गुरुगीता

आओ गुरू को करें हम नमन

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     गुरूगीता अध्यात्मविद्या के साधकों की प्राणचेतना का स्त्रोत है। इसके महामंत्रों के अनुशीलन से साधकों को नवप्राण मिलते हैं ।। उनमें आत्मतत्त्व का अंकुरण होता है। ब्रह्मविद्या स्फुरित होती है। वे यह सत्य जानने में समर्थ हो पाते हैं कि सद्गुरू ही सदाशिव हैं। भगवान् महेश्वर ने ही शिष्य- साधक पर कृपा करने के लिए गुरूदेव का रूप धरा है। गुरू और इष्ट में कोई भेद नहीं है। निराकार परब्रह्म परमेश्वर की सर्वव्यापी चेतना ही कृपालु सद्गुरूदेव के रूप में साकार हुई है। सद्गुरू को नमन इष्ट- आराध्य को नमन है। सद्गुरू को समर्पण सर्वव्यापी परमेश्वर को समर्पण है। गुरू और गोविन्द दो नहीं हैं। गुरू ही गोविन्द ही गुरू हैं। 
     पूर्व मंत्र में गुरूभक्त साधकों ने इस सत्य की किंचित् झलक पायी, जिसमें बताया गया है कि शिष्य को यह सत्य भली भाँति जान लेना चाहिए कि गुरू से श्रेष्ठ अन्य कोई भी तत्त्व नहीं है। ऐसे परम श्रेष्ठ और शिष्य वत्सल गुरूदेव की सेवा करना शिष्य का कर्त्तव्य है। उनके द्वारा किए जाने वाले लोक कल्याणकारी कार्यों में शिष्य को उत्साहित होकर भागीदार होना चाहिए ।। अंशदान- समयदान और बन सके तो जीवनदान करने में किसी भी शिष्य को कोई भी संकोच नहीं होना चाहिए ।। जिसे सेवा करने में अभी संकोच या हिचकिचाहट है, समझना चाहिए- उसमें शिष्यत्व अंकुरित ही नहीं हुआ है। मात्र दीक्षा संस्कार का कर्मकाण्ड करा लेने भर से कोई शिष्य नहीं हुआ करता। इसके लिए तो सीस उतारे भुईं धरे वाली कबीर बाबा की उक्ति को साकार करना पड़ता है। जब शिष्य बन गए तो अहं के विसर्जन में संकोच क्यों? जब हम अपने को शिष्य कहाते हैं, तो फिर गुरूवर को नमन में देरी किसलिए? 
     गुरू नमन की महिमा को अगले महामंत्रों में प्रकट करते हुए भगवान् सदाशिव माता पार्वती को समझाते हैं- 

संसारवृक्षमारूढा पतन्तो नरकार्णवे ।। 
येन चैवोद्घृताः सर्वे तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३१॥ 
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः ।। 
गुरूरेव परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३२॥ 
हेतवे जगतामेव संसारार्णवसेतवे। 
प्रभवे सर्वविद्यानां शंभवे गुरवे नमः ॥ ३३॥ 
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। 
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३४॥ 
त्वं पिता त्वं च मे माता त्वं बंधुस्त्वं च देवता। 
संसारप्रतिबोधार्थं तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ३५॥ 

