गीत संजीवनी-9

युग- युग से हम खोज

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युग- युग से हम खोज रहे हैं- सुरपुर के भगवान को।
किन्तु न खोजा अब तक हमने- धरती के इन्सान को॥

चर्चा ब्रह्मज्ञान की करते- किन्तु पाप से तनिक न डरते।
राम नाम जपते हैं दुःख में- साथी हैं रावण के सुख में॥
लकड़ी पूजी, लोहा पूजा- पूजा है पाषाण को॥

शबरी, केवट के गुण गाये- खूब रीझकर अश्रु बहाये।
पर जब हरि को भोग लगाया- तब सबको दुत्कार भगाया॥
तिलक लगाकर अपने उर में- पाला है शैतान को॥

खोजे मन्दिर मस्जि़द गिरजे- अनगिनते परमेश्वर सिरजे।
किन्तु कभी ईमान न खोजा- कभी खेत खलिहान न खोजा॥
दुनियाँ के मेले में देखा- नित्य नये सामान को॥

खोजा हमने जिसे भजन में- छिपा रहा वह तो क्रन्दन में।
हमने निशिदिन धर्म बखाना- लेकिन कर्म नहीं पहचाना॥
पैसा पाया, प्रतिभा पाई- पाया है विज्ञान को॥

मुक्तक-

कोई कहता है यहाँ- अरमान अपना खो गया।
जो भी दिल का था वही- सामान अपना खो गया॥
खो गई पहचान तो- हमको न गम कुछ भी रहा।
पर यही गम है कि अब- इन्सान अपना खो गया॥

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