कल्पवृक्ष की इसलिए प्रशंसा की जाती है कि उसके नीचे बैठकर की हुई कामना पूर्ण होती है। पारस का महत्त्व इसलिए माना जाता है कि उसे छूने से घटिया दर्जे की लौह धातु सोना बन जाती है। अमृत का गौरव इसलिए है कि उसे पीने वाला जरा मृत्यु से छूटकर अमरता का सुख प्राप्त करता है। यह तीनों अद्भुत पदार्थ किम्वदन्तियों के रूप में मौजूद है, पर इनका लाभ जिसने प्राप्त किया हो ऐसा मनुष्य अभी तक देखा नहीं गया। इसकी तुलना में सद्बुद्धि एवं सत्प्रवृत्तियों का गायत्री प्रतिपादित तथ्य अधिक वास्तविक है, जिसे प्राप्त करने से उपर्युक्त तीनों किम्वदन्तियों का लाभ प्रत्यक्ष ही मिल सकता है। अन्तरात्मा में यदि सत्प्रेरणा की दिव्य ज्योति जलने लगे तो उसके प्रकाश में अंधकार जैसा काला कलूटा जीवन सहज ही प्रकाशमान हो सकता है। सुख और शान्ति की समस्त कामनाएँ पूर्ण हो सकती हैं। नर पशु की तरह दिन काटने वाला व्यक्ति पुरूष से पुरुषोत्तम, नर से नारायण बन सकता है। अपनी सुगन्ध को विश्व- मानव के लिए बखेरता हुआ इतिहास के पृष्ठों पर अमर बने रहने का गौरव प्राप्त कर सकता है। गायत्री में प्रतिपादित सत् प्रेरणा, सद्बुद्धि, सद्भावना का तनिक भी लाभ जिसे मिल वह सब प्रकार धन्य हो जात है। इसी तत्त्व को ध्यान में रखते हुए गायत्री को प्राण संजीवनी कहा गया है। गय कहते हैं प्राण को तथा ‘त्री’ कहते हैं त्राण करने वाले को। गायत्री का सच्चा उपासक अपने प्राण का त्राण ही करता है- भवबन्धनों से मुक्ति प्राप्त करता हुआ, आनंद का रसास्वादन करते हुए जीवन को सब प्रकार धन्य ही बनाता है।
गायत्री सद्बुद्धि की उपासना का मंत्र है। ‘धियो योनः प्रचोदयात’ पद मे ईश्वर से एक ही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर लगा दीजिए। ईश्वर के पास मनुष्य शरीर प्रदान करने के बाद एक ही महत्वपूर्ण उपहार जीव को देने के लिए यही बचा भी है। यदि यह मिल जाये तो नर से नारायण बनते देर नहीं लगती। मनुष्य शरीर धारी जीव की अन्तरात्मा जब परमात्मा को पुकारती है कि हे परमपिता, आधा आनंद तूने दिया है तो शेष आधे को भी प्रदान कर और हमें पूर्णता का आनंद लेने दे। हमको मनुष्य शरीर ही नहीं मानवीय प्रवृत्ति भी चाहिए। आत्मा की इसी गुहार को वेद के ऋषि ने छन्दबद्ध कर दिया है और उसका गायत्री ऐसा नामकरण किया है।
गायत्री को इष्ट मानने का अर्थ है- सत्य प्रवृत्ति की सर्वोत्कृष्टता पर आस्था। गायत्री उपासना का अर्थ है- सत्प्रेरणा को इतनी प्रबल बनाना, जिसके कारण सन्मार्ग पर चले बिना रहा ही न जा सके। गायत्री उपासना का लक्ष्य यही है। यह प्रयोजन जिसका जितनी मात्रा में जब सफल हो रहा हो, तब समझना चाहिए कि हमें उतनी मात्रा से सिद्धि प्राप्त हो गई। इस सिद्धि का प्रतिफल, भौतिक जीवन मे सुख और आध्यात्मिक जीवन मे शान्ति बन कर सब ओर बिखरे- बिखरे पड़े दीखता रहता है।
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मनुष्य का आन्तरिक स्तर जैसा कुछ भी होगा बाह्य परिस्थितियाँ बिल्कुल उसी के उपयुक्त सामने प्रस्तुत रहेंगी। क्रोधी, आलसी, उतावले, असंयमी, अदूरदर्शी मनुष्य अपने इन्हीं दुर्गुणों के कारण पग- पग पर कठिनाइयों और आपत्तियों के पहाड़ सामने खड़े पाते हैं। पर जिनकी अन्तःभूमि स्नेह, सौजन्य, उदारता, सहिष्णुता, श्रमशीलता, उत्साह एवं संयम को दृढ़तापूर्वक अपने भीतर धारण कर चुकी होगी उसके लिए शत्रु भी मित्र बने बिना न रह सकेंगे। प्रगति के अवरुद्ध मार्ग भी उनके लिए खुलेंगे और आपत्तियों एवं अड़चनों के समाधान का कोई मार्ग सहज ही निकलेगा, इस तथ्य को जिसने समझ लिया उसने जिन्दगी जीने की विद्या को जान लिया, यही मानना चाहिए। गायत्री उपासना का तात्पर्य साधक को इसी रहस्य से अवगत करना है।
