भावार्थ :-
हे जगत् के स्वामी! हे सुमतियों के स्वामी! हे विश्वेश!
हे सर्वव्यापिन्! हे प्रकृति आदि से अतीत! हे परम पावन! हे पिता! हे जीवों
का निस्तार करने वाले! इस शरणागत, पतित और बुद्धिबल से हीन संसारसंतप्त
भक्त का उद्धार कीजिये॥ १॥
जो सर्वथा गुणहीन, अत्यन्त दीन और मलीन
मति है तथा अपने रक्षक और दाता आपसे पराङ्मुख है, हे जीवों का निस्तार करने
वाले! इस संसार संतप्त उस तामस-राजस वृत्ति वाले भक्त का आप उद्धार
कीजिये॥ २॥
हे जीवों का निस्तार करने वाले! इस भयानक मरुभूमि में
पड़कर नितांत निश्चेष्ट हुए मेरे इस अति संतप्त जीवन रूप मीन का अपने
करुणावारिधि की चञ्चल तरंगों का जल लाकर उद्धार कीजिये॥ ३॥
अतः हे
संसार की निवृत्ति करने वाले! हे कर्मविस्तार के कारणस्वरूप! हे कल्याणमय!
हे जीवों का निस्तार करने वाले! संसार समुद्र के जल में डूबकर संतप्त होते
हुए इस भक्त को अपनी करुणारूप नौका समर्पण करके यहाँ से तुरन्त उद्धार
कीजिये॥ ४॥
हे पुण्यरुचे! हे जीवोद्धारक! जिसकी पापराशि के भार से
पृथ्वी परिपूर्ण है, ऐसे मुझ नीच के जन्म को सदा के लिए मिटाकर मुझ अत्यन्त
निन्दनीय, नगण्य, पाप में रुचि रखने और संसार के दुःखों से दुःखित का
उद्धार कीजिये॥ ५॥
हे जगत्कर्त्ता! हे नारकीय यंत्रणाओं का अपहरण
करने वाले! हे संसार का उद्धार करने वाले! हे पापराशि को विदीर्ण करने
वाले! हे शिवरूप! इस दास की कर्मराशि का हरण कीजिये और हे जीवों का निस्तार
करने वाले! इस संसार संतप्त भक्त का उद्धार कीजिये॥ ६॥
हे अच्युत!
हे चिन्मय! हे उदारचूड़ामणि! हे कल्याणस्वरूप! मैं अत्यन्त तृषित हूँ, मुझे
ज्ञानरूप अमृत का पान कराइये। मैं अत्यन्त मोह के वशीभूत होकर नष्ट हो रहा
हूँ। हे जीवों का उद्धार करने वाले! मुझ संसार संतप्त को पार लगाइये॥ ७॥
संसार में जन्म प्राप्ति के कारणभूत कर्मों का नाश करने वाले आपको मैं
बारम्बार प्रणाम और नमस्कार करता हूँ। हे जीवों का उद्धार करने वाले! आप
निर्गुण और अनन्त की शरण को प्राप्त हुए इस संसार संतप्त भक्त का उद्धार
कीजिये॥ ८॥