१.
उपवास- रविवार का दिन गायत्री के उपवास का दिन है। निराहार केवल
जल पर रहना या दूध, फल, छाछ, शाक आदि फलाहारी वस्तुओं पर रहने
का निर्णय अपनी शारीरिक स्थिति देखकर करना चाहिए। जो कठिन उपवास
नहीं कर सकते वे एक समय बिना नमक का अन्नाहार कर रह सकते हैं।
२. मंत्रलेखन-
जप की अपेक्षा मंत्र लेखन का फल सौ गुना अधिक फलदायी माना गया
है। क्योंकि इसमें श्रम और मनोयोग अधिक रहता है। चित्त की
एकाग्रता और मन को वश में करने के लिए भी मंत्र लेखन बहुत
सहायक होता है। स्कूली साइज की कापी में किसी भी स्याही से
शुद्धता पूर्वक गायत्री मंत्र लिखे जा सकते हैं। इसके लिए कोई
विशेष नियम या प्रतिविम्ब नहीं है। जब २४००० मंत्र पूरे हो जायें तो वह कापी ‘गायत्री तपोभूमि, मथुरा’
के पते पर भेज देना चाहिए। यह मंत्र गायत्री तपोभूमि मथुरा में
प्रतिष्ठापित किये जाते हैं और सदैव इनका विधिवत् पूजन होता
रहता है। ऐसी मंत्र लेखन श्रद्धांजलियां गायत्री मन्दिर में माता के सम्मुख उपस्थित करना एक बहुमूल्य भेंट है।
३.
हवन- जिन्हें सुविधा हो वे नित्य अथवा रविवार को अथवा अमावस्या
पूर्णमासी को अथवा जब सुविधा हो तब गायत्री मंत्र से हवन कर
लिया करें। जप के साथ हवन का सम्बन्ध है। अनुष्ठानों में तो जप
का दशांश या शतांश हवन करना आवश्यक होता है पर साधारण साधना
में वैसा कोई प्रतिबन्ध नही है फिर भी यदा- कदा हवन करते रहना गायत्री उपासकों का कर्तव्य है। हवन की विस्तृत विधि तो ‘गायत्री यज्ञ विधान’ ग्रन्थ में है उसके आधार पर अथवा अन्य किसी हवन पद्धति के आधार पर अग्नि होत्र कर लेना चाहिए। न्यूनतम २४ आहुतियों का हवन होना चाहिए। १०८ या २४० आहुतियों का हवन हो सके तो और भी उत्तम है।
४.
अभियान- एक वर्ष तक गायत्री की नियमित उपासना का व्रत लेने को
अभियान साधना कहते हैं। इसका नियम निम्न प्रकार है-
(१) प्रतिदिन १० माला का जप, (२)
प्रतिदिन रविवार को उपवास (जो फल दूध पर न रह सकें वे एक समय
बिना नमक क अन्नाहार लेकर भी अर्ध उपवास कर सकते हैं) (३) पूर्णिमा या महीने के अन्तिम रविवार को १०८ या कम से कम २४ आहुतियों का हवन। सामग्री न मिलने पर केवल घी की आहुतियां गायत्री मंत्र के साथ देकर कर सकते हैं। (४) मन्त्र- लेखन कम से कम २४ गायत्री मन्त्र एक कापी पर लिखना, (५) स्वाध्याय- गायत्री साहित्य का थोड़ा बहुत स्वाध्याय नित्य करके अपने गायत्री सम्बन्धी ज्ञान को बढ़ाना, (६) ब्रह्म संदीप-
दूसरों को गायत्री साहित्य पढ़ने तथा उपासना करने की प्रेरणा एवं
शिक्षा देकर उनका ज्ञान बढ़ाना एवं नये गायत्री उपासक उत्पन्न
करना। इन छः नियमों को एक वर्ष नियम पूर्वक पालन किया जाय तो
उसका परिणाम बहुत ही कल्याणकारक होता है। वर्ष के अन्त में
यथाशक्ति हवन, एवं दान पुण्य करना चाहिए।
५. अनुष्ठान- अनुष्ठान विशेष तपश्चर्या है। इससे विशेष परिणाम प्राप्त होता है। लघु अनुष्ठान २४ हजार जप का, मध्यम अनुष्ठान सवा लक्ष जप का तथा पूर्ण पुरश्चरण २४ लक्ष जप का होता है। साधारणतः लघु अनुष्ठान ९ दिन में, मध्यम ४० दिन में और पूर्ण अनुष्ठान लगभग १/२ वर्ष में पूरा होता है। आश्विन और चैत्र की नवरात्रियां
लघु अनुष्ठान करने के लिए अधिक उपयुक्त अवसर हैं। सुविधानुसार
अनुष्ठानों को कम या अधिक समय में भी किया जा सकता है। प्रतिदिन
हो सकने वाले जप की संख्या और अनुष्ठान की जप संख्या का
हिसाब लगाकर अवधि निर्धारित की जा सकती है। जप संख्या नित्य समान
संख्या में होनी चाहिए। जप का सौवां
भाग (शतांश) हवन भी होना चाहिए। अनुष्ठान के दिनों में
ब्रह्मचर्य, उपवास, मौन, भूमि शयन, अपनी शारीरिक सेवा दूसरों से न
लेना, आदि तपश्चर्यायें
अपने से जितनी बन सकें उतनी करने का प्रयत्न करना चाहिए।
अनुष्ठान विद्वान वेदपाठी पंडितों से भी कराये जा सकते हैं।
६.