चौबीस अक्षर के इस छोटे से मंत्र में जीवन का, सफलता रहस्य कूट- कूट कर भरा हुआ है। अध्यात्म विद्या का सार भी इसी को समझना चाहिए। योग्यताएँ, विशेषताएँ, क्षमताएँ, सम्पदाएँ एवं विभूतियाँ कितनी ही अधिक क्यों न हो, यदि भावना स्तर का परिष्कृत निर्माण नहीं हुआ है तो मनुष्य को हर घड़ी किसी न किसी बहाने विक्षोभ एवं असंतोष की आग में ही जलते रहना पड़ेगा। इसके विपरीत यदि गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से किसी का व्यक्तित्व सुविकसित है तो उसे अभाव और कठिनाइयों के बीच रहते हुए भी हँसते हुए दिन बिताने और संतोषपूर्वक रात काटने में कोई अड़चन अनुभव न होगी। गायत्री का प्रत्येक अक्षर इसी शिक्षा से ओत- प्रोत है और जो भी व्यक्ति भावनापूर्वक उच्च- स्तरीय गायत्री साधना के लिए तत्पर होता है उसे अपने इस इष्ट- मंत्र का स्वरूप को भी हृदयंगम करना पड़ता है। जिसने इस तत्त्वज्ञान को समझा और जीवन में उतारा उसका सारा वातावरण ही बदल गया। यह परिवर्तन जहाँ भी संभव हुआ वहाँ निश्चित रूप में आनंद एवं उल्लास का स्रोत फूटा। सच्चे गायत्री- उपासक का जीवन सब प्रकार धन्य हुए बिना रह ही नहीं सकता ।।वेद- मंत्रों की अद्भुत रचना ज्ञान और विज्ञान से परिपूर्ण है। मंत्रों का साधारण अर्थ शिखा एवं ज्ञान के लिए प्रयुक्त होता है। हर वेद मंत्र में ऐसी महत्त्वपूर्ण शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं, जिसके द्वारा मानव जीवन प्रगति की ओर सहज ही अग्रसर हो सकता है। इसके अतिरिक्त इन मंत्रों में वैज्ञानिक रहस्य भी छिपा पड़ा है। उनमें शब्दों का चयन स्वर विज्ञान के मर्मज्ञ ऋषियों ने इस ढंग से किया है कि उनके उच्चारण मात्र से शरीर और मन में विशेष प्रकार के ध्वनि- कम्पन तरंगित होने लगते हैं और वे तरंगें मनुष्य के अन्तर्मन में वैसी प्रेरणाएँ प्रवाहित करती हैं, जिससे व्यक्ति उसी दिशा में सोचने, करने, बढ़ने और टलने के लिए अनायास ही उत्तेजित होता है। वेद- मंत्रों में सन्मार्ग दर्शन कराने वाला जितना ज्ञान भरा पड़ा है, उससे कहीं अधिक शक्तिशाली वह विज्ञान है, जिसके माध्यम से अन्तःप्रदेश में समस्त सूक्ष्म चित्र विकृत होकर उन्हीं मधुर ध्वनि- तरंगों का प्रादुर्भाव करते हैं, जिनके लिए वह मंत्र बना था। गायत्री मंत्र को वेद का बीज मंत्र कहा जाता है। उसी के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप चारों वेद बने हैं। वेदों में जो कुछ भी ज्ञान- विज्ञान है वह बीज रूप में गायत्री में मौजूद हैं। इसलिए उसकी गरिमा चारों वेदों के समतुल्य ही समझी जाती है।
