गुरुगीता

आत्मनिवेदन

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गुरूगीता शिष्यों का हृदय गीत है। गीतों की गूँज हमेशा हृदय के आँगन में ही अंकुरित होती है। मस्तिष्क में तो सदा तर्कों के संजाल रचे जाते हैं। मस्तिष्क की सीमा बुद्धि की चहार दीवारी तक है, पर हृदय की श्रद्धा सदा विराट् और असीम है। मस्तिष्क तो बस गणितीय समीकरणों की उलझनों तक सिमटा रहता है। इसे अदृश्य ,, असम्भव ,, असीम एवं अनन्त का पता नहीं है। मस्तिष्क मनुष्य में शारीरिक- मानसिक संरचना व क्रिया की वैज्ञानिक पड़ताल कर सकता है, परन्तु मनुष्य में गुरू को ढूँढ़ लेना और गुरू में परमात्मा को पहचान लेना हृदय की श्रद्धा का चमत्कार है। 

     गुरूगीता के महामंत्र इसी चमत्कारी श्रद्धा से सने हैं। इसकी अनोखी- अनूठी सामर्थ्य का अनुभव श्रद्धावान् कभी भी कर सकते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण के वचन हैं- श्रद्धावान् लभते ज्ञानं जो श्रद्धावान् हैं, वही ज्ञान पाते हैं। यह श्रद्धा बड़े दुस्साहस की बात है। कमजोर के बस की बात नहीं है, बलवान् की बात है। श्रद्धा ऐसी दीवानगी है कि जब चारों तरफ मरुस्थल हो और कहीं हरियाली का नाम न दिखाई पड़ता हो, तब भी श्रद्धा भरोसा करती है कि हरियाली है, फूल खिलते हैं। जब जल का कहीं कण भी न दिखाई देता हो, तब भी श्रद्धा मानती है कि जल के झरने हैं, प्यास तृप्त होती है। जब चारों तरफ पतझड़ हो तब भी श्रद्धा में वसन्त ही होता है। 

     जो शिष्य हैं, उनका अनुभव यही कहता है कि श्रद्धा में वसन्त का मौसम सदा ही होता है। श्रद्धा एक ही मौसम जानती है- वसन्त। बाहर होता रहे पतझड़, पतझड़ के सारे प्रमाण मिलते रहें, लेकिन श्रद्धा वसन्त को मानती है। इस वसन्त में भक्ति के गीत गूँजते हैं। समर्पण का सुरीला संगीत महकता है। जिनके हृदय भक्ति से सिक्त हैं, गुरुगीता के महामंत्र उनके जीवन में सभी चमत्कार करने में सक्षम हैं। अपने हृदय मंदिर में परम पूज्य गुरुदेव की प्राण- प्रतिष्ठा करके जो भावभरे मन से गुरुगीता का पाठ करेंगे, उनका अस्तित्व गुरूदेव के दुर्लभ आशीषों की वृष्टि से भीगता रहेगा। गुरूगीता उन्हें प्यारे सद्गुरू की दुर्लभ अनुभूति कराती रहेगी। ऐसे श्रद्धावान् शिष्य की आँखों से करुणामय परम पूज्य गुरूदेव की झाँकी कभी ओझल न होगी। 

     गुरूगीता साधक संजीवनी है। आदिमाता पार्वती की जिज्ञासा सुनने पर भगवान् शिव प्रसन्न होकर उन्हें उपदेश देते हैं। इस पूरे वार्त्तालाप में जो स्कन्द पुराण के उत्तरखण्ड में लगभग पौने दो सौ श्लोकों में आया है, सद्गुरू की महिमा का वर्णन है। गुरू- शिष्य संबंध इस धरती का सर्वाधिक पावन निकटतम संबंध है। यदि गुरू परमात्मा की सीधी नियुुक्ति के रूप में अवतरित होते हैं, तो गुरू शिष्य के समर्पण भाव के बदले आध्यात्मिक अनुदान उदारतापूर्वक देते हैं। गुरूगीता एक प्रकार से हर शिष्य के लिए साधना का एक श्रेष्ठ माध्यम है। इससे गुरूकृपा सतत- अनवरत पायी जा सकती है। परम पूज्य गुरूदेव के रूप में महाकाल की- प्रज्ञावतार की सत्ता इस युग में अवतरित हुई (सन् १९११, आश्विन कृष्ण त्रयोदशी )। उनने अपना जीवन एक समर्पित शिष्य के रूप में जिया। उनके गुरू थे हिमालयवासी स्वामी सर्वेश्वरानन्द जी ,जिनकी आयु का अनुमान भी लगा पाना कठिन है। आदिकाल से ऋषिगण सूक्ष्म शरीर से हिमालय में तप कर रहे हैं। उन्हीं में से सप्तर्षियों के मार्गदर्शन वाली उच्चस्तरीय एक संसद के प्रतिनिधि हैं- हमारे दादागुरू, जिनने युग परिवर्तन के निमित्त- हेतु पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी को चुना। 

