ऋषयः ऊचुः
गुह्यात् गुह्यतरा विद्या गुरुगीता विशेषतः।
ब्रूहि नः सूत कृपया शृणुमस्त्वत्प्रसादतः॥
ऋषिगण बोले-हे सूत जी! हमें विशेष रूप से गूढ़तम गुरुगीता के बारे में कहो। आपकी कृपा से हम सभी सुनेंगें।
सूत उवाच
कैलाशशिखरे रम्ये भक्तिसन्धाननायकम्।
प्रणम्य पार्वती भक्त्या शंकरं पर्यपृच्छत॥ १॥
सूतजी बोले- एक बार रमणीय कैलाश पर्वत पर पार्वती जी ने भक्तों के कल्याण करने वाले शिव जी को प्रणाम करने के पश्चात् पूछा॥ १॥
श्री देव्युवाच
ॐ नमो देवदेवेश परात्पर जगद्गुरो।
सदाशिव महादेव गुरुदीक्षां प्रदेहि मे॥ २॥
देवी बोलीं- हे देवाधिदेव! हे परात्पर जगद्गुरु! हे सदाशिव! हे महादेव! कृपा करके मुझे गुरुदीक्षा प्रदान कीजिये॥ २॥
केन मार्गेण भोः स्वामिन् देही ब्रह्ममयो भवेत्।
त्वं कृपां कुरु मे स्वामिन् नमामि चरणौ तव॥ ३॥
हे स्वामी! आप मुझे बताएँ कि किस मार्ग से जीव ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करता है। हे स्वामी! आप मुझ पर कृपा करें। मैं आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ॥ ३॥
ईश्वर उवाच
मम रूपासि देवित्वं त्वत्प्रीत्यर्थं वदाम्यहम्।
लोकोपकारकः प्रश्रो न केनाऽपि कृतः पुरा॥ ४॥
हे देवी! आप तो मेरा अपना स्वरूप हैं। आपका यह प्रश्र बड़ा ही लोकहितकारी है। ऐसा प्रश्र पहले कभी किसी ने नहीं पूछा। आपकी प्रीति के कारण इसके उत्तर को मैं अवश्य कहूँगा॥ ४॥
दुर्लभं त्रिषु लोकेषु तदशृणुष्व वदाम्यहम्।
गुरुं विना ब्रह्म नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने॥ ५॥
हे महादेवी! यह उत्तर भी तीनों लोकों में अत्यन्त दुर्लभ है। परन्तु इसे मैं कहूँगा। आप सुनें, गुरु से अलग ब्रह्म नहीं है अर्थात् गुरु ही ब्रह्म है। हे श्रेष्ठ मुखमण्डल वाली! यह सत्य है, इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है॥ ५॥
वेदशास्त्रपुराणानि इतिहासादिकानि च।
मंत्रयंत्रादि विद्याश्च स्मृतिरुच्चाटनादिकम्॥ ६॥
शैवशाक्तागमादीनि अन्यानि विविधानि च।
अपभ्रंशकराणीह जीवानां भ्रान्तचेतसाम्॥ ७॥
वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास, स्मृति, मंत्र, यंत्र, उच्चाटन आदि विद्याएँ, शैव-शाक्त, आगम आदि विविध विद्याएँ केवल जीव के चित्त को भ्रमित करने वाली सिद्ध होती है॥ ६/७॥
यज्ञो व्रतं तपो दानं जपस्तीर्थं तथैव च।
गुरुतत्त्वमविज्ञाय मूढस्ते चरते जनः॥ ८॥
यज्ञ, व्रत, तप, दान, जप और तीर्थ आदि सारी प्रक्रियाओं को करने वाले लोग भी गुरुतत्त्व के बोध के अभाव में मूढ़ की तरह आचरण करते हैं॥ ८॥
गुरुर्बुद्ध्यात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं न संशयः।
तल्लाभार्थं प्रयत्नस्तु कर्तव्यो हि मनीषिभिः॥ ९॥
प्रबुद्ध आत्मा एवं सद्गुरु एक ही है, भिन्न नहीं है। यह सत्य है- सत्य है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इसलिए मननशील मनीषियों को इसकी प्राप्ति हेतु ही सभी श्रेष्ठ कर्तव्य कर्म करना चाहिए॥ ९॥
गूढ़विद्या जगन्माया देहेचाज्ञान सम्भवा।
उदयो यत्प्रकाशेन गुरुशब्देन कथ्यते॥ १०॥
माया से आवृत्त जगत् और अज्ञान से उत्पन्न शरीर के लिए यह गूढ़विद्या है। जिसके प्रकाशित होने से सत्यज्ञान का उदय होता है। इसी तत्त्व को च्गुरुज् संज्ञा दी गयी है॥ १०॥
सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पादसेवनात्।
देहीब्रह्मभवेद् यस्मात् त्वत् कृपार्थं वदामि ते॥ ११॥
सद्गुरु के चरणों की सेवा से साधक सारे पापों से मुक्त होकर विशुद्धात्मा हो जाता है। (भगवान् शिव माता पार्वती से कहते हैं, यही नहीं देवि!) मैं तुम्हें कृपापूर्वक बता रहा हूँ, देहधारी जीव ब्रह्मभाव को उपलब्ध हो जाता है॥ ११॥
