न्यूनतम उपासना प्रक्रिया के अन्तर्गत ज्योति- अवतरण ध्यान तथा
नित्य पूजा एवं जप का सरल विधान बताया गया है और नवरात्रियों
में अनुष्ठानों की तपश्चर्या करते रहने का सुझाव दिया गया है। यह
क्रम व्यस्त समय वाले लोगों के लिए भी कुछ कठिन नहीं है। यदि
अन्तःकरण में आकांक्षा जाग पड़े तो प्रातः सोकर उठते ही चारपाई
पर पड़े- पड़े आधा घण्टे का ध्यान और नित्यकर्म के उपरान्त आधा
घण्टे की पूजा- प्रक्रिया यह समय अथवा विधान ऐसा नहीं है जिससे
कहीं सांसारिक कामों में अड़चन पड़ती हो। प्रश्न केवल रुचि और आकांक्षा का है। यदि मन को जाग्रत किया जा सके तो जीवनोद्देश्य को पूर्ण करने की दिशा में इतने मात्र से महत्वपूर्ण प्रगति हो सकती है।
नवरात्रियों में कुछ समय तो अधिक लग जाता है और कुछ अड़चनें
भी सहनी पड़ती हैं, पर इससे कई- कई गुने कष्ट सांसारिक कार्यों के
लिए बार- बार सहने पड़ते हैं, तो आत्म- कल्याण के लिए इतनी अड़चन
सह लेनी भी कुछ मुश्किल नहीं है। जिनमें निष्ठा है, वे सांसारिक
कार्यों का बहुत अधिक दबाव रहने पर भी इतना समय बड़ी आसानी से
निकाल लेते हैं। यों उपासना का क्षेत्र बहुत विशाल और व्यापक
है। जिनके पास समय है, अभिलाषा है, निष्ठा है, उनके लिए एक से एक
महत्त्वपूर्ण साधन मौजूद हैं। उन्हें अपनी मनोभूमि और परिस्थितियों के अनुसार मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए।
जितना महत्व उपासना का है उतना ही साधना का भी है। हमें उपासना पर ही नहीं साधना पर भी ध्यान और जोर देना चाहिये। जीवन को
पवित्र और परिष्कृत, संयत और सुसंतुलित, उत्कृष्ट और आदर्श बनाने
के लिए, अपने गुण- कर्म, स्वभाव को उच्चस्तरीय बनाने के लिए
निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रयत्न का नाम ही जीवन- साधना
अथवा साधना है।
उपासना- पूजा तो निर्धारित समय का क्रिया- कलाप पूरा कर लेने पर
समाप्त हो जाती है, पर साधना चौबीस घण्टे चलानी पड़ती है। अपने
हर विचार और हर कार्य पर एक चौकीदार की तरह कड़ी नजर रखनी पड़ती
है कि कहीं कुछ अनुचित, अनुपयुक्त तो नहीं हो रहा है। जहाँ भूल
दिखाई दी कि उसे तुरन्त सुधारा- जहाँ विकार पाया कि तुरन्त उसकी चिकित्सा की- जहाँ पाप देखा पाया कि तुरन्त उससे लड़ पड़े। यही साधना है। जिस प्रकार सीमारक्षक प्रहरियों को हर घड़ी शत्रु की चालों और घातों
का पता लगाने और जूझने के लिए लैस रहना पड़ता है, वैसे ही
जीवन- संग्राम के हर मोर्चे पर हमें सतर्क और तत्पर रहने की
आवश्यकता पड़ती है। इसी तत्परता को साधना कहा जा सकता है।
यह सोचना ठीक नहीं कि भजन करने मात्र से पाप कट जायेंगे और
ईश्वर प्रसन्न हो जायेंगे, अतएव जीवन को शुद्ध बनाने अथवा
कुमार्गगामिता से बचाने की आवश्यकता नहीं, इसी भ्रमपूर्ण मान्यता
