो वे त्रिकाल उपासना करें अन्यथा प्रातः- सायं दो बार से भी काम चल सकता है। अत्यन्त व्यस्त व्यक्तियों को भी प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर एक बार तो उपासना करने के लिए समय निकाल ही लेना चाहिए। प्रयत्न यह करना चाहिए कि आधा घण्टे से लेकर एक घण्टे तक का समय उपासना के लिए मिल सके। निःसन्देह इस प्रयोजन में लगा हुआ समय हर दृष्टि से सार्थक होता है। आत्मिक प्रगति, उसके फलस्वरूप व्यक्ति का समग्र विकास, उसके द्वारा सर्वतोमुखी समृद्धि की सम्भावना, यह चक्र ऐसा है, जिससे इस कृत्य में लगाया गया समय सार्थक ही सिद्ध होता है।

उपासना काल में हर घड़ी यही अनुभूति रहनी चाहिए कि हम भगवान के अति निकट बैठे हैं तथा साधक और साध्य के बीच सघन आदान- प्रदान हो रहा है। साधक अपने समग्र व्यक्तित्व को भगवान को होम रहा है वे उसे अपने समतुल्य बनाने की अनुकम्पा प्रदान कर रहे हैं।

नित्य प्रति की गायत्री साधना में किन्हीं विशेष नियमों के पालन करने की आवश्यकता नहीं होती। अनुष्ठान का, पुरश्चरण का, उद्यापन का, तंत्र साधना का विधि विधान विस्तृत है, पर दैनिक साधना सरल है। उसमें प्रायः कोई विशेष भूल नहीं होती, हो भी जाय तो अनिष्ट की कोई आशंका नहीं ,, गायत्री परम सात्विक स्वभाव की स्नेहमयी माता है जो बालकों से कुछ त्रुटि रह जाने पर भी रुष्ट नहीं होती और रूष्ट हो जाय तो कुछ अनिष्ट नहीं करती। इसलिए जो लोग इस डर से वेदमाता की उपासना नहीं करते हैं कि कुछ भूल हो जाने पर कोई उलटा परिणाम न निकले उन्हें भली- भांति समझ रखनी चाहिए कि उलटे परिणाम की बात केवल तांत्रिक प्रयोगों में है। नित्य प्रति की दैनिक साधना में ऐसी कोई बात नहीं है।

जिन्होंने नियमित रूप से गायत्री की उपासना अभी तक नहीं की है, जो उसका आरम्भ ही कर रहे हैं उन्हें सबसे पहले द्विजत्व का व्रत लेना चाहिए। गायत्री को आध्यात्मिक माता, किसी सुयोग्य आचार्य को आध्यात्मिक पिता, मान कर ऐसा संकल्प करना चाहिए कि मैं अब पशुप्रवृत्तियों से मन हटा कर देवप्रवृत्तियों को अपना लक्ष्य मानता हूँ। अब मैं निरन्तर दैवी विचारों और दिव्य कर्मों में मन लगाऊँगा और पुराने बुरे स्वभावों को छोड़ने का प्रयत्न करता रहूँगा। यही द्विजत्व है। भोगवाद को जीवनोद्देश्य न मान कर आत्मोन्नति को लक्ष्य स्वीकार करना यही द्विजत्व का संकल्प है। अपने संकल्प की ओर धीरे- धीरे कदम बढ़ाता हुआ द्विज एक न एक दिन पशुता से पूर्ण मुक्त होकर सर्वांश में देव बन जायेगा। द्विजत्व की प्रतिज्ञा के तीन तत्व हैं () अज्ञान () अशक्ति () अभाव, इन तीनों का निवारण। ज्ञान, शक्ति तथा समृद्धि को अपने तथा दूसरों के लिए अधिकाधिक बढ़ाना है। यही तीन प्रतिज्ञाएँ यज्ञोपवीत के तीन धागे हैं। इस उत्तरदायित्व को कंधे पर धारण करना ही द्विजत्व है।

विधिपूर्वक कर्म काण्ड के साथ यह दीक्षा ली जा सके तो ठीक, अन्यथा एक दिन उपवास रख कर एकान्त सेवन करते हुए यज्ञ प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि मेरी आज से आध्यात्मिक माता गायत्री, मेरा आत्म पिता अमुक आचार्य, मेरा कार्यक्रम यज्ञोपवीत है। गायत्री, आचार्य और यज्ञोपवीत की मन ही मन या पूजा सामग्री के साथ पूजा करके अपना द्विजत्व ग्रहण करते हुए गायत्री की उपासना आरम्भ कर देनी चाहिए। इसके लिए शुक्ल पक्ष की पंचमी, एकादशी तथा पूर्णिमा शुभ हैं। उस दिन दूसरे से या अपने आप दीक्षा लेकर साधना प्रारम्भ कर देनी चाहिए। इस अवसर पर गुरू- पूजन तथा धर्म कार्य के लिए कुछ दान- पुण्य भी करना आवश्यक है। शास्त्रों में उल्लेख है कि बिना दान का यज्ञ निष्फल होता है।

