उपासना का आधार और प्रभाव कहा जा चुका है कि उपासना का अर्थ है- समीपता । ईश्वर और जीव में यों समीपता ही है । जब भगवान कण- कण में संव्याप्त हैं, तब मानवी काया एवं चेतना में भी वे समाये हुए क्यों नहीं होंगे। जो अपने में ओत- प्रोत ही हैं, वह दूर कैसे ? और जो दूर नहीं हैं उसकी समीपता का क्या अर्थ ? इस असमंजस की विवेचना इस प्रकार होती है कि यह समीपता उथली है, गहरी नहीं ।माना हक शरीर में हलचलों के रूप में और मन में चिन्तन के रूप में विश्व व्यापी चेतना ही काम कर रही है तो भी स्पष्ट है कि जीव की आस्थायें एवं आकांक्षायें अदृश्य सत्ता के अनुरूप नहीं हैं, मनुष्यता की सार्थकता तभी है, जब उसका स्वरूप एवं स्तर भी उसी के अनुरूप ऊँचा उठ सके । निम्न योनियों के जीवधारी पेट और प्रजनन के लिये जीते हैं । स्वार्थ- सिद्धि ही उनकी नीति होती है । शरीरगत लाभ ही उनके प्रेरणा- स्रोत होते हैं। दूसरों के साथ वे आत्मभाव बहुत थोड़ी मात्रा में मिला पाते हैं ओर परमार्थ परायणता के अंश नगण्य जितने देखे जाते हैं । यदि यही अंतःस्थिति मनुष्य की बनी रहे तो