ने अध्यात्म के लाभों से हमें वंचित रखा है। यह भ्रम दूर हटाना
चाहिए और भारतीय अध्यात्म का तत्वज्ञान
एवं ऋषि- अनुभवों के आधार पर यही निष्कर्ष अपनाना चाहिए कि
उपासना और साधना आध्यात्मिक प्रगति के दो अविच्छिन्न पहलू हैं।
दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अपूर्ण हैं। जिस
तरह अन्न और जल, रात और दिन, शीत और ग्रीष्म, स्त्री और पुरूष का जोड़ा है, उसी प्रकार उपासना और साधना भी अन्योन्याश्रित
है। एक के बिना दूसरा अकेला, असहाय एवं अपूर्ण ही बना रहेगा,
इसलिए दोनों को साथ लेकर अध्यात्म मार्ग पर प्रगतिशील होना ही
उचित और आवश्यक है।
सच्चे आस्तिक एवं सच्चे ईश्वर भक्त का जीवन- क्रम उत्कृष्ट
आदर्शवादी एवं परिष्कृत होना ही चाहिए। नशा पीने पर मस्ती आनी ही
चाहिए। भक्ति का प्रभाव सज्जनता और प्रगतिशीलता के रूप में
दीखना ही चाहिए। इसलिए हमारा उपासना क्रम सांगोपांग होना चाहिए और
उसमें आत्म- निरीक्षण, आत्म- सुधार, आत्म- निर्माण एवं आत्म- विकास
की परिपूर्ण प्रक्रिया जुड़ी रहनी ही चाहिए। उपासना और साधना का
स्वतंत्र अस्तित्व है। एक को कर लेने से दूसरे की पूर्ति हो
जायेगी यह सोचना उचित नहीं। लाखों साधु- बाबा, पण्डा- पुजारी भजन-
ध्यान में नित्य घण्टों समय लगाते हैं पर उनका प्रायः जीवन
घृणित एवं निकृष्ट स्तर का बना रहता है।
ईश्वर की भावनात्मक पूजा की तरह ही
सद्आचरण
द्वारा भी उपासना की जा सकती है। हम निष्पाप बनें इतना ही
पर्याप्त नहीं वरन् यह भी आवश्यक है कि अपने कर्म एवं स्वभाव
में सद्गुणों का समुचित समावेश करके दिव्य जीवन बनावें और उसके
द्वारा अपना और समस्त समाज का कल्याण करें। व्यक्तित्व को
परिष्कृत और विकसित करते हुए ही हम आत्मिक प्रगति के मार्ग पर
बढ़ते हैं और पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकने में सफल होते
हैं। अतएव यही सनातन क्रम चला आता है कि हर अध्यात्म- प्रेमी
ईश्वर की उपासना के साथ जीवन को उत्कृष्ट बनाने की साधना भी
करे। गायत्री उपासक का जीवन- क्रम उत्कृष्ट आदर्शवादी एवं परिष्कृत
होना ही चाहिए। नशा पीने पर मस्ती आनी ही चाहिए। उपासना और
साधना का स्वतंत्र अस्तित्व है। एक को कर लेने से दूसरे की
पूर्ति हो जायेगी, यह
उचित नहीें।
गायत्री संहिता में कहा गया है-
आहारे व्यवहारे च मस्तिष्केऽमि तथैव हि ।।
सात्विकेन सदा भाव्यं साधकेन करीषिण्म ॥
कर्तव्य धर्मतः कर्म विपरीतं तु यद् भवेत् ।।
तत्साधकस्तु मातिमानाचरेन्न कदाचन ॥
अर्थात्- आहार में, व्यवहार में और उसी प्रकार मस्तिष्क में भी
बुद्धिमान साधक को सात्विक होना चाहिए। जो काम कर्तव्य कर्म से
विपरीत हो वह बुद्धिमान साधक नहीं करें ।।
बीजमंत्र ‘क्लीं’ की साधना :-
