गायत्री उपासना अनिवार्य है - आवश्यक है

उपासना की उपेक्षा न करें : उसे समग्र रूप में अपनायें

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आत्मोत्कर्ष के लिए उस महाशक्ति के साथ घनिष्ठता बनाने की आवश्यकता है, जिसमें अनन्त शक्तियों और विभूतियों के भण्डार भरे पड़े हैं। बिजलीघर के साथ घर के बल्ब- पंखों का सम्बन्ध जोड़ने वाले तारों का फिटिंग सही होते ही वे ठीक तरह अपना काम कर पाते हैं। परमात्मा के साथ आत्मा का सम्बन्ध जितना निकटवर्ती एवं सुचारु होगा उसी अनुपात से पारस्परिक आदान- प्रदान का सिलसिला चलेगा और उससे छोटे पक्ष को विशेष लाभ होगा। दो तालाबों के बीच नाली खोदकर उनका सम्बन्ध बना दिया जाए तो निचले तालाब में ऊँचे तालाब का पानी दौड़ने लगेगा और देखते- देखते दोनों की ऊपरी सतह समान हो जायेगी। पेड़ से लिपट कर बेल कितनी ऊँची चढ़ जाती है, इसे सभी जानते हैं। यदि उसे वैसा सुयोग न मिला होता अथवा वैसा साहस न किया होता तो वह अपनी पतली कमर के कारण मात्र जमीन पर फैल ही जाती पर ऊपर चढ़ नहीं सकती थी। पोले बांस का निरर्थक समझा जाने वाला टुकड़ा जब वादक के हाथों के साथ तादात्म्य स्थापित करता है तो बांसुरी- वादन का ऐसा आनन्द आता है, जिसे सुनकर सांप लहराने और हिरन मंत्रमुग्ध होने लगते हैं। पतले कागज के टुकड़े से बनी पतंग आकाश को तभी चूमती है जब उसकी डोर का सिरा किसी उड़ाने वाले के हाथ में रहता है। ये सम्बन्ध शिथिल पड़ने या टूटने पर सारा खेल खत्म हो जाता है और पतंग जमीन पर आ गिरती है। यह उदाहरण यह बताते हैं कि यदि आत्मा को परमात्मा के साथ सघनतापूर्वक जुड़ जाने का अवसर मिल सके तो उसकी स्थिति सामान्य नहीं रहती है। तब उसे नर पामरों जैसा जीवन व्यतीत नहीं करना पड़ता। वरन् ऐसे मानव देखते- देखते कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। इतिहास- पुराण ऐसे देव मानवों की चर्चा से भरे पड़े हैं। जिन्होंने अपने अन्तराल को निकृष्टता से विरत करके ईश्वरीय महानता के साथ जोड़ा और देखते- देखते कुछ से कुछ बन गये।

उपासना को आध्यात्मिक प्रगति का आवश्यक एवं अनिवार्य अंग माना गया है। उसके बिना यह सम्बन्ध जुड़ता ही नहीं, जिसके कारण छोटे- छोटे उपकरण बिजलीघरों के साथ तार जोड़ लेने पर अपनी महत्त्वपूर्ण हलचलें दिखा सकने में समर्थ होते हैं। घर में हीटर, कूलर, रेफ्रिजरेटर, रेडियो, टेलीविजन आदि कितने ही सुविधाजनक उपकरण क्यों न लगे हों पर उनका महत्त्व तभी है जब उनके तान बिजलीघर के साथ जुड़कर शक्ति भण्डार से अपने लिए उपयुक्त क्षमता प्राप्त करते रहने का सुयोग बिठा लेते हों। उपासना का तत्व ज्ञान यही है। उसका शब्दार्थ है- उप + आसन, अर्थात् अति निकट बैठना। परमात्मा और आत्मा को निकटतम लाने के लिए ही उपासना की जाती है। विशिष्ट शक्ति के आदान- प्रदान का सिलसिला इसी प्रकार चलता है।

