युग गायन पद्धति

संग्राम जिन्दगी है

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टिप्पणी- जीवन उपहार भी है और संग्राम भी। उपभोगों की ललक जितनी मीठी है उससे पराक्रम की आनंद उपलब्धि का रसास्वादन और भी अधिक उल्लास भरा है। जो संघर्ष से डरेंगे वे कुछ महत्वपूर्ण जैसा पा सकना तो दूर अपनी सुरक्षा तक नहीं कर सकेंगे। इन्द्रिय लिप्सा ही उनके शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य का सफाया कर देगी। दुर्व्यसन उसकी आर्थिक स्थिति को गई गुजरी बनाये रहेंगे। स्वार्थ और क्रोध किसी से मैत्री न जुड़ने देंगे। इन आन्तरिक षड़ रिपुओं को परास्त करना आवश्यक है। चारों ओर मंडराते मक्खी मच्छर, जुएँ, खटमल, साँप, बिच्छु, सड़न, दुर्गन्ध से न निपटा जाय तो समझना चाहिए बेमौत मरना पड़ेगा। ठीक इसी प्रकार चोर, उचक्कों आतताईयों से लेकर कुरीतियों, अवाँछनीयताओं से निपटने के लिए आजीविका उपार्जन की तरह ही जागरूकता और संघर्षशीलता अपनानी पड़ती है। इस तथ्य को प्रस्तुत गीत में उजागर किया है।
 
स्थाई- संग्राम जिन्दगी है, लड़ना उसे पड़ेगा।
जो लड़ नहीं सकेगा, आगे नहीं बढ़ेगा॥

इतिहास को गौरवान्वित करने वालों में से प्रायः प्रत्येक को भीतरी और बाहरी मोर्चों पर लड़ना पड़ा है। राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, रण चण्डी लक्ष्मीबाई, सरदार भगतसिंह आदि यदि संघर्ष के रण क्षेत्र में न उतरे होते तो वे सामान्य नागरिकों से अधिक कोई श्रेय न पा सके होते। विलासी, स्वार्थी और कायर सदा उपेक्षित तिरस्कृत ही बने रहते हैं। जीवन तो संघर्ष में ही ही है। माँ के पेट से निकलने की वेला से यह संघर्ष आरंभ होता है और दम तोड़ने तक चलता ही रहता है। जो इससे जितना बचेगा चैन के दिन बिताने की बात सोचेगा वह उतना ही घाटे में रहेगा।

अ.1- इतिहास कुछ नहीं है, संघर्ष की कहानी।
राणा शिवा भगतसिंह, झाँसी की वीर रानी।
कोई भी कायरों का, इतिहास क्यों पढ़ेगा॥

अंतः क्षेत्र की विभूतियों को नष्ट- भ्रष्ट करके रख देने वाले कषाय -कल्मषों से जुझे बिना किसी का व्यक्तित्व निखरता नहीं। पशु प्रवृत्तियों के अभ्यासी पतन पराभव के गर्त में गिरे रहते हैं और हेय जीवन जीते हैं। लोग भोगों को नहीं भोगते। भोग उन्हें भोग लेता है। लोग रोटी खाना नहीं जानते इसलिए रोटी उन्हें खा जाती है। सोना आग पर तपने और कसौटी पर कसने की कठिनाई से होकर न गुजरे तो खरे- खोटे का पता कैसे चले। इच्छा और अनिच्छा से संघर्ष अपनाना ही पड़ता है। इसलिए उसे उत्कृष्टता में प्रवेश करने के लिए भी क्यों न अपनाया जाय?

अ.2- आओ लड़ें स्वयं के कलुषों से कल्मषों से।
भोगों से वासना से, रोगों के राक्षसों से।
कुदंन वही बनेगा, जो आग पर चढ़ेगा॥

आज की स्थिति बड़ी दयनीय है। समाज में कुरीतियों और अनीतियों का प्रवाह प्रचलन बुरी तरह घुस पड़ा है। अनीति का सब ओर बोल- बाला है। निष्ठुरता और रूढ़िवादिता का प्रवेश हर क्षेत्र में बढ़ रहा है। समय की चुनौती है कि इन अवाँछनीयताओं से जुझा और उन्हें निरस्त किया जाय। अपना घर बुहारने और घुसे हुए साँप बिच्छुओं को भगाने की आवश्यकता को समझा जाय। उससे जी न चुराया जाय, मुँह न छिपाया जाय, संघर्ष का मानवोचित कर्त्तव्य शिरोधार्य किया जाय।

अ.3- घेरा समाज को है कुण्ठा कुरीतियों ने।
व्यसनों ने रूढ़ियों ने निर्मम अनीतियों ने।
इनकी चुनौतियों से, है कौन जो भिड़ेगा॥

व्यक्तिगत चिंतन, चरित्र और व्यवहार में घुसी हुई भ्रष्टता ही समाजगत दुष्टता बन कर सामाने आ रही है और अनेकानेक समस्याओं, विपत्ति, विभीषिकाओं के घटाटोप खड़े कर रही है। अनय, अनौचित्य की कौरवों जैसी विशाल सेना सामने खड़ी है। इनकी ठाट और साधन, वैभव देख कर किसी कर्म योगी अर्जुन को डरने, घबराने या पीछे हटने की आवश्यकता नहीं है। निजी- हानि लाभ के व्यामोह में यदि युग धर्म को न स्वीकारा गया तो अग्नि काण्ड से जलते पड़ोस की विपत्ति अपने घर को भी भी स्वाहा किये बिना न रहेगी। ऐसी विषम वेला में भी जो कर्त्तव्य से जी चुराते हैं, उन सामर्थ्यवानों को इतिहास क्षमा नहीं करता। संसार उन पर धिक्कार की धूलि ही वरसाता है।

अ.4- चिंतन चरित्र में अब विकृति बढ़ी हुई है।
चहुँ ओर कौरवों की सेना खड़ी हुई है।
क्या पार्थ इन क्षणों भी व्यामोह में पड़ेगा॥

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