गुरुगीता

चेतना के रहस्यों का जानकार होता है सद्गुरू

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     गुरूगीता अध्यात्मविद्या का परम दुर्लभ शास्त्र है। इस परम शास्त्र के प्रवर्तक भगवान् शिव का कथन है कि अध्यात्म साधना में परम अनिवार्य तत्त्व है गुरूभक्ति का जागरण। साधक में यदि गुरूभक्ति का विकास हो जाए, तो अध्यात्म साधना सहज ही विकसित एवं फलित होने लगती है। साधक की निर्मल एवं निष्कपट भावनाएँ उसमें परिष्कृत चिन्तन को जन्म देती हैं। चिन्तन का परिष्कार होने से उसके कर्मों में उदात्तता आती है। तत्त्वकथा यही कहती है कि यदि भावनाएँ सँवरती हैं, तो ज्ञान एवं कर्म भी सँवर जाते हैं। गुरूभक्ति यदि अन्तःकरण में पनप सके, तो गुरूकृपा भी सहज ही अवतरित होती है। इस सद्गुरू कृपा के बल पर सहज ही आध्यात्मिक विभूतियों एवं यौगिक ऐश्वर्यों का स्वामी बन जाता है। 
     पिछले मंत्रों में यह बताया गया है कि परम पूज्य गुरूदेव की दिव्यमूर्ति ध्यान का मूल है। उनके चरण पूजा के मूल हैं। उनके वचन मंत्र मूल है। उनकी कृपा मोक्ष का मूल है। गुरूदेव ही आदि एवं अनादि हैं, उनसे बढ़कर और कुछ भी नहीं। यहाँ तक कि गुरूदेव के पाद प्रक्षालन के जल बिन्दु में सभी तीर्थों का सार समावेश है। भगवान् शिव स्वयं कहते हैं कि मेरे रूठने पर तो सद्गुरू अपने शिष्य का त्राण करने में सक्षम हैं; परन्तु यदि वही रूठ जाएँ, तो फिर कहीं भी त्रिलोकी में रक्षा नहीं हो सकती। इसलिए शिष्य को सदा अपने सद्गुरू की शरण में रहना चाहिए। उन्हीं की सब भाँति अर्चना- आराधना करनी चाहिए। 
     उन्हीं सर्वव्यापी गुरूदेव की चेतना के अन्य आध्यात्मिक रहस्यों को उजागर करते हुए भगवान् भोलेनाथ जगदम्बा पार्वती से कहते हैं- 

ज्ञानं विज्ञानसहितं लभ्यते गुरुभक्ति:। 
गुरो: परतरं नास्ति ध्येयोsसौ गुरुमार्गिभि:॥ ८१॥ 
यस्मात्पातरं नास्ति नेति नेतीति वै श्रुतिः। 
मनसा वचसा चैव नित्यमाराधयेद् गुरूम्॥८२॥ 
गुरोः कृपाप्रसादेन ब्रह्मविष्णुसदाशिवाः। 
समर्थाः प्रभवादौ च केवलं गुरूसेवया॥ ८३॥ 
देवकिन्नरगन्धर्वाःपितरो यक्षचारणाः। 
मुनयोपि न जानन्ति गुरूशुश्रूषणे विधिम् ॥८४॥ 
महाहंकारगर्वेण तपोविद्याबलान्विताः। 
संसारकुहरावर्ते घटयंत्रे यथा घटाः॥ ८५॥ 