उपासना के दो पक्ष हैं एक कर्मकाण्ड, दूसरा तादात्म्य। दोनों शरीर एवं प्राण की तरह अन्योऽन्याश्रित एवं परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे को चमत्कार प्रदर्शित करने का अवसर ही नहीं मिलता ।। बिजली के दोनों तार जब मिलते हैं तभी करेण्ट चलता है। अलग- अलग रहें तो कुछ बात बनेगी ही नहीं ।। दोनों पहिये धुरी से जुड़े हों और समान रूप से गतिशील हों, तभी गाड़ी आगे लुढ़कती है। लम्बी यात्राएँ दोनों पैरों के सहारे ही संभव होती हैं, भले ही एक के कट जाने पर उसकी पूर्ति लकड़ी के पैर से ही क्यों न की जा रही हो। दोनों हाथ से ताली बजाने की उक्ति से सभी परिचित हैं। सन्तानोत्पादन में नर और नारी दोनों का संयोग चाहिए ।।

ठीक इसी प्रकार उपासना का शास्त्र प्रतिपादित और आप्तजनों द्वारा अनुमोदित माहात्म्य तभी चरितार्थ होता है, जब उसका कर्मकाण्ड वाला प्रत्यक्ष और तादात्म्य वाला परोक्ष पक्ष समान रूप से संयुक्त सक्रिय होते हैं। जप, ध्यान, प्राणायाम के उपासनात्मक कर्मकाण्डों का स्वरूप सभी को विदित है। जिन्हें उस जानकारी में कुछ कमी हो वे अपनी स्थिति के अनुरूप किसी अनुभवी मार्गदर्शक से परामर्श अथवा प्रामाणिक ग्रन्थ का अवलोकन करके उसका समाधान निर्धारण कर सकते हैं। बड़ी और महत्त्वपूर्ण बात ‘तादात्म्य’ है। उसे जीवन सत्ता में प्राण का स्थान मिला है। कर्मकाण्ड तो काय कलेवर की तरह उपकरण ही कहे जाते हैं। प्रहार तो तलवार ही करती है। वस्तुतः युद्ध मोर्चे को जिताने में वह लौह खण्ड उतना चमत्कार नहीं दिखाता जितना कि प्रत्यक्ष न दीख पड़ने वाला पराक्रम, साहस। ठीक इसी प्रकार उपासना के कर्मकाण्ड पक्ष का तलवार जैसा चमत्कारी प्रतिफल देखना हो तो उसके पीछे ‘‘तादात्म्य’’ का भाव समर्पण नियोजित किये बिना काम चलेगा ही नहीं।

उपासनात्मक कर्मकाण्डों में विधि- विधान का स्वरूप प्रज्ञा परिजनों में से सभी जानते हैं। स्थान, पूजा- उपकरण, शरीर- वस्त्र आदि की शुद्धि के अतिरिक्त मन, बुद्धि और अन्तःकरण की शुद्धि तथा इन्द्रियों- अवयवों को पवित्र रहने की प्रेरणा देने के लिए आचमन- न्यास आदि किये जाते हैं। पवित्रता के प्रतीक जन और प्रखरता के प्रतिनिधि दीपक या किसी अन्य विकल्प का अग्नि स्थापन किया जाता है। समझा जाना चाहिए कि आत्मिक प्रगति के लिए सत्य, पराक्रम एवं संघर्ष के रूप में अपनाई जाने वाली तपश्चर्या का भी महत्त्व है। पवित्रता और प्रखरता का समन्वय ही पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचता है। मात्र संत सज्जन बने रहने और पौरुष को त्याग कर बैठने पर तो कायरों और दीन- दुर्बलों जैसे दयनीय स्थिति बन जाती है। मध्यकाल की भक्तचर्या ऐसे ही अधूरेपन से ग्रसित रहने के कारण उपहासास्पद बनती चली गई है। कर्मकाण्डों के विधि- विधान तादात्म्य की चेतना उत्पन्न करने एवं प्रेरणा देने के लिए ही विनिर्मित हुए हैं।