अनुज्ञान- गायत्री उपासना जैसे महान कल्याण कारक साधक को लोग
भूल बैठे हैं इसका मूल कारण गायत्री के महत्त्व महात्म्य एवं
विज्ञान की जानकारी न होना है। इस जानकारी को फैलाने से ही पुनः
संसार में गायत्री माता का दिव्य प्रकाश फैलेगा और असंख्यों
हीन दशा में पड़ी हुई आत्माएँ महापुरूष बनेंगी। इसलिए गायत्री ज्ञान का फैलाना भी अनुष्ठान की भाँति ही महान् पुण्य कार्य है। इस प्रचार साधना का नाम ‘‘अनुज्ञान’’ है। किन्हीं गायत्री पुस्तकों को अपनी श्रद्धानुसार २४, १०८, २४०, १००८, २४०० की संख्या में धार्मिक प्रकृति के मनुष्यों को पढ़वाना, दान देना या खरीदवाना ‘अनुज्ञान’
है। मकर संक्रान्ति पर नवरात्रियों में गायत्री जयन्ती, गंगादशहरा,
अपना जन्म- दिन, पूर्वजों के श्राद्ध, पुत्र- जन्म, विवाह, सफलता,
उन्नति व्रत, त्यौहार, उत्सव आदि के शुभ अवसरों पर ऐसे ‘अनुज्ञान’
करते रहना अत्यन्त ही उच्च कोटि की माता को प्रसन्न करने वाली
श्रद्धांजलि है। अन्नदान की अपेक्षा ब्रह्मज्ञान का फल हजार गुना
अधिक माना गया है।
७. पूर्ण पाठ- गायत्री सहस्रनाम या गायत्री चालीसा के पाठ करना भी फलप्रद है। गायत्री सहस्रनाम के ९ दिन में १०८ पाठ और गायत्री चालीसा के ९ दिन में २४० पाठ करने को पूर्ण पाठ कहते हैं। इनके अन्त में भी हवन तथा दान करना चाहिए।
बहुधा आसुरी शक्तियाँ यज्ञों, अनुष्ठानों, एवं पाठों को असफल
बनाने के लिए बीच- बीच में विघ्न फैलाती हैं तथा कभी- कभी साधन
करने वाले से कोई त्रुटि रहने से भी साधना सफल नहीं हो पाती।
इन विघ्नों से बचने के लिए किसी सुयोग्य अनुभव साधक को अपनी
साधनाओं का संरक्षक नियुक्त किया जाता है जो विघ्नों से संरक्षण
तथा त्रुटियों का दोष परिमार्जन करता रहे। जिन्हें ऐसे संरक्षक
प्राप्त करने में कठिनाई हो वे गायत्री तपोभूमि मथुरा से इस
प्रकार की सेवा सहायता प्राप्त कर सकते हैं।
अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक प्रकार की अलग- अलग साधनाएँ की
जाती हैं। कठिन से कठिन रोगों के निवारण के लिए मन्द बुद्धि
लोगों की बुद्धि को तीव्र बनाने के लिए, सर्प आदि प्राण घातक
विषैले जन्तुओं का विष निवारण करने के लिए, राजकीय अदालती कार्यों
में सफलता के लिए, दरिद्रता नाश के लिए, मनोवाँछित सन्तान
प्राप्त करने के लिए, शत्रुता संहार करने के लिए, भूत बाधा की
शान्ति के लिए, पथ भ्रष्टों को रास्ते पर लाने के लिए, आक्रमण की
संभावना से आत्म रक्षा के लिए विभिन्न रीतियों से अनेक बीज
मंत्र एवं सम्पुट लगा कर गायत्री साधना की जाती है।
गायत्री की तांत्रिक साधना हर कोई नहीं कर सकता ।। इसके लिए
