गायत्री उपासना अनिवार्य है - आवश्यक है

उपासना , विधान और तत्त्वदर्शन

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सामान्य विधि- विधान में गायत्री मंत्र का ऊँ कार, व्याहृति समेत त्रिपदा गायत्री का जप ही शान्त- एकाग्रमन  से करने पर अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति हो जाती है। जप के साथ ध्यान भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। गायत्री का देवता सविता है। सविता प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य को कहते हैं। यही ध्यान गायत्री जप के साथ किया जाता है, साथ ही यह अभिव्यक्ति भी उजागर करनी होती है कि सविता की स्वर्णिम किरणें अपने शरीर में प्रवेश करके ओजस मनःक्षेत्र में प्रवेश करके तेजस और अन्तःकरण तक पहुँचकर वर्चस् की गहन स्थापना कर रही है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को समर्थता, पवित्रता और प्रखरता से सराबोर कर रही हैं। यह मान्यता मात्र भावना बनकर ही नहीं रह जाती, वरन् अपनी फलित होने वाली प्रक्रिया का भी परिचय देती है। गायत्री की सही साधना करने वालों में ये तीनों विशेषताएँ प्रस्फुटित होती देखी जाती हैं।

शुद्ध स्थान पर, शुद्ध उपकरणों का प्रयोग करते हुए, शुद्ध शरीर से गायत्री उपासना के लिए बैठा जाता है। यह इसलिए कि अध्यात्म प्रयोजनों में सर्वतोमुखी शुद्धता का संचय आवश्यक है। उपासना के समय एक छोटा जल- पात्र कलश के रूप में और यज्ञ की धूपबत्ती या दीपक के रूप में पूजा चौकी पर स्थापित करने का अर्थ है अग्नि को अपना इष्ट मानना ।। तेजस्विता, साहसिकता और आत्मीयता जैसे गुणों से अपने मानस को ओतप्रोत करना। जल का अर्थ है शीतलता, शान्ति, नीचे की ओर ढलना अर्थात् नम्रता का वरण करना।

पूजा चौकी पर साकार उपासना वाले गायत्री माता की प्रतिमा रखते हैं। निराकार में वही काम सूर्य का चित्र अथवा दीपक, अग्नि रखने से चल जाता है। पूजा के समय धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प आदि का प्रयोग करना होता है। यह सब भी किन्हीं आदर्शों के प्रतीक हैं। अक्षत अर्थात् अपनी कमाई का एक अंश भगवान के लिए अर्पित करते रहना। दीपक अर्थात् स्वयं जल कर दूसरों के लिए प्रकाश उत्पन्न करना। पुष्प शोभायमान भी होते हैं और सुगंधित भी। मनुष्य को भी अपना जीवनयापन इसी प्रकार करना चाहिए। पंचोपचार की पूजा- सामग्री इसलिए समर्पित नहीं की जाती कि भगवान को उनकी आवश्यकता है, वरन् उसका प्रयोजन यह है कि दिव्य सत्ता यह अनुभव करे कि साधक यदि सच्च हो, तो उसकी भक्ति- भावना में इन सद्गुणों का जुड़ा रहना अनिवार्य स्तर का होना चाहिए।

उपचार सामग्री यदि न हो, तो सब कुछ ध्यान रूप में मानसिक स्तर पर किया जा सकता है। जिस प्रकार बड़े आकार वाले यज्ञ प्रक्रिया को छोटे दीपयज्ञों के रूप में सिकोड़ लिया गया है उसी प्रकार कर्मकाण्ड सहित पूजा- उपचार को मात्र भावना स्तर पर मानसिक कल्पनाओं पर किया जा सकता है। रास्ते चलते, काम- धाम करते, लेटे- लेटे भी गायत्री उपासना कर लेने की परम्परा है, पर यह सब होना चाहिए भाव संवेदनापूर्वक मात्र कल्पना कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। 

गायत्री अनुष्ठानों की भी एक परम्परा है। नौ दिन में चौबीस हजार जप का विधान है, जिसे प्रायः अश्विन या चैत्र की नवरात्रियों में किया जाता है, पर उसे अपनी सुविधानुसार कभी भी किया जा सकता है इसमें प्रतिदिन २७ मालाएँ पूरी करनी पड़ती हैं और अंत में यज्ञ- अग्निहोत्र सम्पन्न करने का विधान है। 

सवालक्ष अनुष्ठान चालीस दिन में पूरा होता है, उसमें ३१ मालाएँ प्रतिदिन करनी पड़ती हैं। उसके लिए महीने की पूर्णिमा के आरंभ या अन्त को चुना जा सकता है। सबसे बड़ा अनुष्ठान २४ लक्ष जप का होता है, जिसे प्रायः एक वर्ष में पूरा किया जाता है।

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