व्याख्या- आज ऐसे मनुष्य की खोज है जिसको स्वयं भगवान भी ढूढ़ता फिर रहा है। भगवान तो हमारे अंतःकरण में बैठा है। किंतु हम उन्हें मंदिर, मस्जि़दों में ढूँढ़ते रहते हैं।
स्थाई- कहाँ छुपा बैठा है अब तक वह सच्चा इन्सान।
खोजते जिसे स्वयं भगवान॥
जो दूसरों की पीड़ा से तड़प उठे और जनसेवा में अपने आपको गला
दे और दीप की तरह तिल- तिल जलकर लोगों को प्रकाश दे वही
मानवता का सम्मान कर सकेगा।
अ.1- जिसने जानी पीर पराई, परहित में निज देह तपाई।
जिसने लगन दीप की पायी, तिल- तिल जलकर ज्योति जलाई।
उसकी आभा से ही होगा, देवों का सम्मान॥
रूखा- सूखा खाकर भी जो अपने ईमान पर कायम हो, उसी का भोग
वास्तव में भगवान स्वीकार करते हैं क्योंकि स्वार्थ रहित सेवा ही
अमृत के समान प्रिय है उसे ही भगवान खोज रहा है।
अ.2- जिसने रूखा- सूखा खाया, पर न कहीं ईमान गँवाया।
उसने ही वह भोग लगाया, जिसे राम ने रुचि से खाया।
स्वार्थ रहित सेवा ही उसकी, मेवा सुधा समान॥
जिसने संसार के बगीचे को सींचने के लिए अपना पूरा जीवन गला
दिया और क्षमा, शांति से जिसका जीवन महक रहा है। ऐसे ही चंदन से
प्रभु का मस्तक सुशोभित होगा। ऐसे ही इन्सान की इन दिनों खोज
है विश्व शांति के लिए।
अ.3- जिसने गला दिया अपना तन, सींचा इस धरती का उपवन।
क्षमा, शांतिमय जिसका जीवन, वही महकता बनकर चंदन।
ईश्वर के मस्तक पर होगा, उसका ही गुणगान॥