गुरुपादाम्बुजं स्मृत्वा जलं शिरसि धारयेत्।
सर्वतीर्थावगाहस्य सम्प्राप्रोति फलं नरः॥ १२॥
सद्गुरु के चरणों का स्मरण करते हुए जल को सिर पर डालने से मनुष्य को सभी तीर्थों के स्नान का फल प्राप्त होता है॥ १२॥
शोषकं पापपङ्कस्य दीपनं ज्ञानतेजसाम्।
गुरुपादोदकं सम्यक् संसारार्णवतारकम्॥ १३॥
श्रीगुरु के चरणों का जल पाप रूपी कीचड़ को समाप्त करने वाला तथा ज्ञान और तेज रूपी दीपक के प्रकाश के द्वारा संसार रूपी सागर से पार कराने वाला है॥ १३॥
अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारणम्।
ज्ञानवैराग्यसिद्धर्य्थं गुरुपादोदकं पिबेत्॥ १४॥
श्रीगुरु का चरणोदक अज्ञान की जड़ उखाड़ने वाला तथा जन्म एवं कर्मों को समाप्त करने वाला होता है। ज्ञान-वैराग्य की प्राप्ति के लिए उस श्रीगुरु के चरणजल का पान करना चाहिए॥ १४॥
गुरोः पादोदकं पीत्वा गुरोरुच्छिष्टभोजनम्।
गुरुमूर्तेः सदा ध्यानं गुरुमन्त्रं सदा जपेत्॥ १५॥
श्रीगुरु का चरणोदक पीकर गुरु को पहले भोज्य पदार्थों को समॢपत कर बाद में स्वयं उन्हें प्रसाद रूप में ग्रहण करे तथा श्रीगुरु के द्वारा दिये गये मंत्र के जप के साथ-साथ गुरु के स्वरूप का ध्यान करे॥ १५॥
काशीक्षेत्रं तन्निवासो जाह्नवी चरणोदकम्।
गुरुःविश्वेश्वरः साक्षात् तारकं ब्रह्मनिश्चितम्॥ १६॥
गुरु का निवास ही मुक्तिदायिनी काशी है। उनका चरणोदक ही इस काशीधाम को आध्यात्मिक ऊर्जा से भरने वाला गंगाजल है। गुरुदेव ही भगवान् विश्वनाथ हैं। वही साक्षात् तारक ब्रह्म हैं॥ १६॥
गुरोः पादोदकं यत्तु गयाऽसौ सोऽक्षयोवटः।
तीर्थराज प्रयागश्च गुरुमूर्त्यै नमोनमः॥ १७॥
गुरुदेव का चरणोदक गया तीर्थ है। वह स्वयं अक्षयवट एवं तीर्थराज प्रयाग है। ऐसे सद्गुरु भगवान् को बारम्बार नमस्कार है॥१७॥
गुरुमूत स्मरेन्नित्यं गुरुनाम सदा जपेत्।
गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत गुरोरन्यत्र भावयेत्॥ १८॥
सद्गुरु कृपा से अपने जीवन में भौतिक, आध्यात्मिक, लौकिक-अलौकिक समस्त विभूतियों को पाने की चाहत रखने वाले साधक को सदा ही गुरुदेव की छवि का स्मरण करना चाहिए। उनके नाम का प्रति पल, प्रति क्षण जप करना चाहिए। साथ ही गुरु आज्ञा का जीवन की सभी विपरीतताओं के बावजूद सम्पूर्ण निष्ठा से पालन करना चाहिए। अपने जीवन में कल्याण कामना करने वाले साधक को गुरुदेव के अतिरिक्त अन्य कोई भावना नहीं रखनी चाहिए॥ १८॥
गुरुवक्त्रस्थितं ब्रह्म प्राप्यते तत्प्रसादतः।
गुरोर्ध्यानं सदा कुर्यात् कुलस्त्री स्वपतेर्यथा॥ १९॥
गुरु के मुख में ब्रह्मा का वास है। इस कारण उनके मुख से बोले हुए शब्द ब्रह्म वाक्य ही हैं। गुरु कृपा प्रसाद से ही ब्रह्म की प्राप्ति होती है। परम पतिव्रता स्त्री जिस तरह से सदा ही अपने पति का ध्यान करती है, ठीक उसी तरह अध्यात्म तत्त्व के अभीप्सु साधक को अपने गुरु का ध्यान करना चाहिए॥ १९॥
स्वाश्रयं च स्वजाङ्क्षत च स्वकीत पुष्टिवर्धनम्।
एतत्सर्वं परित्यज्य गुरोन्यन्न भावयेत्॥ २०॥
अपने स्थान, अपनी जाति, अपनी कीर्ति तथा अपनी उन्नति के विचार को त्याग कर श्रीगुरु के अलावा अन्य किसी का भी विचार नहीं करना चाहिए॥ २०॥
अनन्यश्चिन्तयन्तो मां सुलभं परमं पदम्।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन गुरोराराधनं कुरु॥ २१॥
शिष्य को यह तथ्य भलीभाँति आत्मसात् कर लेना चाहिए कि सद्गुरु का अनन्य ङ्क्षचतन मेरा ही (भगवान् सदाशिव) ङ्क्षचतन है। इससे परमपद की प्राप्ति सहज सुलभ होती है। इसलिए कल्याण कामी साधक को प्रयत्नपूर्वक गुरु आराधना करनी चाहिए॥ २१॥
त्रैलोक्ये स्फुटवक्तारो देवाद्यसुरपन्नगाः।
गुरुवक्त्रस्थिता विद्या गुरुभक्तया तु लभ्यते॥ २२॥
