युग गायन पद्धति

स्वयं भगवान हमारे गुरु

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टिप्पणी- युगऋषि को समझदारों ने वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ, आचार्य आदि सम्बोधनों से पुकारा क्योंकि उनमें यह सभी गुण थे। जिन्होने उनसे आध्यात्मिक दीक्षा ली वे उन्हे गुरुदेव भी कहते हैं। उनकी विशेषताएँ जितनी प्रखर थी, उनका व्यवहार उतना ही सहज था। इसलिए लोग उनके समर्थ स्वरूप को समझ नही पाते थे। वास्तव में ईश्वरीय चेतना ही उनकी काया के माध्यम से नव युगनिर्माण के लिए ताना- बाना बुन रही थी। यह सत्य हमें समझना चाहिए और उसका समुचित लाभ उठाना चाहिए।

स्थाई- स्वयं भगवान हमारे गुरु, परम सौभाग्य हमारा है।
स्वयं नारायण नर तन धरे, हमारे बीच पधारा है॥

गुरु के माध्यम से परमात्म चेतना ही मार्गदर्शन देती है, इस लिए गुरु परमसत्ता स्वरूप ही कहा जाता है। यह क्रम तो सदैव चलता ही रहता है। किन्तु कभी- कभी किसी बड़े अति महत्वपूर्ण उदे्श्य के लिए अवतारी चेतना का अवतरण होता है। इस सत्य को हम सभी समझते है। रामायण और गीता में भी यही बात कही गयी है।

अ.1- गुरु तो आते- जाते पर, नारायण कभी- कभी आते।
तभी अवतार हुआ करते, पाप धरती पर बढ़ जाते।
ब्रह्म ने स्वयं अवतरित हो, धरा का भार उतारा है॥

जब अवतारी चेतना कार्य शुरु करती है तो वह संस्कारवानो को अपने सहयोग के लिए पुकारती है। भगवान को मनुष्य तो पुकारते ही रहते है, किन्तु ऐसे विशेष समयों पर भगवान मनुष्यों को पुकारता है। जो समझदार उसकी पुकार को सुन लेते है, उनके निर्देशों के अनुसार चल पड़ने का साहस दिशा पाते है, तो धन्य हो जाते है। ऐसे समय मे भगवान की दी हुई प्रतिभा का कुछ अंश इमानदारी से उन्ही के लिए समॢपत करना पड़ता है।

अ.2- दे सके तो दें जीवनदान, अन्यथा समयदान को करें।
न बन पायें यदि भामाशाह, अपेक्षित अंशदान तो करें।
समर्पित करें उन्हें प्रतिभा, उन्हीं ने जिसे संवारा है॥

इतिहास साक्षी है कि ऊँचे आदर्शों के लिए जिन्होने समर्पण का साहस दिखलाया, वे घाटे मे नही रहे। आरुणी ने यह साहस दिखाया तो वे ऋषि स्तर के हो गये। नरेन्द्र उसी समर्पण के आधार पर स्वामी विवेकानंद बन गये। शिष्य का समर्पण जिस तरह का होता है, गुरुसत्ता उसके स्तर को उसी स्तर पर निखार देती है।

अ.3- आरुणी और विवेकानन्द, समर्पण की विधि बतलाते।
स्वयं गुरु अपने जीवन से, शिष्य की गरिमा समझाते।
शिष्य ने किया समर्पण तो, गुरु ने उसे निखारा है॥

युग ऋषि ने कहा कि इस समय आसुरी शक्ति विभिन्न आसुरी वृत्तियों के रूप में मनुष्य को सता रही है। उन्हे निरस्त करने के लिए परमात्म सत्ता प्रज्ञावतार के रूप मे आयी है। प्रज्ञा का अर्थ है दूरदर्शी, आदर्श निष्ठ विवेकशीलता। दुर्बुद्धि से दष्कर्म और दुष्कर्म से दुर्गति का क्रम बढ़ा है। अब सद्बुद्धि सत्कर्म और सत्कर्म से सद्गति का क्रम ईश्वरी सत्ता द्वारा चलाया जाता है। जो इस दिशा मे ईमानदारी से प्रयास करेंगे उन्हे दिव्य ईश्वरीय अनुदान सहज ही मिलेगा। उन्हे युग परिवर्तन के क्रम मे अग्रदूत बनने का श्रेय मिलेगा।

अ.4- हमारे गुरु प्रज्ञावतार, चलो प्रज्ञा को धारण करें।
दुष्ट चितंन को करें निरस्त, मनुज का कष्ट निवारण करें।
करें सद्चितंन शरसंधान, ज्ञान से ही तम हारा है॥

युग निर्माण किसी वर्ग विशेष के लिए नही सभी के लिए हो रहा है। इस लिए युग ऋषि के सूत्रों के समझकर उन्हें जीवन मे अपनाने के लिए साहसी और भावनाशीलों को साहस पूर्वक आगे आना चाहिए। और लोग इस तथ्य को न समझें तो उन्हे गुरु कहने वाले उनके शिष्यों को तो यह पहल करनी ही चाहिए। थोड़ी ही सही शुरुआत कर दें, उसे क्रम से बढ़ाते रहें तो दीपक से दीपक जलने का क्रम चल पड़े युग निर्माण का आधार बने। युग ऋषि केअनुदानों- उपकारों का ऋण इससे कम मे चुकाया नही जा सकता।

अ.5- गुरु के आवाहन पर आज, हम सभी कुछ तो अर्पित करें।
बाँटने जन- जन में गुरुज्ञान, स्वयं को हम संकल्पित करें।
शिष्य हैं तो सोचें कितना, गुरु का कर्ज उतारा है॥
नोटः- स्थान एवं समय के अनुसार समयदान अंशदान की प्रेरणा दें।

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