     उन सद्गुरूदेव भगवान् को शिष्य नमन करे, जो संसारवृक्ष पर आरूढ़ जीव का नरक सागर में गिरने से उद्धार करते हैं॥ ३१॥ नमन उन श्रीगुरू को, जो अपने शिष्य के लिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर होने के साथ परब्रह्म परमेश्वर हैं॥ ३२॥ शिव रूपी उन सद्गुरू को नमन, जो समस्त विद्याओं का उदय स्थान हैं। इस संसार का आदिकरण हैं और संसार सागर को पार करने के लिए सेतु हैं॥ ३३॥ नमन उन श्री को, जो अज्ञान के अन्धकार से अन्धे जीव की आँखों को ज्ञानाञ्जन की शलाका से खोलते हैं॥ ३४॥ नमन उन श्री गुरू को ,, जो अपने शिष्य के लिए पिता हैं, माता हैं, बन्धु हैं, इष्ट देवता हैं और संसार के सत्य का बोध कराने वाले हैं॥ ३५॥ 
     इन महामंत्रों में सद्गुरू के नमन का विज्ञान- विधान है। गुरूतत्त्व को जान लेने पर, उनकी महिमा का साक्षात्कार कर लेने पर शिष्य को कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता। उसे किसी का भी भय नहीं रहता। शिष्य के हृदय में जब अपने सद्गुरू के प्रति नमन के भाव उपजते रहते, तब उसका सर्वत्र मंगल होता है, उसे अमंगल की छाया स्पर्श भी नहीं कर सकती। सद्गुरू को नमन शिष्य के लिए महाअभेद्य कवच है। इस सम्बन्ध में एक सत्य घटना का उल्लेख करने के लिए भावनाएँ आतुर हो रही हैं। यह घटना समर्थ गुरू रामदास और उनके शिष्य शिवराम के सम्बन्ध में है। उन दिनों स्वामी रामदास अपनी तेरह वर्षीय कठोर साधना को पूर्ण करके सारे देश में अलख जगा रहे थे। 
     इस क्रम में उन्हें बनारस आना था। अपनी बनारस यात्रा की चर्चा उन्होंने अपने शिष्यों से करते हुए कहा कि इस बार की यात्रा मैं अकेले ही करूँगा। सब शिष्यों ने उनका आदेश स्वीकार कर लिया, पर बालभक्त शिवराम ने जिद्द पकड़ ली कि वह भी उनके साथ जाएगा। शिवराम की आयु बारह साल थी। समर्थ गुरू ने बहुत समझाया कि बेटा तुम इतनी लम्बी यात्रा पैदल कैसे करोगे? पर बालहठ पर कोई असर नहीं हुआ। अन्त में स्वामी रामदास ने उससे कहा अच्छा बेटा ! तुम अपनी मां से आज्ञा ले लो। अगर वह आज्ञा दे देगी, तो हम तुम्हें ले चलेंगे। शिवराम उनकी इकलौती सन्तान था। सन्तान के प्रति उनका जितना गहरा ममत्व था, समर्थ गुरू के चरणों में उतनी ही गहरी भक्ति थी। पुत्र की बात सुनकर उन्होंने एक पल की देर लगाये बिना आज्ञा दे दी ।। 
     शिवराम की भक्ति और उसकी मां की आस्था से द्रवित होकर समर्थ गुरू उसे अपने साथ काशी ले आए। काशी आने पर गुरू आज्ञा से शिवराम भिक्षा मांगने के लिए निकला। समर्थ रामदास और उनके शिष्यों का भिक्षा हेतु एक नियम था। वह किसी के द्वार पर खड़े होकर केवल तीन बार पुकारते थे- जय रघुवीर समर्थ ।। तीन बार पुकारने पर यदि किसी ने भिक्षा दी तो ठीक अन्यथा आगे बढ़ जाते थे। इस तरह तीन घरों में भिक्षा मांगना उनका नियम था। तीन घरों में यदि भिक्षा न मिली तो वे उस दिन उपवास कर लेते थे ।। शिवराम ने भी इसी नियम के अनुसार एक द्वार पर आवाज लगायी। यह द्वार काशी के महातांत्रिक भैरवानन्द का था। भैरवानन्द को अनेकों तामसी तान्त्रिक क्रियाएँ सिद्ध थीं ।। यह महातांत्रिक होने के साथ महाक्रोधी भी था। 
     अपने द्वार पर जय- जय रघुवीर समर्थ की आवाज सुनते ही वह भड़क उठा। क्रोधावेश में वह द्वार पर निकलकर आया और बालक शिवराम को डांटते हुए बोला कि कौन है, जो अपने को समर्थ कहता है। शिवराम ने बिना किसी भय के कहा कि समर्थ हैं मेरे गुरू और उनकी सामर्थ्य का स्त्रोत उनके आराध्य भगवान् राम हैं। छोटे बालक को अपने सामने इस तरह बोलते हुए देख उस क्रोधी तांत्रिक ने कहा, जा मैं भैरवानन्द तुझसे कहता हूँ कि तू कल प्रातःकाल तक मर जाएगा, तेरे गुरू में सामर्थ्य है, तो तुझे बचा लें। शिवराम ने समर्थ रामदास के पास उपस्थित होकर उस तांत्रिक की सारी बातें बतायी। उन बातों से भी उन्हें अवगत कराया, जो रास्ते में बनारस के लोगों ने उसे महातांत्रिक की आश्चर्यजनक शक्तियों के बारे में बतायी थी ।। इन सारी बातों को सुनकर समर्थ रामदास हंसे और बोले बेटा- समर्थ रघुवीर के होते डर कैसा? तू तो बस आराम से गुरूर्ब्रह्मा , गुरूर्विष्णु वाला मन्त्र पढ़ता रह और आराम से मेरे पांव दबाए जा। इतना कहकर समर्थ रामदास लेट गए। 
     बालक शिवराम ने उनके पांव दबाते हुए गुरू नमन क मंत्र पढ़ने शुरू किए। इधर भैरवानन्द नें भी उसके मारण के लिए महाकृत्या का प्रयोग किया था। पूरी रात महाकृत्या ने शिवराम को मारने के लिए अनेकों रूप धरे, उसको कई तरह से गुरू नमन से विरत करना चाहा, परन्तु शिवराम की अटल गुरूभक्ति के सामने उसकी एक न चली। अन्त में असफल होकर उसने भैरवानन्द पर ही अपना आक्रमण किया। महातांत्रिक अपनी क्रिया को इस तरह उलटते देखकर घबरा गया। वह भागा- भागा आकर समर्थ के चरणों में गिर गया। समर्थ रामदास ने उसे अभय देते हुए कृत्या का शमन किया और उसे चेताया- गुरूगीता के गुरू नमन मंत्र साधारण नहीं हैं। जिसकी वाणी में ये मंत्र हैं और हृदय में गुरूभक्ति है, वह गुरूकृपा के कवच से सदा सुरक्षित है। कोई अभिचार क्रिया उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। गुरू नमन के इन नमन मंत्रों की श्रृंखला में आगे कहा गया है।

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