तीनों लोकों के देव-असुर एवं नाग आदि सभी इस सत्य को बड़ी स्पष्ट रीति से बताते हैं कि ब्रह्म विद्या गुरुमुख में ही स्थित है। गुरुभक्ति से ही इसे प्राप्त किया जा सकता है॥ २२॥
गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः॥ २३॥
गुरुज् शब्द में च्गुज् अक्षर अन्धकार का वाचक है और च्रुज् का अर्थ है प्रकाश। इस तरह गुरु ही अज्ञान का नाश करने वाले ब्रह्म है। इसमें तनिक भी संशय नहीं है॥ २३॥
गुकारः प्रथमो वर्णो मायादिगुणभासकः।
रुकारो द्वितीयो ब्रह्म मायाभ्रान्ति विनाशनम्॥ २४॥
शास्त्र वचनों से यह प्रमाणित होता है कि च्गुरुज् शब्द के प्रथम वर्ण गुज् से माया आदि गुण प्रकट होते हैं और इसके द्वितीय वर्ण च्रुज् से ब्रह्म प्रकाशित होता है। जो माया की भ्रान्ति को विनष्ट करता है॥ २४॥
एवं गुरुपदं श्रेष्ठं देवानामपि दुर्लभं।
हाहाहूहू गणैश्चैव गन्धर्वैश्च प्रपूज्यते॥ २५॥
इसलिए गुरुपद सर्वश्रेष्ठ है। यह देवों के लिए भी दुर्लभ है। हाहाहूहू गण और गन्धर्व आदि भी इसकी पूजा करते हैं॥ २५॥
ध्रुवं तेषां च सर्वेषां नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्।
आसनं शयनं वस्त्रं भूषणं वाहनादिकम्॥ २६॥
साधकेन प्रदातव्यं गुरुसन्तोषकारकम्।
गुरोराराधनं कार्यं स्वजीवित्वं निवेदयेत्॥ २७॥
हे श्रेष्ठमुख वाली देवी पार्वती! शिष्य को यह सत्य भली भाँति जान लेना चाहिए कि यह ध्रुव (अटल) है कि गुरु से श्रेष्ठ अन्य कोई भी तत्त्व नहीं है। ऐसे लोक कल्याण में निरत परम कृपालु गुरु के कार्य के लिए आसन, वस्त्र, आभूषण, वाहन आदि देते रहना शिष्य का कर्त्तव्य है। साधक द्वारा इस तरह लोक कल्याणकारी कार्यों में सहयोग से सद्गुरु को सन्तोष होता है। भगवान् शिव का कथन है कि गुरु के कार्य के लिए साधक को अपनी जीविका को भी अर्पण करना चाहिए॥ २६-२७॥
कर्मणा मनसा वाचा नित्यमाराधयेद् गुरुम्।
दीर्घदण्डम् नमस्कृत्य निर्लज्जोगुरुसन्निधौ॥ २८॥
हर काल में कर्म से, मन से तथा वाणी से गुरु की आराधना करनी चाहिए। श्रीगुरु के समीप लज्जा को त्यागकर साष्टांग प्रणाम करना चाहिए॥२८॥
शरीरमिन्द्रियं प्राणान् सद्गुरुभ्यो निवेदयेत्।
आत्मदारादिकं सर्वं सद्गुरुभ्यो निवेदयेत्॥ २९॥
शिष्य का शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण सभी कुछ गुरु कार्य के लिए अॢपत होना चाहिए। यहाँ तक कि अपने साथ पत्नी आदि परिवार के सदस्यों को गुरु कार्य में अर्पण कर देना चाहिए॥ २९॥
कृमिकीट भस्मविष्टा-दुर्गन्धिमलमूत्रकम्।
श्लेष्मरक्तं त्वचामांसं वञ्चयेन्न वरानने॥ ३०॥
भगवान् सदाशिव कहते हैं कि हे पार्वती! यह अपना शरीर कृमि, कीट, भस्म, विष्ठा, मल-मूत्र, त्वचा, मांस आदि का ही तो ढेर है। यह यदि गुरु कार्य के लिए अॢपत हो जाय, तो इससे श्रेष्ठ भला और क्या हो सकता है॥३०॥
संसारवृक्षमारूढ़ा पतन्तो नरकार्णवे।
येन चैवोद्धृताः सर्वे तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३१॥
उन सद्गुरुदेव भगवान् को शिष्य नमन करे, जो संसारवृक्ष पर आरूढ़ जीव का नरक सागर में गिरने से उद्धार करते हैं॥ ३१॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुविष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३२॥
नमन उन श्रीगुरु को, जो अपने शिष्य के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर होने के साथ परब्रह्म परमेश्वर हैं॥ ३२॥
हेतवे जगतामेव संसारार्णवसेतवे।
प्रभवे सर्वविद्यानां शंभवे गुरवे नमः॥ ३३॥
जो संसार की उत्पत्ति करने वाला है, जो संसार रूपी सागर को पार कराने वाला सेतु है तथा जो सभी विद्याओं का उदय स्थान है, इस प्रकार के शिवस्वरूप, कल्याणकारी श्रीगुरु को प्रणाम है॥ ३३॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३४॥
