गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि

गायत्री की सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वसुलभ ध्यान

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मानव- मस्तिष्क बड़ा ही आश्चर्यजनक, शक्तिशाली एवं चुम्बक गुण वाला यन्त्र है, उसका एक- एक परमाणु इतना विलक्षण है उसकी गतिविधि, सामर्थ्य और क्रियाशीलता को देखकर बड़े- बड़े वैज्ञानिक हैरत में रह जाते हैं। इन अणुओं को जब किसी विशेष दशा में नियोजित कर दिया जाता है तो उसी दिशा में एक लप- लपाती हुई अग्नि जिह्वा अग्रगामी होती है। जिस दिशा में मनुष्य इच्छा, आकांक्षी और लालसा करता है उसी दिशा में, उसी रंग में, उसी लालसा में, शरीर की अन्य शक्तियाँ नियोजित हो जाती हैं ।।

पहले भावनाएँ मन में आती हैं ।। फिर जब उन भावनाओं पर चित्त एकाग्र होता है, तब यह एकाग्रता, एक चुम्बक शक्ति आकर्षण- तत्त्व के रूप में प्रकट होती है और अपने अभीष्ट तत्त्वों को अखिल आकाश में से खींच लाती है। ध्यान का यही विज्ञान है। इस विज्ञान के आधार पर प्रकृति के अन्तराल में निवास करने वाली सूक्ष्म आद्यशक्ति ब्रह्मस्फुरणा गायत्री को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है। उसके शक्ति- भण्डार को प्रचुर मात्रा में अपने अन्दर धारण किया जा सकता है। जप के समय अथवा किसी अन्य सुविधा के समय में एकान्त, कोलाहल रहित, शान्त वातावरण के स्थान में स्थिर चित्त होकर ध्यान के लिए बैठना चाहिए। शरीर शिथिल रहे। यदि जप- काल में ध्यान किया जा रहा है तब तो पालथी मारकर, मेरुदण्ड सीधा रखकर ही ध्यान करना उचित है। यदि अलग समय में करना हो तो आराम कुर्सी पर लेटकर या मसन्द, दीवार, वृक्ष आदि का सहारा लेकर साधना करनी चाहिए, शरीर बिलकुल शिथिल कर दिया जाय। इतना शिथिल मानो देह निर्जीव हो गया। इस स्थिति में नेत्र बन्द करके दोनों हाथों को गोदी में रखकर ऐसा ध्यान करना चाहिए कि इस संसार में सर्वत्र केवल नील आकाश है, उसमें कहीं कोई वस्तु नहीं है। प्रलयकाल में जैसी स्थिति होती है आकाश के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं रह जाता वैसी स्थिति का कल्पना- चित्र मन में भली- भाँति अंकित करना चाहिए। जब यह कल्पना- चित्र भावना- लोक में भली- भाँति अंकित हो जाय तो सुदूर आकाश में एक छोटे ज्योति पिण्ड को सूक्ष्म नेत्रों से देखना चाहिए। सूर्य के समान प्रकाशवान एक छोटे नक्षत्र के रूप में गायत्री का ध्यान करना चाहिए। यह ज्योति- पिण्ड अधिक समय तक ध्यान में रखने पर समीप आता है, बड़ा होता जाता है और उसका तेज अधिक प्रखर हो जाता है।

चन्द्रमा या सूर्य के मध्य भाग में ध्यानपूर्वक देखा जाय तो उसमें काले- काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं। इसी प्रकार इस गायत्री तेज- पिंड में ध्यानपूर्वक देखने से आरम्भ में भगवती गायत्री की धुँधली सी प्रतिमा दृष्टिगोचर होती है। धीरे- धीरे ध्यान करने वाले को यह मूर्ति अधिक स्पष्ट, अधिक स्वच्छ, अधिक चैतन्य, हँसती, बोलती, चेष्टा करती, संकेत करती तथा भाव प्रकट करती हुई दिखाई पड़ती है। हमारी इस गायत्री पुस्तक के आरम्भ में भगवती गायत्री का एक चित्र दिया हुआ है। उस चित्र का ध्यान आरम्भ में करने से पूर्व कई बार बड़े प्रेम से गौर से, भली- भांति अंग- प्रत्यंगों का निरीक्षण करके उस मूर्ति को मनःक्षेत्र में इस प्रकार बिठाना चाहिए कि ज्योति- पिण्ड में ठीक वैसी ही प्रतिमा की झाँकी होने लगे। थोड़े दिनों में यह तेजोमण्डल से आवेष्टित भगवती गायत्री की छवि अत्यन्त सुन्दर, अत्यन्त हृदयग्राही रूप से ध्यानावस्था में दृष्टिगोचर होने लगती है।