बीजमंत्र
‘क्लीं’
की सब प्रकार की मनोकामनाओं की सिद्धि के लिए बड़ा प्रभावशाली
माना गया है, इसे एक सफेद कागज पर लिखना चाहिए। लगभग
१
फुट व्यास का गोल कागज लेकर पेन्सिल से लगभग चार अंगुल ऊँचा
अक्षर लिखना चाहिए फिर उस कागज के खाली भाग को सिंदूर के लाल
रंग से रंगना चाहिए तेल मिले हुए सिंदूर का रंग ठीक रहता है,
पानी अथवा चाक द्वारा बनाया गया रंग जल्दी उड़ जाता है। इस
प्रकार आकृति तैयार करने के बाद प्रतिदिन प्रातःकाल मन में शान्त
अवस्था में चित्र से लगभग
२
फुट दूर बैठना चाहिए। आकृति को सामने की दीवार पर टाँग देना
चाहिए अथवा चिपका देना चाहिए। इस आकृति को नित्य प्रति
१५ मिनट से आरम्भ करके
१ घण्टा तक स्थिर दृ
ष्टि से ताकना चाहिए। यह स्थिर
दृष्टि त्राटक की तरह नहीं होती क्योंकि वैसा करने से
आंखों की ज्योति घटने का भय रहता है।
यह प्रयोग ध्यान का होता है जबकि त्राटक का उद्देश्य
दृष्टि को वेधक बनाना होता है थोड़ी देर तक खूब ध्यानपूर्वक
‘क्लीं’
अक्षर को देखकर आँखें बन्द कर लेना चाहिए और तब इस बीज
मन्त्र को आँख खोले बिना ही अपने कपाल पर देखने का प्रयत्न
करना चाहिए। यदि पहले ध्यान पूर्वक देखा गया है तो आँखें बन्द
करने पर भी
एकाधक्षण
के लिए यह तुम्हें अपने कपाल पर अवश्य दिखलाई पड़ेगा। यदि आरम्भ
में मानसिक अस्थिरता के कारण कपाल पर यह दिखलाई न दे तो
इसमें निराश होने की कोई बात नहीं है। खुली आँखों से ही सब तरह
के विचारों को त्याग कर एकाग्र चित्त से बीज मंत्र को देखते
रहना चाहिए। मन में से बाहरी विचारों को हटाने का सरल मार्ग यह
है कि बीज मंत्र को देखते समय मन में
‘ॐ क्लीं
नमः’
यह मन्त्र जपते रहना चाहिए, ऐसा करने से अन्य विचार नहीं
आयेंगे और बीज मंत्र पर मन स्थिर होता चला जायेगा। इस तरह
स्थिरता का अभ्यास बढ़ता चला जायेगा। इस तरह स्थिरता का अभ्यास बढ़ता चला जायेगा। इस तरह स्थिरता का अभ्यास बढ़ता जायेगा एवं स्वयं
‘क्लीं’
मय होने की अनुभूति होगी। इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए
कि यह अभ्यास कोई दो- चार दिन में नहीं हो जाता वरन् उसमें छः
से बारह महीने तक का समय लग जाता है।
यह अभ्यास करते समय वातावरण शांत रहना चाहिए और मनोवृत्ति को
भी स्थिर रखना आवश्यक है। अगर दिन के समय यह प्रयोग न हो सके
तो रात के समय भी किया जा सकता है। पर यदि मानसिक- शक्ति न हो
तो इस प्रयोग का करना ठीक नहीं क्योंकि उससे मस्तिष्क पर
हानिकारक प्रभाव पड़ना सम्भव रहता है। प्रातःकाल का समय इस प्रयोग
के लिए उत्तम है। रात के शान्त वातावरण में एक दीपक इस प्रकार
का रखना चाहिए जिससे आकृति पड़े, इस प्रकार भी अभ्यास किया जा
सकता है।
जब आँखें बन्द कर लेने पर ‘क्लीं’