गायत्री साधन के लिए प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम है। सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व से लेकर एक घण्टा पश्चात् तक के दो घण्टे उपासना के लिए सर्वोत्तम हैं। शरीर को शुद्ध करके साधना पर बैठना चाहिए। साधारणतः स्नान द्वारा ही शरीर की शुद्धि होती है पर किसी विवशता, ऋतु प्रतिकूलता, यात्रा या अस्वस्थता की दशा में हाथ, पांव, मुंह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछ कर भी काम चलाया जा सकता है। साधना के लिए एकान्त खुली हवा की ऐसी जगह ढूंढ़नी चाहिए जहां का वातावरण शान्तमय हो। कुश, खजूर व बेंत आदि वनस्पतियों के बने हुए आसन उत्तम हैं। माला तुलसी या चन्दन की लेनी चाहिए। पालथी मार कर सीधे- साधे ढंग से बैठना चाहिए। पद्मासन आदि कष्ट साध्य आसन लगा कर बैठने से शरीर और मन दोनों को कष्ट होता है। रीढ़ की हड्डी को सीधा रख कर बैठना चाहिए। प्रातःकाल की साधना पूर्व की ओर और सायंकाल की साधना के लिए पश्चिम की ओर मुंह करके बैठना चाहिए। सूर्य अस्त होने के पश्चात् एक घण्टा रात जाने तक साधना की जा सकती है। सूर्यास्त से एक घण्टा बाद और सूर्योदय से घण्टा पूर्व यह तीन घण्टे छोड़ कर रात्रि के अन्य भाग योग मार्गी गायत्री साधना में निषिद्ध हैं। रात्रि में तान्त्रिक प्रयोग किए जाते हैं ।।

मल- मूत्र त्याग के किसी अनिवार्य कार्य के लिए साधन के बीच में उठना पड़े तो शुद्ध जल से हाथ पांव धोकर बैठना चाहिए। एकान्त में जप करते समय माला को ढकने की जरूरत नहीं है पर जहाँ बहुत आदमियों की दृष्टि पड़ती हो वहां उसे कपड़े से ढक लेना चाहिए या गौमुखी में हाथ डाल लेना चाहिए। माला जपते समय सुमेरू (माला के मध्य का सबसे बड़ा दाना) उल्लंघन न करना चाहिए ।। एक माला पूरी करके उसे मस्तक तथा नेत्रों से लगा कर फिर पीछे की तरफ उलटा ही वापिस कर लेना चाहिए। सुमेरू का उल्लंघन नहीं किया जाता। इसलिए माला पूरी होने पर उसे हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिए। तर्जनी उंगली से माला का स्पर्श नहीं करना चाहिए। जहां माला न हो वहां उंगलियों के पोरों की सहायता से भी जप किया जा सकता है।

जप इस प्रकार करना चाहिए कि कण्ठ से ध्वनि होती रहे, होंठ हिलते रहें पर पास बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मन्त्र को न सुन सके। सूतक, रोग, अशौच, चारपाई पर पड़े होने, रास्ता चलने आदि परिस्थितियों में होने की दशा में मन ही मन इस प्रकार जप करना चाहिए कि कण्ठ, होठ, जिह्वा आदि का संचालन न हो। ऐसा मानसिक जप सोते जागते चाहे जिस दशा में किया जा सकता है ।।

साधना विधि का निर्देश प्राप्त करने के लिए एक ही गुरू होना चाहिए। वह जा विधि बतावे उसी के आधार पर श्रद्धा और भक्ति पूर्वक उपासना आरम्भ कर देनी चाहिए। अनेक लोग अनेक प्रकार से साधना करते हैं और ग्रन्थों में भी अनेक विधियाँ लिखी हैं जिनका आपस में सामंजस्य नहीं क्योंकि अधिकारी भेद से, प्रयोजन भेद से, देश काल भेद से अनेक प्रकार की विधियां प्रचलित हैं। कई व्यक्तियों की सलाह परस्पर विरोधी हो सकती है। ऐसी दशा में साधक भ्रम में पड़ सकता है अतएव किसी एक ही आधार पर अपना कार्यक्रम निर्धारित करना चाहिए। अगर गलत विधि बताई गई है तो इसमें पाप बताने वाले पर पड़ेगा वही दण्ड भुगतेगा। जो साधक अपने मन से नहीं वरन् किसी के आदेश से कार्य कर रहा है उसे किसी प्रकार की हानि नहीं है। उसके लिए वह गलत साधना ही सच्ची साधना का फल देगी। मुद्रा, शाप, मोचन, कवच, कीलक, अर्गल आदि क्रियाओं की आवश्यकता तांत्रिक पुरश्चरण में होती है। योग की दक्षिण मार्गी साधना में उनकी कुछ आवश्यकता नहीं है।

उपयुक्त नियमों को ध्यान में रखते हुए प्रातः या सायंकाल स्वस्थ चित्त में साधना के लिए बैठना चाहिए। पास में जल का भरा पात्र रख लेना चाहिए और आरम्भ में ब्रह्म सन्ध्या करनी चाहिये।

सबसे पहले शरीर, मन और इन्द्रियों को स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की शुद्धि के लिए आत्म शुद्धि के पंचोपचार करने चाहिए। यही संक्षिप्त ब्रह्म सन्ध्या है।

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