अज्ञानरूपी अंधकार से अंधे हुए जीव की आँखें जिसने ज्ञानरूपी काजल की शलाका से खोली है, ऐसे श्रीगुरु को प्रणाम है॥ ३४॥
त्वं पिता त्वं च मे माता त्वं बंधुस्त्वं च देवता।
संसारप्रतिबोधार्थं तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३५॥
नमन उन श्री गुरु को, जो अपने शिष्य के लिए पिता हैं, माता हैं, बन्धु हैं, ईष्ट देवता हैं और संसार के सत्य का बोध कराने वाले हैं॥ ३५॥
यत्सत्येन जगत्सत्यं यत्प्रकाशेन भाति तत्।
यदानन्देन नन्दन्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ३६॥
जिसकी स्थिति से संसार की स्थिति है, जिसके प्रकाश से संसार प्रकाशित हो रहा है, जिसके आनन्द से संसार आनन्दित हो रहा है, ऐसे सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीगुरु को नमन है॥ ३६॥
यस्य स्थित्या सत्यमिदं यद्भाति भानुरूपतः।
प्रियं पुत्रादि यत्प्रीत्या तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ३७॥
जिनके सत्य पर अवस्थित होकर यह जगत् सत्य प्रतिभासित होता है, जो सूर्य की भाँति सभी को प्रकाशित करते हैं,जिनके प्रेम के कारण ही पुत्र आदि सभी सम्बन्ध प्रीतिकर लगते हैं, उन सद्गुरु को नमन है॥ ३७॥
येन चेतयते हीदं चित्तं चेतयते न यम्।
जाग्रत्स्वप्र सुषुप्त्यादि तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ३८॥
जिनकी चेतना से यह सम्पूर्ण जगत् चेतन प्रतीत होता है, हालाँकि सामान्य क्रम में मानव चित्त को इसका बोध नहीं हो पाता। जाग्रत्-स्वप्र, सुषुप्ति आदि अवस्था को जो प्रकाशित करते हैं, उन चेतनारूपी सद्गुरु को नमन है॥ ३८॥
यस्य ज्ञानादिदं विश्वं न दृश्यं भिन्नमेदतः।
सदेकरूपरूपाय तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ३९॥
जिनके द्वारा ज्ञान मिलने से जगत् की भेददृष्टि समाप्त हो जाती है और वह शिव स्वरूप दिखाई देने लगता है, जिनका स्वरूप एकमात्र सत्य का स्वरूप ही है, उन सद्गुरु को नमन है॥ ३९॥
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।
अनन्यभावभावाय तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ४०॥
जो कहता है कि मैं ब्रह्म को नहीं जानता, वही ज्ञानी है। जो कहता है कि मैं जानता हूँ, वह नहीं जानता। जो स्वयं ही अभेद एवं भावपूर्ण ब्रह्म है उस सद्गुरु को नमन है॥४०॥
यस्य कारणरूपस्य कार्यरूपेण भाति यत्।
कार्यकारणरूपाय तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ४१॥
जिस श्रीगुरु के कारण रूप होने से कार्यरूप संसार का ज्ञान होता है, ऐसे कार्य-कारण रूप श्रीगुरु को नमन है॥ ४१॥
नानारूपम् इदं सर्वं न केनाप्यस्ति भिन्नता।
कार्यकारणता चैव तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ४२॥
अनेकों रूप वाले इस संसार में कहीं भी कुछ भी भिन्नता नहीं है, एकमात्र कार्य-कारण भाव ही है। ऐसे कार्य-कारण भावरूप श्रीगुरु को नमन है॥ ४२॥
यदङ् ध्रिकमलद्वंद्वं द्वंद्वतापनिवारकम्।
तारकं सर्वदाऽऽपद्म्यः श्रीगुरुं प्रणमाम्यहम्॥ ४३॥
जिनके दोनों चरण कमल शिष्य के जीवन में आने वाले सभी द्वन्द्वों, सर्व विधि तापों और सब तरह की आपदाओं का निवारण करते हैं। उन श्रीगुरु को मैं प्रणाम करता हूँ॥ ४३॥
शिवे क्रुद्धे गुरुस्राता गुरौ कु्रद्धे शिवो न हि।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्रीगुरुं शरणं व्रजेत्॥ ४४॥
भगवान् भोलेनाथ स्वयं कहते हैं कि यदि शिव स्वयं क्रुद्ध हो जाएँ, तो भी शिष्य का त्राण करने में सद्गुरु समर्थ हैं। परन्तु यदि गुरुदेव रूष्ट हो गए, तो महारुद्र शिव भी उसकी रक्षा नहीं कर सकते। इसलिए सब तरह की कोशिश करके श्रीगुरु की शरण में जाना चाहिए॥ ४४॥
