गायत्री की परम कल्याणकारी सर्वांगपूर्ण सुगम उपासना विधि

विश्व- कल्याण जप के साथ आत्मार्पण का ध्यान

<<   |   <   | |   >   |   >>

दूसरी माला विश्व- कल्याण के लिए, युग- निर्माण के महान् आन्दोलन की सफलता के लिए करनी चाहिए। युग- निर्माण के लिए जहाँ रचनात्मक एवं संघर्षात्मक प्रत्यक्ष शतसूत्री कार्यक्रमों की व्यवस्था है, वही सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयोगों का भी समन्वय है। अन्तरिक्ष में आज दुष्प्रवृत्तियों का वातावरण बुरी तरह भर गया है। पिछले दिनों मानव- जाति द्वारा जो अनेक दुष्कर्म किये जा रहे हैं और कुविचार अपनाये जा रहे हैं, उनकी प्रतिक्रिया आकाश में भयावह वातावरण की काली घटाएँ बनकर घुमड़ रही हैं। यही घटाएँ बार- बार विभिन्न विभीषिकाओं के रूप में बरस पड़ती हैं और अकाल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, महामारी, दुर्घटनाएँ, युद्ध, अपराधों की वृद्धि, संघर्ष क्लेश, शोक- सन्ताप आदि के रूप में विपत्तियाँ प्रस्तुत करती हैं। उन्हें टालने के लिए भी उपासना का एक अंश लगना आवश्यक है।

आज जन- मानस निर्जीव, मूर्छित एवं अन्धकारग्रस्त पड़ा है। इसको सजग, समर्थ सत्पथगामी बनाने के लिए सूक्ष्म जगत् में काम करने वाली आध्यात्मिक हलचल ही अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करने में समर्थ हो सकती है ।। यही नव- निर्माण का वास्तविक आधार है। अतएव दिव्य प्रेरणा के आधार पर महत्तम गायत्री महापुरश्चरण आरम्भ किया गया है और उसमें भागीदार होने के लिए हर परिजन को प्रोत्साहित किया गया है। न्यूनतम उपासना क्रम में एक माला जप इसी प्रयोजन के लिए- विश्व के लिए रखा गया है।

प्रथम माला आत्म- निर्माण के लिए जपनी चाहिए और उसके बाद गायत्री चालीसा का एक पाठ करना चाहिए। दूसरी माला युग- निर्माण के लिए जपनी चाहिए और बाद में युग- निर्माण का सत्संकल्प पढ़ना चाहिए। प्रथम माला के साथ गायत्री माता की गोदी में खेलने का ध्यान पिछले लेख में बताया गया है। युग- निर्माण के लिए दी जाने वाली दूसरी माला के साथ दीपक पर पतंगों के द्वारा आत्म- बलिदान करने वाला ध्यान है। समाजकल्याण के लिए हम अपनी सत्ता एवं विभूतियों का समर्पण करें, यह भाव इस ध्यान का है। इस इस प्रकार करना चाहिए।

() ‘‘मैं पतंगे की तरह हूँ। इष्टदेव दीपक की तरह। अनन्य प्रेम के कारण द्वैत को समाप्त कर अद्वैत की उपलब्धि के लिए- प्रियतम के साथ एकात्म होता हूँ। जिस प्रकार पतंगा दीपक पर- आत्म करता है, अपनी सत्ता को मिटाकर प्रकाश पुंज में लीन होता है, उसी प्रकार मैं अपना अस्तित्व, अहंकार को मिटाकर ब्रह्म में गायत्री तप- तत्व में विलीन होता हूँ।’’

() ‘‘दीपक की ज्योति एक यज्ञ है और मैं उसका हविष्य। अपना अस्तित्व इस यज्ञाग्नि में होम कर स्वयं परम पवित्र तेज- पुंज हो रहा हूँ।’’

() ‘‘अपनी अहंता, ममता और द्विधा मिटा देने के बाद मैं आत्मा की परिधि से ऊँचा उठकर परमात्म सत्ता के रूप में विकसित होता हूँ और उसी स्तर की व्यापकता, उदारता, करूणा एवं महानता अपने अन्तरात्मा में धारण करता हूँ।’’