जैसे सूर्य की किरणें धूप में बैठे हुए मनुष्य के ऊपर पड़ती हैं और वह किरणों की उष्णता को प्रत्यक्ष अनुभव करता है, वैसे ही यह ज्योतिपिण्ड जब समीप आने लगता है, ऐसा अनुभव होता है मानो कोई दिव्य प्रकाश अपने मस्तक में, अन्तःकरण में और शरीर के रोम- रोम में प्रवेश करके अपना अधिकार जमा रहा है। जैसे अग्नि में पड़ने से लोहा भी धीरे- धीरे गरम और लाल रंग का अग्निवर्ण हो जाता है, वैसे ही जब गायत्री तेज को ध्यानावस्था में साधक अपने अन्दर धारण करता है तो वही सच्चिदानन्द स्वरूप, ऋषि कल्प होकर ब्रह्म तेज से झिलमिलाने लगता है। उसे अपना सम्पूर्ण शरीर तप्त स्वर्ण की भाँति रक्तवर्ण अनुभव होता है और अंतःकरण में एक अलौकिक दिव्य रूप का प्रकाश सूर्य के समान प्रकाशित हुआ दीखता है। इस तेज संस्थान में आत्मा के ऊपर चढ़े हुए अपने कलुष कषाय जल- बल कर भस्म हो जाते हैं और साधक अपने को ब्रह्मस्वरूप, निर्भय, निष्पाप, निरासक्त अनुभव करता है।

इस तेज धारण ध्यान में कई बार रंग- बिरंगे प्रकाश दिखाई पड़ते हैं, कई बार प्रकाश में छोटे- मोटे रंग- बिरंगे तारागण प्रगट होते ,, जगमगाते और छिपते दिखाई पड़ते हैं, वे एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर चलते हैं और फिर बीच में ही तिरछे चलने लगते हैं तथा उलटे वापस लौट पड़ते हैं। क बार चक्राकार एवं बाण की तरह तेजी से एक दिशा में चलते हुए छोटे- छोटे प्रकाश खण्ड दिखाई पड़ते हैं। यह सब अन्तरात्मा में गायत्री- शक्ति की वृद्धि होने से छोटी- छोटी अनेकों शक्तियाँ एवं गुणवलियाँ विकसित होती हैं वे ही ऐसे छोटे- छोटे रंग- बिरंगे प्रकाश पिण्डों के रूप में परिलक्षित होते हैं।

जब साधना अधिक प्रगाढ़, पुष्ट और परिपक्व हो जाती है तो मस्तिष्क के मध्यभाग या हृदय स्थान पर वही गायत्री तेज स्थिर हो जाता है। यही सिद्धावस्था है। जब यह तेज बाहर आकाश से खिंचकर अपने अन्दर स्थिर हो जाता है तो ऐसी स्थिति हो जाती है, जैसे अपना शरीर और गायत्री का प्राण एक ही स्थान पर सम्मिलित हो गये हों। भूत- प्रेत का आवेश शरीर में बढ़ जाने पर जैसे मनुष्य उस प्रेतात्मा की इच्छानुसार काम करता है, वैसे ही गायत्री- शक्ति का आधान अपने अन्दर हो जाने से साधक के विचार का कार्य, आचरण मनोभाव, रूचि इच्छा, आकांक्षा एवं ध्येय में परमार्थ प्रधान रहता है। इससे मनुष्यत्व में से पशुता घटती है और देवत्व की मात्रा बढ़ती जाती है।

उपर्युक्त ध्यान गायत्री का सर्वोत्तम ध्यान है। जब गायत्री तेज- पिण्ड की किरणें अपने ऊपर पड़ने की ध्यान- भावना की जा रही हो तब यह भी अनुभव करना चाहिए कि यह किरणें सद्बुद्धि, सात्विकता एवं सशक्तता को उसी प्रकार हमारे ऊपर डाल रही हैं, जिस प्रकार कि सूर्य की किरणें गर्मी, प्रकाश तथा गतिशीलता प्रदान करती हैं। इस ध्यान से उठते ही साधक अनुभव करता है कि उसके मस्तिष्क में सद्बुद्धि, अन्तःकरण में सात्विकता तथा शरीर में सूक्ष्मता की मात्रा बढ़ गई है। यह बुद्धि यदि थोड़ी- थोड़ी करके भी नित्य होती रहे तो धीरे- धीरे कुछ ही समय में वह बड़ी मात्रा में एकत्रित हो जाती है, जिससे साधक ब्रह्म- तेज का एक बड़ा भण्डार बन जाता है। ब्रह्म तेज की दर्शनी हुण्डी है, जिसे श्रेय और प्रेय दोनों में से किसी भी बैंक में भुनाया जा सकता है उसके बदले में दैवी लाभ या सांसारिक सुख कोई भी वस्तु प्राप्त की जा सकती है।

सूर्यार्घ्यदान

विसर्जन जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में अर्घ्य रूप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है।

ॐ सूर्यदेव सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते ।।
अनुकम्पय मां भक्तया गृहाणार्घ्यं दिवाकर।
ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः ।।


भावना यह करें कि जल आत्मसत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित- विसर्जित हो रही है। इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर विदाई का निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाय ।।

उत्तमे शिखरे देवि भूम्यां पर्वतं मूर्धनि ।।
ब्रह्मणेभ्योऽह्ममनु ज्ञातं गच्छ देवि यथासुखम्


तत्पश्चात् सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जावे ।। जप के लिए माला तुलसी या चन्दन की ही होनी चाहिए। सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घण्टे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है। मौन- मानसिक जप चौबीस घण्टे किया जा सकता है। माला जपते समय तर्जनी उँगली का उपयोग न करें तथा सुमेरू का उल्लंघन न करें ।।
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