वन्दे गुरुपदद्वन्द्वं वाङ् मनश्चित्तगोचरम्।
श्वेतरक्तप्रभाभिन्नं शिवशक्त्यात्मकं परम्॥ ४५॥
श्रीगुरु के चरणों की महिमा मन, वाणी, चित्त व इन्द्रिय ज्ञान से परे है। श्वेत-अरुण प्रभायुक्त गुरु चरणकमल परम शिव व परा शक्ति का सहज वासस्थान हैं, उनकी मैं बार-बार वन्दना करता हूँ॥ ४५॥
गुकारं च गुणातीतं रुकारं रूपवॢजतम्।
गुणातीत स्वरूपं च यो दद्यात् स गुरुः स्मृतः॥ ४६॥
गु शब्द से गुणातीत तथा रु शब्द से रूपातीत प्रकट होता है। जो निर्गुण और निराकार आत्मस्वरूप प्रदान करता है, उसे गुरु कहते हैं॥ ४६॥
अ-त्रिनेत्रः सर्वसाक्षी अ-चतुबहिरच्युतः।
अ-चतुर्वदनो ब्रह्मा श्री गुरुः कथितः प्रिये॥ ४७॥
हे प्रिये! जो तीन नेत्रों के न होने पर भी शिव के समान एवं सर्वसाक्षी है, चार भुजाओं के न होने पर भी विष्णु है, चार मुखमण्डलों के न होने पर भी जो ब्रह्मा है, उसे गुरु कहते हैं॥ ४७॥
अयं मयाञ्जलिर्बद्धो दयासागरवृद्धये।
यद् अनुग्रहतो जन्तुŸिवत्र संसार मुक्तिभाक् ॥ ४८॥
ऐसे दयासागर गुरुदेव को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। उनकी कृपा से ही जीवों को भेद बुद्धि वाले संसार से मुक्ति मिलती है॥ ४८॥
श्रीगुरोः परमं रूपं विवेक चक्षुषोऽमृतम्।
मन्दभाग्या न पश्यन्ति अन्धाः सूर्योदयं यथा॥ ४९॥
विवेकी मनुष्यों के लिए श्रीगुरु का परम रूप अमृत के समान होता है। जिस प्रकार अंधा मनुष्य सूर्योदय को नहीं देख पाता, उसी प्रकार मन्द भाग्य वाले भी श्रीगुरु के उस अमृततुल्य रूप को नहीं देख पाता है॥ ४९॥
श्रीनाथ चरणद्वन्द्वं यस्यां दिशि विराजते।
तस्यै दिशेनमस्कुर्याद् भक्त्या प्रतिदिनं प्रिये॥ ५०॥
उन परम स्थायी सद्गुरु के चरणद्वय जिस दिशा में भी विराजते हैं, उस दिशा में प्रतिदिन नमस्कार करने से शिष्यों का-भक्तों का परम कल्याण होता है॥ ५०॥
तस्यै दिशे सततमञ्जलिरेष आर्ये
प्रक्षिप्यते मुखरितो मधुपैर्बुधैश्च।
जागॢत यत्र भगवान् गुरुचक्रवर्ती
विश्वोदयप्रलयनाटकनित्यसाक्षी॥ ५१॥
हे आर्ये! जिस दिशा में, विश्व की उत्पत्ति और प्रलय रूप नाटक के साक्षी भगवान् श्रीगुरु जागृत होते हैं, विद्वान् मनुष्य उस दिशा में मंत्रोच्चार सहित, भ्रमरों के द्वारा खिलाये गये सुगन्धित पुष्पों को समॢपत करते हैं॥ ५१॥
श्रीनाथादिगुरुत्रयं गणपङ्क्षत पीठत्रयं भैरवं
सिद्धौघं बटुकत्रयं पदयुगं दूतीक्रमं मण्डलम्।
विरान् द्वयष्ट-चतुष्क-षष्टि-नवकं-वीरावलीपञ्चकं
श्रीमन्मालिनिमंत्रराजसहितं वन्दे गुरोर्मण्डलम्॥ ५२॥
श्री गुरुदेव ही परमगुरु एवं परात्पर गुरु हैं। उनमें तीनों नाथ गुरु आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ एवं गोरक्षनाथ समाये हैं। उन्हीं में भगवान् गणपति का वास है। उन परमप्रभु में तंत्र साधना के तीनों रहस्य मयपीठ-कामरूप, पूर्णगिरि एवं जालंधर पीठ स्थित हैं। मन्मथ आदि अष्ट भैरव, सभी महासिद्धों के समूह, तंत्र साधना में सर्वोच्च कहा जाने वाला विरंचि चक्र उन्हीं में है। स्कन्दादि बटुकत्रय, योन्याम्बादि दूतीमण्डल, अग्रिमण्डल, सूर्यमण्डल, सोममण्डल आदि मण्डल, प्रकाश व विमर्श के युगल पद के रहस्य उन्हीं में हैं। दशवीर, चौसठ योगिनियाँ, नवमुद्राएँ, पंचवीर तथा अ से क्ष तक सभी मातृकाएँ एवं मालिनीयंत्र गुरुदेव के चेतनामण्डल में ही स्थित हैं। सभी तत्त्वों से युक्त गुरु मण्डल को मेरा बारम्बार प्रणाम है॥ ५२॥
अभ्यस्तैः सकलैः सुदीर्घमनिलैः व्याधिप्रदैर्दुष्करैः
प्रणायाम शतैरनेककरणै र्दुःखात्मकैर्दुजयैः।
यस्मिन्नभ्युदिते विनश्यति बली वायुः स्वयं तत्क्षणात्
प्राप्तुं तत्सहजं स्वभावमनिशं सेवध्वमेकं गुरुम्॥ ५३॥