() ‘‘मैं अपनी समस्त श्रद्धा प्रभु को समर्पण करता हूँ। बदले में वे उतना ज्ञान, विवेक, प्रकाश एवं आनन्द मेरे कण- कण में भर देते हैं। मुझे अपने समान बना लेते हैं। वैसी ही रीति- नीति अपनाने की प्रेरणा एवं तत्परता प्रदान करते हैं।’’

यह ध्यान दीपक पर पतंगे के जलने की तरह आत्मा का परमात्मा में प्रेम विभोर होकर आत्म- समर्पण करने का है। जीव और ब्रह्म के बीच माया ही प्रथम बन्धन है। वही दोनों को एक दूसरे से पृथक् किये हुए हैं। अहंता, स्वार्थपरायणता, ममता, संकीर्णता का कलेवर ही जीव की अपनी पृथकता एवं सीमा बाँधता है। उसी की उपेक्षा करता है। इस अहंता कलेवर को यदि नष्ट कर दिया जाय तो जीव और ब्रह्म की एकता असन्दिग्ध है। ईश्वरीय प्रेम में प्रधान बाधक यह ममता अहंता ही है।

ब्रह्म को दीप ज्योति का और अहन्ता कलेवर युक्त जीव को पतंगा का प्रतीक माना गया है। पतंगा अपने कलेवर को प्रिय दीपक में एकीभूत होने के लिए परित्याग करता है, आत्म- समर्पण करता है, कलेवर का उत्सर्ग करता है, अपनी सम्पदा विभूति एवं प्रतिभा को प्रभु की प्रसन्नता के लिए सर्वश्रेष्ठ यज्ञकर्ता क तरह होम देता है। विश्व- मानव की पूजा- प्रसन्नता के लिए साधक का परिपूर्ण समर्पण यही आत्म- यज्ञ है। इसमें अपने को होमने वाला, नरमेध करने वाला ईश्वरीय सान्निध्य की सर्वोच्च गति को पाता है।

जिस माया- ममता के कारण ईश्वर और जीव में विरोध था, उसका समर्पण कर देने पर ईश्वरीय अनन्त विभूतियों का अधिकारी साधक बन जाता है और उसे प्रभु का असीम प्यार प्राप्त होता है। बिछुड़ने की वेदना दूर होती है और दोनों ओत- प्रोत होकर अनिर्वचनीय आनन्द का रसास्वादन करते हैं।

इस ध्यान में याचना की नहीं आत्म- दान की भावना है। उच्चस्तरीय साधना का यही आधार भी है। निम्न स्तर की प्राथमिक उपासना में ईश्वर से सांसारिक लाभ अथवा आत्मिक अनुदान माँगे जाते हैं, पर जैसे- जैसे स्तर ऊँचा होता जाता है, साधक माँगने की तुच्छता छोड़ समर्पण की महानता अपनाने के लिए व्याकुल होता है। ध्यान अथवा भावना तक ही उसकी यह साधना सीमित नहीं रह सकती वरन् वस्तुतः वह विश्व के लिए, लोक- मंगल के लिए, बड़े से बड़ा अनुदान देकर अपनी गणना बड़े से बड़े भक्तों में कराने का आत्म- सन्तोष उपलब्ध करता है। उसका व्यवहार अपने जीवन, परिवार एवं समाज के प्रति इतना सज्जनपूर्ण हो जाता है कि प्रतिक्रिया उसे दैवी वरदान की तरह चारों ओर से पुष्प वर्षा करती हुई परिलक्षित होती है। स्वर्ग सुख यही तो है। अहन्ता और ममता, वासना और तृष्णा के- बन्धनों से मुक्त जीव की मरने पर मुक्ति मिलने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती वह जीवित रहते हुए भी जीवन- मुक्त रहता है।

विश्व- कल्याण के लिए दूसरी माला उपयुक्त ध्यान के साथ पूरी करते हुए एक पाठ युग- निर्माण सत्संकल्प का करना चाहिए। चालीसा और सत्संकल्प अखण्ड- ज्योति संस्थान मथुरा से मँगाये जा सकते हैं।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118