अक्षर देर तक देखा जा सके तब समझना चाहिए कि ध्यान उचित रीति
से हो रहा है? जैसे- जैसे ध्यान का अभ्यास बढ़ता जायेगा वैसे-
वैसे साधक को परिवर्तन होता जान पड़ेगा तथा साधक के अन्दर आकर्षण
शक्ति बढ़ती जायेगी जो प्रत्येक क्षेत्र में काम देगी। ‘क्लीं’
की सिद्धि से साधक मनोकामनाएँ पूरी करने में समर्थ होता है।
किसी भी मनुष्य के फोटो के ऊपर अथवा मानसिक आकृति के ऊपर इस
बीजमंत्र का ध्यान करने से वह चाहे कितनी दूर क्यों न हो उसे
बुलाना जा सकता है।
इस
‘क्लीं’ बीज मंत्र का प्रयोग लक्ष्मी प्राप्ति के लिए भी हो सकता है लक्ष्मी के लिए
‘क्लीं’ की उपासना करनी हो तो आकृति के भीतर लाल की जगह पीला रंग भरना चाहिए और ध्यान के समय
‘ॐ क्लीं
नमः’
का जप करते रहना चाहिए। इस अभ्यास के पूरा होने पर लक्ष्मी की
प्राप्ति में वृद्धि होती है। जिस प्रकार लाल रंग की
‘क्लीं’
का ध्यान वशीकरण आकर्षण के लिए किया जाता है और पीले रंग
वाली आकृति धन प्राप्त कराती है उसी प्रकार मंत्र में काला रंग
भरकर ध्यान करने से उच्चाटन और
विद्वेषण का प्रयोग किया जाता है
जो व्यक्ति लम्बे समय से शारीरिक अथवा मानसिक व्याधि से पीड़ित
हो अथवा तरह- तरह की बीमारियों के कारण परेशान हो रहे हों
उनको बीजाकृति
में हरा रंग भर कर ध्यान करना चाहिए। यह हरा रंग खुलता हुआ
अर्थात् तोते का सा होना चाहिए। यह हरा रंग खुलता हुआ अर्थात्
तोते का सा होना चाहिए। इस आकृति को प्रातः अथवा रात्रि में
सामने रखकर
‘ॐ क्लीं
नमः’
का जप करते हुए ध्यान करने से आरोग्यता और शारीरिक सुख
प्राप्त होता है। अशक्त व्यक्ति तो लेटे रहकर भी इसका ध्यान कर
सकते हैं। जिसकी
आंखें कमजोर हों वे भी इस प्रयोग से अपनी
आंखों में सुधार सकते हैं।
इस प्रकार क्लीं की बीजाकृति
में भिन्न- भिन्न रंग भरने से भिन्न- भिन्न फल प्राप्त किये जा
सकते हैं। इसमें आवश्यकता यही है कि धैर्य और लगन एवं श्रद्धा
के साथ अभ्यास किया जाये। बीज मंत्र लगाकर की गई साधना के कई
फल ऐसे विलक्षण होते हैं जिसकी कल्पना कर सकना भी सामान्य
बुद्धि के व्यक्ति के लिए संभव नहीं है पर उनका कई लोग अपनी
इन्द्रिय लिप्साओं और घोर सांसारिक कामनाओं में दुरूपयोग कर सकते हैं। इसलिए ऐसी साधनाओं के गूढ़ प्रयोग सिद्ध पुरूष केवल गुरू परम्परा से उन्हीं को
बताते हैं जिन पर उनका यह विश्वास होता है कि यह व्यक्ति
साधना जैसे देव- तत्व का लौकिक वासनाओं में दुरुपयोग नहीं करेगा।
उससे साधक का स्वयं भी अनिष्ट होता है। रावण कुंभकर्ण
आदि की तन्त्र साधनायें ऐसी ही थीं जिससे वे तापस में डूबे
और अन्ततः अपना सर्वनाश ही कर डाला इसलिए इन साधनाओं का प्रयोग
आत्मविकास के लिए ही किया जाना चाहिए उसके लिये पर्याप्त साधना
विधि यहां बता दी गई है।