गुरुदेव की आध्यात्मिक चेतना के रहस्य को प्रकट करने वाले ये मंत्र अपने फलितार्थ में रहस्यमय एवं गूढ़ होते हुए भी प्रक्रिया में अति सरल हैं। देवाधिदेव महादेव स्कन्दमाता जगदम्बा से कहते हैं, देवी! दुःख देने वाले, रोग उत्पन्न करने वाले, इन्द्रियों को पीड़ा पहुँचाने वाले, दुर्जय दीर्घश्वास की क्रिया रूपी सैकड़ों की संख्या में प्राणायाम के अभ्यास का भला क्या सुफल है? अरे! जिनकी चेतना के अन्तःकरण में उदय होने मात्र से बलवान् वायु तत्क्षण स्वयं प्रशमित हो जाती है। ऐसे गुरुदेव की निरन्तर सेवा करनी चाहिए, क्योंकि इस गुरुसेवा से सहज ही आत्मलाभ हो जाता है॥ ५३॥
स्वदेशिकस्यैव शरीर चिन्तनं
भवेदनन्तस्य शिवस्य चिन्तनं।
स्वदेशिकस्यैव च नाम कीर्तनं
भवेदनन्तस्य शिवस्य कीर्तनं॥ ५४॥
अपने गुरुदेव के स्वरूप का थोड़ा सा भी चिन्तन भगवान् शिव के स्वरूप के अनन्त चिन्तन के समान है। गुरुदेव के नाम का थोड़ा सा भी कीर्तन भगवान् शिव के अनन्त नाम कीर्तन के बराबर है॥ ५४॥
यत्पादरेणुकणिका काऽपि संसारवारिधेः।
सेतुबंधायते नाथं देशिकं तमुपास्महे॥ ५५॥
गुरुदेव की चरण धूलि का एक छोटा सा कण सेतुबन्ध की भाँति है। जिसके सहारे इस महाभवसागर को सरलता से पार किया जा सकता है। उन गुरुदेव की उपासना मैं करूँगा, ऐसा भाव प्रत्येक शिष्य को रखना चाहिए॥ ५५॥
यस्मादनुग्रहं लब्ध्वा महदज्ञानमुत्सृजेत्।
तस्मै श्रीदेशिकेन्द्राय नमश्चाभीष्टसिद्धये॥ ५६॥
जिसकी कृपा प्राप्त होने से महान अज्ञान का नाश होता है। उन श्रीगुरु को मैं अपने अभीष्ट सिद्धि के लिए प्रणाम करता हूँ॥ ५६॥
पादाब्जं सर्वसंसार दावानल विनाशकम्।
ब्रह्मरन्ध्रे सिताम्भोजमध्यस्थं चन्द्रमण्डले॥ ५७॥
गुरुदेव की करुणा की व्याख्या करने वाले इन महामंत्रों में साधना के गहरे रहस्य सँजोये हैं। इन रहस्यों को गुरुभक्त साधकों के अन्तःकरण में सम्प्रेषित करते हुए भगवान् भोले नाथ के वचन हैं- गुरुदेव के चरण कमल संसार के सभी दावानलों का विनाश करने वाले हैं। गुरुभक्त साधकों को उन सद्गुरु का ध्यान ब्रह्मरन्ध्र में करना चाहिए॥ ५७॥
अकथादित्रिरेखाब्जे सहस्रदलमण्डले।
हंसापार्श्वत्रिकोणे च स्मरेत्तन्मध्यगं गुरुम् ॥ ५८॥
यह ध्यान चन्द्रमण्डल के अन्दर श्वेत कमल के बीच में सहस्रदलमण्डल पर अकथ आदि तीन रेखाओं से बने हंस वर्ण युक्त त्रिकोण में करना चाहिए॥ ५८॥
सकलभुवनसृष्टिः कल्पिताशेषपुष्टिर्
निखिलनिगमदृष्टिः संपदां व्यर्थदृष्टिः।
अवगुणपरिमाॢष्टस्तत्पदार्थैकदृष्टिर्
भवगुणपरमेष्टिर्मोक्षमार्गैकदृष्टिः॥ ५९॥
सकलभुवनरंगस्थापनास्तंभयष्टिः
सकरुणरसवृष्टिस्तत्त्वमालासमष्टिः।
सकलसमयसृष्टि सच्चिदानंददृष्टिर्
निवसतु मयि नित्यं श्रीगुरोॢदव्यदृष्टिः॥ ६०॥
सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति करने वाली, सभी पदार्थों का पोषण करने वाली, समस्त शास्त्रों को धारण करने वाली, सम्पदा की व्यर्थता को बताने वाली, दुर्गुणों को दूर करने वाली, समस्त संसार सत्ता में एकदृष्टि रखने वाली, संसार के सभी गुणों को बनाने वाली, मोक्ष के मार्ग को दिखाने वाली, समस्त संसार रूपी रंगमंच की आधार स्तम्भ करुणा का रस बरसाने वाली, षट्ङ्क्षवशति (२६) तत्त्वों की समष्टि रूप माला के समान, जिसने सभी नियम और काल आदि की रचना की है, जो सच्चिदानन्द स्वरूप है, ऐसी उस श्रीगुरु की कृपादृष्टि मुझ पर नित्य बनी रहे॥ ५९-६०॥
अग्रिशुद्धसमंतात ज्वालापरिचकाधिया।
मंत्रराजमिमं मन्येऽहॢनश पातु मृत्युतः॥ ६१॥
हे देवि! सद्गुरु का नाम परम मंत्र है। यह मंत्रराज है। इसका जप करने से बुद्धि अग्रि में तपाए सुवर्ण की भाँति शुद्ध होती है। इसके स्मरण-ङ्क्षचतन से निरन्तर मृत्यु से रक्षा होती है॥ ६१॥
तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तत्समीपके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः॥ ६२॥
चलते हुए या बैठे हुए, दूर होने पर, पास रहने पर, बाहर होने पर अथवा अन्दर रहने पर गुरु नाम का यह महामंत्र समूची सामर्थ्य से रक्षा करता है॥ ६२॥
अजोऽहमजरोऽहं च अनादिनिधनः स्वयम्।
अविकारश्चिदानन्द अणीयान्महतो महान्॥ ६३॥
च्अहंज् शब्द के द्वारा वॢणत यह जन्मरहित, अमर, अजर, अनादि और मृत्युरहित है। यह विकाररहित चिदानन्द, अणु से भी सूक्ष्म और महान् से भी विराट् है॥ ६३॥
अपूर्वाणां परं नित्यं स्वयं ज्योतिॢनरामयम्।
विरजं परमाकाशं ध्रुवमानन्दमव्ययम् ॥ ६४॥
सद्गुरु चेतना का यह तत्त्व सब भाँति अपूर्व है, नित्य है, स्वयं प्रकाशित एवं निरामय है। इसमें किसी तरह का विकार नहीं है। यह परमाकाश रूप, अचल, अक्षय और आनन्द का स्रोत है॥ ६४॥
श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानश्चतुष्टयम्।
यस्य चात्मतपो वेद देशिकंच सदा स्मरेत्॥ ६५॥
जिस श्रीगुरुदेव का आत्म तपोबल वेदशास्त्र, प्रत्यक्ष, इतिहास, अनुमान इन चारों प्रमाणों से जाना जाता है, उस श्रीगुरु का स्मरण करना चाहिए॥ ६५॥
मननं यद्वरं कार्यं तद्वदामि महामते।
साधुत्वं च मया दृष्ट्वा त्वयि तिष्ठति साम्प्रतम् ॥ ६६॥
हे महामति देवि! इसके मनन से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं। तुम्हारी साधुता को देखकर ही मैंने यह सत्य तुम्हें बताया है॥ ६६॥
अखण्डमण्डलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दॢशतं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ६७॥
अखण्ड वलयाकार चेतना के रूप में जो इ्र्र्र्रस सम्पूर्ण चर-अचर जगत् में व्याप्त हैं, ब्रह्म तत्त्व व आत्म तत्त्व के रूप में यही चेतना उनके श्री चरणों की कृपा से दॢशत होती है, उन श्री सद्गुरु को नमन है॥ ६७॥
सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदाम्बुजः।
वेदान्ताम्बुजसूर्यो, यस्तस्मै श्री गुरवेनमः॥ ६८॥
वैदिक ऋचाओं एवं उपनिषद् की श्रुतियों के सभी महावाक्य (मंत्र) रत्न उनके श्री चरणों में विराजित हैं। उन गुरुदेव की चेतना से सूर्य का प्रकाश पाकर ही वेदान्त का कमल खिलता है, ऐसे सद्गुरु को नमन है॥ ६८॥
यस्य स्मरणमात्रेण, ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम्।
य एव सर्वसंप्राप्तिस्तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ६९॥
जिनके स्मरण करने भर से अपने आप ही ज्ञान उत्पन्न होता है, जो अपने में सभी आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति है, उन कृपालु सद्गुरु को नमन है॥ ६९॥
चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरञ्जनम्।
नादबिन्दुकलातीतं तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ७०॥
जो परम चैतन्य, शाश्वत, शान्त और आकाश से भी अतीत और माया से परे हैं, नाद, बिन्दु एवं कला से भी परे हैं, ऐसे सद्गुरु को नमन है॥ ७०॥
स्थावरं जंगमं चैव तथा चैव चराचरम्।
व्याप्तं येन जगत्सर्वं तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ७१॥
परम आराध्य गुरुदेव इस जड़-चेतन, चर-अचर सम्पूर्ण जगत् में संव्याप्त हैं, उन सद्गुरु को नमन है॥ ७१॥
ज्ञानशक्तिसमारूढस्तत्त्वमालाविभूषितः।
भुक्तिमुक्तिप्रदाताय तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ७२॥
ज्ञान शक्ति पर आरूढ़, सभी तत्त्वों की माला से विभूषित गुरुदेव भोग एवं मोक्ष दोनों ही फल प्रदान करने वाले हैं, उन कृपालु सद्गुरु को नमन है॥ ७२॥
अनेकजन्मसंप्राप्त-सर्वकर्मविदाहिने।
स्वात्मज्ञानप्रभावेण तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ७३॥