     युगद्रष्टा, प्रज्ञापुरूष आचार्यश्री ने एक श्रेष्ठ शिष्य का जीवन जिया एवं सन् १९९० की गायत्री जयन्ती (२ जून) को स्वयं को सूक्ष्म एवं कारण में विलीन कर दिया। उन्हीं गुरूसत्ता के चरणों में गुरुगीता की युगानुकूल टीका विभिन्न संदर्भों के साथ प्रस्तुत है। विभिन्न श्लोकों की देवाधिदेव की, महादेव की जगज्जननी माँ पार्वती के समक्ष प्रस्तुत की गई व्याख्या के साथ गुरू- शिष्य परम्परा के अनेकानेक उदाहरण परम पूज्य गुरूदेव के जीवन के प्रसंगों व चिन्तन के साथ प्रस्तुत हैं। इसमें सभी कुछ वह है, जो पुराण में श्री वेदव्यास ने लिखा है या बाद में जिसे सूतजी द्वारा ऋषिगणों के समक्ष नैमिष तीर्थ में प्रस्तुत किया गया है। यदि निवेदक ने अपना कुछ जोड़ा है, तो वह ज्ञान गुरू का दिया हुआ ही है, जो वास्तव में उन श्लोकों के साथ आज के युग में, आज की परिस्थिति में हर साधक के लिए मनन करने योग्य है। 

     आदिशक्ति द्वारा शिष्य भाव से जिज्ञासा व्यक्त की गयी। जगत्रियन्ता तंत्राधिपति देवों के देव भगवान् महाकाल गुरू रूप में उसका समाधान करते हैं। इसी तरह शक्ति स्वरूपा माता भगवती देवी एवं परम पूज्य गुरूदेव का जीवन रहा है, जिनका सान्निध्य हम सभी को मिला है। गुरू- शिष्य परम्परा का एक श्रेष्ठतम उदाहरण इस ऋषि युग्म ने प्रस्तुत किया। लाखों- करोड़ों शिष्यों पर निरन्तर अनुकम्पा बरसाने वाले प्रखर प्रज्ञारूपी हमारे सद्गुरू एवं सजल श्रद्धारूपी हमारी मातृशक्ति के त्याग तपस्यामय जीवन को समर्पित है, यह संकलन। यह स्वान्तः सुखाय लिखा गया एक संदर्भ ग्रन्थ है, जिसका मनन- चिन्तन निश्चित ही सद्गुरू की महिमा का सबको बोध कराएगा एवं शिष्य रूप में कर्तव्य की जानकारी भी देगा। यह सद्ज्ञान हमारे जीवन में श्रद्धा- सद्विचार एवं सुसंस्कार की त्रिवेणी बनकर प्रवाहित हो, तो ही इसका महत्त्व है। श्रद्धा जिसकी आदर्शों में होती है, वही गुरूकृपा का पात्र होता है। हमारी श्रद्धा गुरुकार्यों के प्रति नित्य हर पल बढ़े, हम उनके निमित्त जीना- कर्तव्यों का पालन करना सीखें। हम गुरू के ही चरित्र पर सतत चिन्तन करें। उनके ही जैसा बनने का प्रयास करें, तो सद्विचारों की गंगोत्री हमारे अंदर प्रवाहित होने लगेगी। परम पूज्य गुरूदेव द्वारा निस्सृत ज्ञान गंगा- विचार क्रांति का मूल केन्द्र बनी एवं देखते- देखते अच्छे विचारों को अपनाने वालों का एक परिकर खड़ा हो गया। यही सद्विचार गुरुकृपा से ही संस्कार में परिणत होते चले जायें, तो हमारा गुरू के प्रति समर्पण सार्थक है। हमारी श्रद्धा अंधश्रद्धा भी न हो, विवेक पर आधारित हो ,, आदर्शों के प्रति हो, तभी हमें ज्ञान मिलेगा, वह ज्ञान जो हमें भवबंधनों से तार देगा- हमारे अंदर श्रेष्ठ संस्कारों की स्थापना कर हमें देवमानव बना देगा। 

     गुरुगीता का यह पूरा प्रसंग सदाशिव भगवान् महादेव, आदिशक्ति पार्वती, परम पूज्य गुरूदेव एवं स्त्रेहसलिला माताजी को त्वदीय वस्तु गोविन्द! तुभ्यमेव समर्पये के भाव से अर्पित किया जा रहा है। इसका स्वाध्याय निश्चित ही जन- जन का कल्याण करेगा, श्रद्धा संवर्धन करेगा, नवयुग के अवतरण में भागीदारी सुनिश्चित करेगा, गुरूपूर्णिमा पर्व पर सही मंगल कामना। 

     गुरूगीता का यह परिवर्धित संस्करण है। इसके खण्ड- अ में गुरुगीता के संपूर्ण मंत्रों को उसकी मूल व्याख्या सहित युगानुकूल विवेचन के साथ प्रस्तुत किया गया है, साथ ही खण्ड- ब में इसकी शास्त्रोक्त पाठविधि को सम्मिलित किया गया है, जिससे इसका आकार तो अवश्य बढ़ गया है, परन्तु साधकों के लिए यह एक अनुपम संग्रहणीय ग्रंथ बन गया है। इसके श्रद्धापूर्वक अध्ययन, मनन एवं पाठ से साधक निश्चित ही लाभान्वित होंगे, ऐसा विश्वास है। 

गुरूपूर्णिमा २००६ 
डॉ० प्रणव पण्ड्या 
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