गायत्री का उच्चारण, पाठ एवं जप करने का एक अत्यन्त ही शक्तिशाली सूक्ष्म प्रभाव होता है। उस प्रभाव से प्रभावित मनुष्य उसी मार्ग पर चलने के लिए विवश होता है जो मंत्र का मूल प्रयोजन था। गायत्री का मूल उद्देश्य सत्प्रेरणाओं और सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन है। देखा यही जाता है कि जो लोग भावनापूर्वक इस मार्ग पर बढ़ते हैं उन्हें कोई अज्ञात शक्ति सद्भावनाओं को अपनाने के लिए प्रेरणा रहती है और मनुष्य कितना ही कठोर क्यों न हो, उस प्रेरणा को पूर्णतया ठुकरा नहीं सकता, न्यून मात्रा में ही सही पर उसका सुधार अवश्य होता है और जिसकी मनोभूमि जितनी सुधरी उसका कल्याण भी उतना ही निकट आया। गायत्री को कल्याणी इसीलिए कहा जाता है कि उसका अंचल श्रद्धापूर्वक पकड़ने वाला व्यक्ति कल्याण की ओर ही चलता है और अन्ततः कल्याण का लक्ष्य भी प्राप्त कर लेता है। शब्द- विज्ञान अपने आप में एक परिपूर्ण शास्त्र है। जिह्वा से उच्चारण किये हुए शब्द मनुष्य के मन पर भारी प्रभाव डालते हैं और उनका प्रभाव तुरन्त ही दृष्टिगोचर होता है। कटुवचन बोलने का प्रतिफल क्रोध एवं लड़ाई के रूप में सामने आता है।
किसी प्रेमी का शोक- समाचार सुनते ही भूख- प्यास भाग जाती है और मनुष्य अर्ध मृतक जैसा बन जाता है। भय एवं आशंका की सी भावना सुनकर दिल धड़कने लगता है, व्यंग- उपहास के थोड़े से शब्द द्रौपदी ने कहे थे और उसका प्रतिफल महाभारत के रूप में सामने आया। परीक्षा में उत्तीर्ण होने की खबर सुनकर छात्रों को कितनी प्रसन्नता होती है। रोदन एवं क्रंदन के शब्द सुनकर अपना भी हृदय फटने लगता है। प्रेम और सहानुभूति के वचन कितने मधुर लगते हैं। कामुकता और वासना के प्रस्ताव शरीर में कैसे हलचल मचा देते हैं। शब्द की शक्ति का हम पग- पग पर अनुभव करते हैं। संगीत के माध्यम से रोगों का निवारण, भावनाओं का अभिवर्धन, गौओं का अधिक दूध देना, मृग और साँप का स्थिर मुग्ध होने पर पकड़ा जाना प्रसिद्ध है। किसी को गलत सलाह या गलत आज्ञा देकर दुष्कर्म कराने वाला भी अपराधी माना जाता है और दंड भुगतता है। असत्य शब्द पाप ही तो हैं, जिसे प्रधान दूषणों में गिना गया है। शब्दों का कुप्रभाव कई बार जीवन- मरण की विभीषिका के रूप में सामने आता देखा गया है।
गायत्री मंत्र के २४ अक्षर शक्ति बीज के नाम से विख्यात है। इनका उच्चारण सूक्ष्म शरीर के सारे ढाँचे को प्रभावित करता है। टाइप राइटर की अक्षर- कुञ्जियों पर उँगली रखने से ऊपर लगे हुए कागज पर वही अक्षर छप जाता है। कुंजी पर दबाव पड़ते ही मशीन के भीतर लगी हुई तीली अपनी जगह से चलती है और कागज पद अक्षर छापकर फिर अपनी जगह वापिस आ जाती है। उसी प्रकार गायत्री मंत्र में उच्चारित हुए शब्द मुख- कंठ ओष्ठ- तालु आदि संस्थानों में संलग्न ज्ञान- तंतुओं को तरंगित करते हैं और उनका प्रभाव षट्- चक्रों एवं ५४ उपत्यिकाओं पर पड़ता है। इन रहस्यमय संस्थानों में अनेक शक्तियाँ गुप्त रूप से प्रसुप्त अवस्था में छिपी पड़ी रहती हैं। उन्हें जगाने का क्रम गायत्री जप द्वारा आरम्भ किया जाता है तो वे सक्रिय होने लगती हैं और धीरे- धीरे अपने में आशाजनक उत्साहवर्धक परिवर्तन हुआ अनुभव करने लगता है। गायत्री उपासना के अनेक लाभ बताये गये हैं। उसका ऐसा आश्चर्यजनक माहात्म्य शास्त्रों में मिलता है कि थोड़े से अक्षरों को बार- बार दुहराने मात्र से, जप करने मात्र से, कैसे उतना बड़ा लाभ संभव हो सकता है। पर अनुभव यही बताता है कि जिसने परीक्षा के लिए भी इस मार्ग पर थोड़े से कदम बढ़ाये, उसे निराश नहीं होना पड़ा वरन् आशा से अधिक ही उसने पाया।