जो अपने आत्मज्ञान के प्रभाव से शिष्य के अनेक जन्मों से संचित सभी कर्मों को भस्मसात कर देते हैं, उन कृपालु सद्गुरु को नमन है॥ ७३॥
न गुरोरधिकं तत्वं न गुरोरधिकं तपः।
तत्वम् ज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ७४॥
श्री गुरुदेव से बढ़कर अन्य कोई तत्त्व नहीं है। श्री गुरु सेवा से बढ़कर कोई दूसरा तप नहीं है, उनसे बढ़कर अन्य कोई ज्ञान नहीं है, ऐसे कृपालु गुरुदेव को नमन है॥ ७४॥
मन्नाथः श्रीजगन्नाथो मद्गुरुस्त्रीजगद्गुरुः।
ममात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ७५॥
मेरे स्वामी गुरुदेव ही जगत् के स्वामी हैं। मेरे गुरुदेव ही जगत्गुरु हैं। मेरे आत्मस्वरूप गुरुदेव समस्त प्राणियों की अन्तरात्मा हैं। ऐसे श्री गुरुदेव को मेरा नमन है॥ ७५॥
ध्यानमूलं गुरोर्मूॢतः पूजामूलं गुरोःपदम्।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोःकृपा॥ ७६॥
परम पूज्य गुरुदेव की भावमयी मूर्ति ध्यान का मूल है। उनके चरण कमल पूजा का मूल हैं। उनके द्वारा कहे गए वाक्य मूल मंत्र हैं। उनकी कृपा ही मोक्ष का मूल है॥ ७६॥
गुरुरादिनादिश्च गुरुः परम दैवतम्।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ७७॥
गुरुदेव ही आदि और अनादि हैं, वही परम देव हैं। उनसे बढ़कर और कुछ भी नहीं। उन श्रीगुरु को नमन है॥ ७७॥
सप्त सागर पर्यन्तं तीर्थास्नादिकं फलम्।
गुरोरङ् घ्रपयोबिन्दु सहस्रांशेन दुर्लभम्॥ ७८॥
सप्त सागर पर्यन्त जितने भी तीर्थ उन सभी के स्नान का फल गुरुदेव के पादप्रक्षालन के जल बिन्दुओं का हजारवाँ हिस्सा भी नहीं है॥ ७८॥
हरौ रुष्टे गुरस्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन।
तस्मात सर्व प्रयत्नेन श्रीगुरुं शरणं व्रजेत्॥ ७९॥
यदि भगवान् शिव स्वयं रुठ जायें, तो श्रीगुरु की कृपा से रक्षा हो जाती है, लेकिन यदि गुरु रुठ जाए, तो कोई भी रक्षा करने में समर्थ नहीं होता। इसलिए सभी प्रकार से कृपालु सद्गुरु की शरण में जाना चाहिए॥ ७९॥
गुरुरेव जगत्सर्वं ब्रह्म विष्णुशिवात्मकम्।
गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद्गुरुम्॥ ८०॥
ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव रूप यह जो जगत है, वह गुरुदेव का ही स्वरूप है। गुरुदेव से अधिक और कुछ भी नहीं है। इसलिए सब तरह से गुरुवर की अर्चना करनी चाहिए॥ ८०॥
ज्ञानं विज्ञानसहितं लभ्यते गुरुभक्तितः।
गुरोः परतरं नास्ति ध्येयोऽसौ गुरुमाॢगभिः॥ ८१॥
गुरुदेव की भक्ति से ज्ञान-विज्ञान साहित सब कुछ अपने आप मिल जाता है। उन सद्गुरु से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। इसलिए उन्हीं के बताए मार्ग का ध्यान करना चाहिए॥ ८१॥
यस्मात्परतरं नास्ति नेति नेतीति वै श्रुतिः।
मनसा वचसा चैव नित्यमाराधयेद् गुरुम्॥ ८२॥
जिनसे श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। श्रुतियों में इन्हीं की पराचेतना को नेति-नेति कहकर निरूपित किया गया है। इसलिए मन और वाणी से इन्हीं सद्गुरु की आराधना नित्य करते रहना चाहिए॥ ८२॥
गुरोः कृपाप्रसादेन ब्रह्मविष्णुसदाशिवाः।
समर्थाः प्रभवादौ च केवलं गुरुसेवया॥ ८३॥
ब्रह्मा, विष्णु और सदाशिव गुरुकृपा के प्रभाव से ही समर्थ हुए हैं। इसलिए गुरुसेवा को ही अपना कर्तव्य मानना चाहिए॥ ८३॥
देवकिन्नरगन्धर्वाःपितरो यक्षचारणाः।
मुनयोपि न जानन्ति गुरुशुश्रूषणे विधिम्॥ ८४॥
हालाँकि गुरु सेवा की ठीक-ठीक विधि कोई भी नहीं जानता। फिर भले ही वह देव, किन्नर, गन्धर्व, पितर, यक्ष, चारण अथवा श्रेष्ठ मुनि ही क्यों न हों॥ ८४॥
महाहंकारगर्वेण तपोविद्याबलान्विताः।
संसारकुहरावर्ते घटयंत्रे यथा घटाः॥ ८५॥
तप और विद्या को सब कुछ समझने वाले अहंका