व्याख्या- हे पुरुषों तनिक नारी के हृदय की ममता की गहराई तो
नापो। इसी ममता के कारण नारी ने अपने को गला कर भी स्नेह की
धारा प्रवाहित की है।
स्थाई- पुरुषों नारी की ममता की, नापो तो गहराई।
अपना हृदय गला कर भी, उसने रसधार बहाई॥
नारी जिसमें अपनत्व भाव स्थापित कर देती है जीवन पर्यन्त उस
संबंध को निभाती है और उस त्याग मूर्ति ने अपना सब कुछ उस पर
न्यौछावर कर दिया। वह न केवल तन अपितु मन भी समर्पित करती है
और इतना ही नहीं उसे जन्म- जन्म तक पाने की कामना करती है। नारी
तो मानो भव्य भावनाओं की ही प्रतिमा है।
अ.1- जिसे कह दिया अपना उसको, फिर आजन्म निभाया।
न्यौछावर कर दिया सभी कुछ, कुछ भी नहीं बचाया॥
तन की क्या है बात? समर्पित की मन की इच्छायें।
आत्मा तक कह उठी कि अगले, जन्म तुम्हें फिर पायें॥
दिव्य भावना की प्रतिमा ही, है नारी बन आई॥
जिसे उसने स्वीकार कर लिया उसके लिए अपने सुखों को भी पीछे छोड़ दिया। पहले तुम्हें खिलाना फिर बचे- खुचे
में ही अपना काम चला लिया और सबसे बाद सोकर पहले उठना, उसकी
दिनचर्या बन गई। इस प्रकार उस देवी ने इस धरती पर ही स्वर्ग
रच डाला।
अ.2- किया वही जिसके प्रति तुमको, आकर्षित भी जाना।
अपने सुख को उसने हरदम, तुमसे पीछे माना॥
तुम्हें खिलाकर ही उसने खुद- सदा बाद में खाया।
शयन बाद में उठना पहले यह नित नियम बनाया॥
धरती पर ही सृष्टि स्वर्ग की, उसने सहज रचाई॥
कोमल भावनओं
वाली नारी, अपने प्रिय को कभी उदास नहीं देख सकती और उसे
प्रसन्न करने के लिए प्राणपण से प्रयत्नशील रहती है। इस प्रकार
प्रेमी की प्रसन्नता और कल्याण ही उसका जीवन लक्ष्य रहा, ऐसी
त्याग की देवी और कहाँ मिलेगी।
अ.3- तुम्हें उदास तनिक भी देखा, अकुलाया उसका मन।
हँसी तुम्हारी अक्षय करने, लगा दिया उसका मन॥
तुम्हें प्रसन्न देखना ही तो, उसका जीवन व्रत है।
तव हित- साधन हो तो, उसका प्राण तलक प्रस्तुत है॥
यह साकार त्याग की मूरत, विधि ने एक बनाई॥
वह चुपचाप आँसू पीती रही और प्रिय को मुस्कानें
बाँटती रही तथा अपने घावों की पीड़ा को दबाकर भी तुम्हारी सुख-
सुविधा का ध्यान रखा। वह सहचरी जैसी तुम्हारी छाया बनी रही और
अपने को अनुचरी मानती रही। अकेले कोई भी सुख स्वीकार नहीं किया।
किन्तु जिस नारी के पुरूषों पर इतने उपकार हों, उसका मूल्य स्वार्थी पुरुष चुका ही कहाँ पाया? उल्टे शोषण उत्पीड़न का क्रम अपना कृतघ्नी बन गया। अब यह क्रम टूटना चाहता है।
अ.4- कभी तुम्हें मुस्कानें दी, उसने आँसू पी- पीकर।
कभी तुम्हें सुख- सुविधा दी अपने घावों को सीकर॥
कभी सहचरी कभी अनुचरी उसने खुद को माना।
बिना तुम्हारे उसने जग का कोई सुख कब जाना॥
नारी ने इस आत्म- समर्पण की कीमत कब पाई?