तादात्म्य अर्थात् भक्त और इष्ट की अंतःस्थिति का समन्वय- एकीकरण। दूसरे शब्दों में ईश्वरीय अनुशासन के अनुरूप जीवनचर्या का निर्धारण। परब्रह्म तो औचित्य है पर उपासना जिस परमात्मा की की जाती है वह आत्मा का ही परिष्कृत रूम है। वेदान्त दर्शन में उसे सोऽहम्- शिवोऽहम् ब्रह्म- आदि शब्दों में अन्तःचेतना के उच्चस्तरीय विशिष्टताओं से भरे- पूरे उत्कृष्टताओं के समुच्चय को ही परमात्मा कहा गया है, उसके साथ मिलन का, तादात्म्य का स्वरूप तभी बनता है जब दोनों के मध्य एकता स्थापित हो। इसके लिए साधक अपने आपको कठपुतली की स्थिति में रखता है और अपने अवयवों में बँधे धागों को बाजीगर के हाथों सौंप देता है। दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देने वाला खेल इस स्थापना के बिना बनता ही नहीं। आत्मा को परमात्मा की उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ अपनाने और तदनुरूप जीवनचर्या बनाने पर ही उपासना का समग्र लाभ मिलता है।

लकड़ी और अग्नि की समीपता का प्रतिफल प्रत्यक्ष है। गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचते- पहुँचते अपनी नमी गँवाती और उस ऊर्जा से अनुप्राणित होती चली जाती है। जब वह अति निकट पहुँचती है तो फिर आग और लकड़ी एक स्वरूप, एक जैसे हो जाते हैं। साधक को भी ऐसा ही भाव- समर्पण करके ईश्वरीय अनुशासन के साथ अपने आपको एक रूप बनाना पड़ता है। चंदन के समीप वाली झाड़ियों का सुगन्धित हो जाना, स्वांति बूँद के संयोग से सीप में मोती पैदा होना, पारस छूकर लोहे का स्वर्ण बनना, नाले का गंगा में मिलकर गंगा जल बनना, पानी का दूध में मिलकर उसी भाव बिकना, बूंद का समुद्र में मिलकर सुविस्तृत हो जाना जैसे अगणित उदाहरण हैं, जिनके आधार पर यह जाना जा सकता है कि भक्त और भगवान की एकता उपासना का स्तर क्या होना चाहिए ।। सृष्टि के आदि से अद्यावधि सच्चे भक्तों में से प्रत्येक को ईश्वर के शरणागत होता पड़ा है आत्म- समर्पण का साहस जुटाना पड़ता है। इसका व्यावहारिक स्वरूप है ईश्वरीय अनुशासन को उत्कृष्ट चिन्तन एवं कर्तृत्व को अपनी विचारणा एवं कार्य- पद्धति से अनुप्राणित करना। जो इस तत्त्व दर्शन को जानते, मानते और व्यवहार में उतारते रहे हैं उन ईश्वर भक्तों को सुनिश्चित रूप से वे लाभ मिले हैं जिन्हें उपासना की फलश्रुतियों के रूप में कहा जाता रहा है। पत्नी- पति को आत्म- समर्पण करती है- अर्थात् उसकी मर्जी पर चलने के लिए अपनी मनोभूमि एवं क्रिया- पद्धति को मोड़ती चली जाती है। इस आत्म- समर्पण के बदले ही वह पति के वंश, गोत्र, यश, वैभव की उत्तराधिकारिणी ही नहीं अर्धांगिनी भी बन जाती है। समर्पण विहीन कर्मकाण्ड तो एक प्रकार का वेश्या व्यवसाय, चिह्न पूजा जैसा निर्जीव ढकोसला ही माना जाता जायेगा। भक्त भगवान के अनुरूप बनता चला जाता है और अन्ततः नर- नारायण, पुरुष- पुरुषोत्तम, भक्त- भगवान की एकरूपता का स्वयं प्रमाण बनता है। देवात्माओं में परमात्मा स्तर की क्षमताएँ ही उत्पन्न हो जाती हैं ।। इन्हीं को ऋद्धि- सिद्धियाँ कहते हैं।

