व्याख्या- यह मानव जीवन परमात्मा द्वारा दिया गया श्रेष्ठतम उपहार है। अतः अपने विकारों को हटाकर इसे सँवार लो।
स्थाई- मानव जीवन इस जगती का, सर्वोत्तम उपहार।
सारे मल विक्षेप हटाकर, लो तुम इसे सँवार॥
चौरासी लाख योनियों के बाद यह राजमार्ग मिला है लेकिन मनुष्य
अपने जीवन का लक्ष्य भूलकर सपनों में खोया हुआ है और संसार के
आकर्षणों में भ्रमित हो लक्ष्य को भूल बैठा है, बस प्रलोभन ही
उसे भटका रहे हैं।
अ.1- पथ चौरासी लाख बदलकर, राजपंथ यह पाया।
पर मानव मन लक्ष्य भूलकर, सपनों में भरमाया।
भूल गया आकर्षक मग में, मुझे कहाँ जाना है।
कहाँ हमारी मंजिल है, उसको कैसे पाना है॥
कर बैठा इन्सान राह के, प्रलोभनों से प्यार।
सारे मल विक्षेप हटाकर, लो तुम इसे सँवार॥
अरे! यह मानव देह शक्तियों का खजाना है। अपने चेतना केन्द्र की शक्तियाँ तो जगाओ। पंचकोषों का जागरण कर विश्व भर की सम्पदा पा लो। अपने आत्म चेतना को जगाकर उसे नवीन रूप से संस्कारित करो।
अ.2- मनुज देह यह शक्ति स्रोत है, जानो और पहचानों।
और चेतना शक्ति केन्द्र, विकसित करने की ठानों।
पाँच आवरण ओढ़ सखे, जो सोया उसे जगा लो।
अखिल विश्व की सब विभूतियाँ, घर बैठे ही पालो॥
आत्म देवता का कर लो, साथी अभिनव संस्कार।
सारे मल विक्षेप हटाकर, लो तुम इसे सँवार॥
मनुष्य होकर भी अपने मूल्य को नहीं पहचान सका, वह अंत में
संसार से हाथ मलता हुआ ही गया। हमारा लक्ष्य तो पथ के साथ ही
समाप्त होगा वहीं तो प्रभु का समीप्य है। किन्तु बिना आत्मज्ञान के यह सब कुछ संभव नहीं होगा। इसलिए सारे विकारों से मुक्त हो आत्मज्ञान प्राप्त करो।
अ.3- बन मनुष्य जिसने न मूल्य, इस जीवन का पहिचाना।
उसे अंत में मलकर हाथ पड़ेगा ही पछताना॥
अंतिम लक्ष्य समाप्त वहीं हो, जाती जहाँ डगर है।
यह अंतिम पड़ाव यात्रा का, आगे प्रभु का घर है॥
आत्मज्ञान के बिना भला, होगा कैस उद्धार।
सारे मल विक्षेप हटाकर, लो तुम इसे सँवार॥
हम पछताने वालों में शामिल न हो, यश- गौरव पाने वालो में
शामिल हो। इसलिए आज से ही व्रतशील जीवन जीने का संकल्प ले। गुरु
की ईश्वर की साक्षी में एक- एक करके अन्दर के दोषों को हटाने
तथा एक- एक करके गुणों को विकसित करने का शानदार क्रम प्रारम्भ
करें। (स्थाई पुनः दुहरायें)