     गुरूदेव की भक्ति से ज्ञान- विज्ञान सहित सब कुछ अपने आप मिल जाता है। उन सद्गुरू से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है। इसलिए उन्हीं के बताए मार्ग का ध्यान करना चाहिए॥ ८१॥ श्रुतियों में इन्हीं की पराचेतना को नेति- नेति कहकर निरूपित किया गया है। इसलिए मन और वाणी से इन्हीं सद्गुरू की आराधना नित्य करते रहना चाहिए॥ ८२॥ ब्रह्मा, विष्णु और सदाशिव गुरूकृपा के प्रभाव से ही समर्थ हुए हैं। इसलिए गुरूसेवा को ही अपना कर्तव्य मानना चाहिए॥ ८३॥ हालाँकि गुरू सेवा की ठीक- ठीक विधि कोई भी नहीं जानता। फिर भले ही वह देव, किन्नर ,गन्धर्व, पितर, यक्ष, चारण अथवा श्रेष्ठ मुनि ही क्यों न हों॥ ८४॥ तप और विद्या को सब कुछ समझने वाले अहंकारी जन इस संसार चक्र में बारम्बार भटकते रहते हैं, जैसे कि घट यंत्र के चक्र में घट घूमता रहता है॥ ८५॥ 
       गुरूदेव की पराचेतना में सब कुछ है। उन्हीं में सभी लौकिक एवं अलौकिक शक्तियाँ समाहित हैं। इसी सत्य को भगवान् सदाशिव ने आदिमाता पार्वती से कहा है। सद्गुरू अगम एवं अगोचर हैं। वे साकार होते हुए भी निराकार हैं। देहधारी होते हुए भी देहातीत हैं। उन्हीं में अपनी अहंता को विलीन करने से परमज्ञान मिलता है। यह परम सत्य है। भले तप की कठिन साधनाएँ एवं दुरूह विद्याओं का अभ्यास अज्ञान यह परम सत्य है। भले ही इसे बुद्धि परायण जन समझे अथवा न समझे। हालाँकि इसे समझे बिना तप की कठिन साधनाएँ एवं दुरूह विद्याओं का अभ्यास अज्ञान के अहंकार को ही बढ़ाता है। 
     इस सच्चाई को बताने वाली एक बड़ी मीठी कथा है। यह कथा कबीर दास जी और उनके शिष्य पद्यनाभ के बारे में है। ये पद्यनाभ कबीर दास के पास अध्यात्म के तत्त्व को जानने आए थे। उनकी सच्ची जिज्ञासा को देखकर कबीर ने उन्हें शिष्य के रूप में अपना लिया; पर पद्यनाभ का मन उनके पास नहीं लगता था। उनकी मानसिकता के ढाँचे में कबीर फिट नहीं बैठते थे। सो वह एक दिन फकीर शेखतकी के पास चले गए। ये शेखतकी सुप्रसिद्ध विद्वान थे। सभ्यजनों में उनका बड़ा रूतबा था। यहाँ तक कि हिन्दुस्तान का बादशाह सिकन्दर लोदी भी उनके यहाँ हाजरी बजाने आता था। इतना बड़ा मर्तबा(पद) किताबों और किताबी ज्ञान के अम्बार में पद्यनाभ ने खो दिया। 
     जब उन्होंने शेखतकी से साधना करने की इच्छा जताई तो उन्होंने उत्तर में एक मोटी सी किताब उन्हें थमा दी। इस किताब को पढ़कर पद्यनाभ अपनी साधना करने लगे। जैसा- जैसा किताब में लिखा था, वह वैसा ही करते ।। उसी तरह से प्राणायाम ,उसी तरह से मुद्राएँ एवं उसी भाँति से वह योग की दूसरी क्रियाएँ साधने लगे। यह सब करते हुए उन्हें कई साल बीत गए। यहाँ तक कि उन्हें कबीर बाबा की सुधि भी न रही। तभी एक दिन उनकी योग साधना में एक व्यतिरेक हुआ और उनकी काया निश्चेष्ट हो गयी। कुुछ इस तरह उनके साथ घटा, जैसे कि वे मर गए हों। 
     सभी ने उन्हें मृत मान लिया। फकीर शेखतकी उन्हें मरा हुआ मानकर गंगा में बहाने लगे। तभी अचानक कबीर दास जी उधर से गुजरे। लोगों ने उन्हें सारा वाकया बताया। सारी बातें जानकर वह मुस्कराए और पास खड़े लोगों से उन्होंने कहा कि पद्यनाभ का मृत शरीर मेरे पास रख दो। पर इससे होगा क्या? शेखतकी ने प्रतिवाद करते हुए कहा- यह तो मर गया है। कबीर दास जी ने कहा- नहीं, यह मृत नहीं है। इस बेचारे ने प्राणवायु को ऊपर तो चढ़ा लिया पर उतार नहीं सका। 
     शव के पास आने पर कबीर बाबा ने उसके शरीर को सहलाते हुए मस्तिष्क की नसों को दबाया। उसकी प्राणवायु को ब्रह्मरन्ध्र से उतार कण्ठ में ले आए। इससे उसकी कुण्डलिनी क्रिया शुद्ध हो गयी। अब वह अँगड़ाई लेकर उठ गया। चारों ओर देखते हुए उसने पूछा कि मैं यहाँ कैसे आ गया? कबीर दास जी ने धीरे से उसके मस्तक को सहलाया। इस जादू भरे स्पर्श में पता नहीं क्या था कि उसे जीवन सत्य का बोध हो गया। 
     अब तो वह उनके पाँव पकड़ कर रोने लगा और बोला- बाबा मैंने आपका बड़ा अपमान किया, पर आपने मुझे उबार लिया। उसकी इन बातों पर कबीर बोले- बेटा! कोई गुरू अपने शिष्य से न तो कभी अपमानित होता है और न ही वह उसका त्याग करता है। बस उसे कालक्रम की प्रतीक्षा होती है। कबीर की इस रहस्यमयी वाणी ने शेखतकी की आँखे खोल दीं। उन्हें ज्ञात हुआ कि किताबों को पढ़ने वाला गुरू नहीं होता। गुरू तो वह है, जो चेतना के रहस्यों का जानकर है और उसमें अपने शिष्य को उबारने की क्षमता है।

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