दुस्साहसी, धैर्यवान् एवं निर्भय स्वभाव के साधक ही उपयुक्त होते
हैं। तन्त्र साधना के परिणाम तो चमत्कारक
होते हैं पर उसमें थोड़ी भी भूल रहने से प्राणघातक संकट
उत्पन्न होने या पागल होने का भय रहता है। अनधिकारी लोग तन्त्र
साधना न करें इसी दृष्टि से उनके विधान गुप्त रहते हैं। वे किसी पुस्तक में नहीं लिखे जाते वह गुरूपरम्परा
से सीखे और सिखाये जाते हैं। गायत्री का तन्त्र मार्ग शक्तिशाली
तो अवश्य है, पर उसकी ओर साधारण साधकों को न पड़ना ही उचित है
।। वेदोक्त दक्षिण मार्गी साधना ही सर्वसुलभ एवं परम कल्याणकारक
है। साधना का विस्तृत विधान गायत्री महाविज्ञान आदि ग्रन्थों में
मौजूद है। जिन्हें अधिक जिज्ञासा हो वे उन्हें पढ़ लें।
गायत्री उपासना का मुख्य लाभ ‘सद्बुद्धि’
की वृद्धि है। इस उपासना का आरम्भ करते ही मनुष्य के कुविचार
एवं कुसंस्कार, नष्ट होने आरम्भ हो जाते हैं और उनके स्थान पर
सद्विचार, सद्भाव, शुभ संकल्प, सद्गुण एवं सत्कर्मों में प्रवृत्ति
एवं अभिरूचि
बढ़ने लगती है। यह लाभ सबको होता है और निश्चित रूप से होता
है। बुरे से बुरे स्वभाव, आचरण और मनोवृत्ति का मनुष्य भी यदि
कुछ दिन गायत्री उपासना परीक्षा के रूप में करके देखे तो उसे
स्पष्ट प्रतीत होगा कि उसकी बुराइयां तेजी से घट रही हैं और उनके स्थान पर सतोगुणी वृत्तियां बढ़ रही हैं। यह एक लाभ ही ऐसा है जिसकी तुलना में बड़े से बड़ा सांसारिक लाभ भी तुच्छ ठहरता है।
इस सुनिश्चित लाभ के अतिरिक्त और भी अनेक सांसारिक एवं आत्मिक
लाभ हैं। मनुष्य अनेकों सामने आई हुई कठिनाइयों से आत्मरक्षा कर
सकता है। कठिन प्रारब्ध भाग भी इस आश्रय को पकड़ने से हल्के हो
जाते हैं। उन्नति एवं सुख शान्ति के अनेक द्वार खुलते हैं। शोक,
सन्ताप, चिन्ता, निराशा एवं बेचैनी में परेशान मनुष्यों को डूबने
से उबरने के अवसर प्राप्त होते हैं।
आध्यात्मिक लाभ तो अनन्त हैं। योग और तपस्वी लोग नाना प्रकार
की कष्ट साध्य साधनाओं से जिस लक्ष्य को बहुत लम्बे समय में
प्राप्त करते हैं उसे गायत्री उपासना द्वारा सरलता पूर्वक प्राप्त
किया जा सकता है। समस्त ऋद्धि सिद्धियाँ करतलगत हो सकती हैं।
आत्मा पर चढ़े हुए मल विक्षेप नष्ट होकर आत्म साक्षात्कार एवं
प्रभु दर्शन का अवसर स्वल्पकाल में ही सम्मुख उपस्थित हो जाता
है। जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने और जन्म- मरण की फाँसी से
छुटकारा पाने के लिए गायत्री उपासना से बढ़कर और कोई मार्ग नहीं
है। किस प्रयोजन के लिये किस प्रकार साधनाएँ करनी चाहिए इसका
विस्तृत वर्णन पिछले पृष्ठों पर देखा जा सकता है।