प्रज्ञा परिजनों को मूर्धन्य भूमिका निभाने के लिए आत्म- शक्ति की प्राण ऊर्जा का बड़ी मात्रा में संचय करना होगा। यह परमात्मा से ही उसे मिलेगी। अस्तु ! उसे उपासना के लिए सच्चे मन से साहस जुटाना और प्रयास करना चाहिए। जीवन चर्या में उसे निष्ठापूर्वक सुनिश्चित एवं मूर्धन्य स्थान देना चाहिए। कर्मकाण्ड के लिए जितना भी समय निकाला जाये उसे नियमित और निश्चित होना चाहिए। व्यायाम, औषधि सेवन, अध्ययन आदि के लिए समय भी निर्धारित किये जाते हैं उसकी मात्रा का सीमा बन्धन भी रखा जाता है। यदि इन प्रसंगों में मन की मौज बरती जाये, समय और मात्रा की उपेक्षा करके जैसा मन करने की स्वेच्छाचारिता अपनाई जाये तो पहलवान- विद्वान बनने और निरोग होने की इच्छा पूरी हो ही नहीं सकेगी। हर महत्त्वपूर्ण कार्य में नियमितता को प्रमुखता दी जाती है। जो किया जाता है। उपासना के संदर्भ में भी वही किया जाना चाहिए। अस्तंता बनी रहेगी तो अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति अति कठिन हो जायेगी ।।

युग सन्धि की अवधि में सभी प्रज्ञा परिजनों को न्यूनतम तीन माला गायत्री- जप प्रातः काल नित्यकर्म से निवृत्त होकर करने के लिए कहा गया है। जप के साथ प्रभात कालीन सूर्य का दर्शन और उस सविता देवता की स्वर्णिम किरणों का स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में प्रवेश कराने का ध्यान भी करते चलना चाहिए। इन पंक्तियों में उसे संक्षिप्त ही लिखा जा रहा है, क्योंकि अधिकांश परिजन उसे पहले से ही जानते हैं। जो नहीं जानते उनके लिए थोड़ी सी पंक्तियों के निर्देशन से काम नहीं चलेगा। उन्हें इसे समीपवर्ती किसी निष्णात से ‘ गायत्री महाविज्ञान ’ से जानना होगा या शान्तिकुञ्ज पत्र- व्यवहार करके अपनी वर्तमान मनःस्थिति के अनुरूप साधनाक्रम का निर्धारण करना होगा ।। स्पष्ट है कि साधक के स्तर और प्रवाह को ध्यान में रखते हुए साधनाक्रम भी चिकित्सा उपचार की तरह आवश्यकतानुसार समय- समय पर बदलने होते हैं। शान्तिकुञ्ज को गायत्री तीर्थ के रूप में इन्हीं दिनों इसी प्रयोजन के लिए परिणित किया गया है, ताकि हर साधक की स्थिति एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उसके लिए विशेष निर्धारण किये जा सकें और जो बताया गया है उसका प्रारम्भिक अभ्यास प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में ही सही कर लेना सम्भव हो सके।

सामान्यतया हर प्रज्ञा परिजन को युग सन्धि की वेला में अपनी उपासना को नैष्ठिक, नियमित एवं समग्र बना लेना चाहिए। तीन माला का गायत्री- जप, गुरुवार को जिस स्तर का बन सके उपवास, ब्रह्मचर्य, महीने में एक बार अग्नि होम का न्यूनतम साधना क्रम तो चलाना ही चाहिए, इसके अतिरिक्त अपने भावना क्षेत्र को उत्कृष्टताओं के समुच्चय के साथ तादात्म्य स्थापित करने का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए। भावना, विचारणा और क्रिया- प्रक्रिया में जितनी संभव हो सके, उसके लिए उपाय खोजने और प्रयत्न करने में सतत संलग्न रहना चाहिए। भजन कृत्य और तादात्म्य की उभयपक्षीय प्रक्रिया उपासना को समग्र बनाती है और अपना प्रत्यक्ष प्रतिफल हाथों हाथ प्रस्तुत करती है।

युग सन्धि के बीस वर्षों में प्रत्येक प्रज्ञा परिजन को हर साल अपना उपासना क्रम निर्धारित करना चाहिए और आवश्यकतानुसार अगले वर्ष के लिए कोई परिवर्तन करना हो तो करते रहना चाहिए। इस निर्धारण में बसन्त पर्व को एक नियत समय माना जा सकता है। इन दिनों जिनकी जो साधना चल रही हो उसका विवरण अगले दिनों शान्तिकुञ्ज भेजते हुए आगामी बसन्त पर्व से कुछ हेर- फेर आवश्यक हो तो उसका निर्धारण समय से पूर्व ही कर लेना चाहिए। इस संदर्भ में शान्तिकुञ्ज से परामर्श करके निर्धारण करना एकाकी निर्णय की तुलना में कहीं अधिक श्रेयस्कर रहेगा।



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