गुरुगीता

एक ही यज्ञ अहं को भस्म कर देना

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     गुरूगीता के महामंत्रों की साधना से शिष्य के अस्तित्व का सद्गुरू की चेतना में लय होता है। अध्यात्म जगत् में यह अनुभूति बड़ी दुर्लभ है और यह किसी को यूँ ही नहीं मिल जाती। इसके पहले शिष्य को असंख्य- अनगिनत परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। प्रत्येक परीक्षा उसके अहं पर संघातिक प्रहार करती है। इस बज्राघात की पीड़ा जिसने सही है, वही जान सकता है। इस तरह का प्रत्येक आघात शिष्य के समर्पण के समक्ष महाचुनौती खड़ी करता है। ऐसी असंख्य चुनौतियों का सक्षम उत्तर विरले ही दे पाते हैं। अन्यथा बाकी तो बुद्धि के तर्कों एवं मन द्वारा खड़े किए गए उपद्रवों के सामने हथियार डाल देते हैं। उनके हाथ- पाँव अनायास ही फूल जाते हैं और समर्पण पथ से विचलित हो पलायन कर बैठते हैं। आध्यात्मिक साधना की समरभूमि ऐसे अनेकों पलायनवादियों की कायरता की साक्षी रही है। 
     समर्पण के भाव बने रहें, शिष्य का अस्तित्व सद्गुरू की चेतना में घुलता रहे, इसके लिए परम पूज्य गुरूदेव के ध्यान का सातत्य हमेशा बना रहना चाहिए। इसी ध्यान के बारे में ऊपर के मंत्रों में शिष्यों ने पढ़ा कि भगवान् शिव माता पार्वती से कहते हैं कि शिष्यत्व की साधना करने वालों को अपने हृदय कमल की कर्णिकाओं के बीच गुरूदेव की दिव्य भावमूर्ति का ध्यान करना चाहिए। भाव यह रहे कि उनकी दिव्य मूर्ति से शुभ्र चाँदनी सा प्रकाश विकीर्ण हो रहा है। ये सद्गुरू देव अपने शिष्यों के लिए वरदायी मुद्रा में आसीन हैं। उनके वामभाग में उनकी लीला सहचरी दिव्य शक्ति माँ विद्यमान हैं। 
     ध्यान की इस पवित्र प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए भगवान् भोलेनाथ माता जगदम्बा से कहते हैं- 

आनन्दमानन्दरकरं प्रसन्नं ज्ञानस्वरूपं निजबोधयुक्तम्। 
योगीन्द्रमीड्यं भवरोगवैद्यं श्रीमद्गुरूंनित्यमहम् नमामि॥९३॥ 
यस्मिन् सृष्टिस्थितिध्वंसनिग्रहानुग्रहात्मकम्। 
कृत्यं पञ्चविधं शश्वदभासते तं नमाम्यहम्॥ ९४॥ 
प्रातः शिरसि शुक्लाब्जे द्विनेत्रं द्विभुजं गुरूम्। 
वराभययुतं शान्तं स्मरेत्तं नामपूर्वकम् ॥ ९५॥ 

     गुरूदेव आनन्दमय रूप हैं। वे शिष्यों को आनन्द प्रदान करने वाले हैं। वे प्रभु प्रसन्नमुख एवं ज्ञानमय हैं। वे सदा आत्मबोध में निमग्र रहते हैं। योगीजन सदा उनकी स्तुति करते हैं। संसार रूपी रोग के वही एक मात्र वैद्य हैं। मैं उन गुरूदेव को मेरा नमन है॥ ९४॥ इस भाव से गुरूदेव को नमन करते हुए प्रातःकाल सहस्त्रारदल कमल में शान्त, वराभय मुद्रा वाले, कृपा- करूणा रूपी दोनों नेत्रों वाले, रक्षण- पोषण रूपी दो भुजाओं वाले गुरूदेव का नाम सहित स्मरण करना चाहिए॥ ९५॥ 
       गुरूगीता के इन मंत्रों में सद्गुरू स्मरण एवं उनके घ्यान की महिमा है। गुणों के बिना स्मरण एवं रूप के बिना ध्यान आसान नहीं हैं। इसलिए शिष्यों को अपने गुरूदेव के नाम का स्मरण उनके गुणों के चिन्तन के साथ करना चाहिए। इसी तरह उन प्रभु का ध्यान उनके स्वरूप को याद करते हुए भक्तिपूर्वक करना चाहिए। शिष्य के जीवन में यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहनी चाहिए। ऐसा होते रहने पर शिष्य का अस्तित्व स्वयं ही गुरूदेव की चेतना में घुलता रहता है। जिन्होंने ऐसा किया है या फिर कर रहे हैं, वे इससे होने वाली अनुभूतियों व उपलब्धियों के स्वाद से परिचित हैं।
      ऐसे ही एक सिद्ध तपस्वी हुए हैं- बाबा माधवदास। गंगा किनारे बसे गाँव वेणुपुर में उन्होंने गहन साधना की। गाँव वाले उनके बारे में बस उतना बता पाते हैं कि बाबा जब गाँव में आए थे, तब उनकी आयु लगभग ४० साल की रही होगी। सामान के नाम पर उनके पास कुछ खास था नहीं। बस आए और गाँव के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे जम गए। बाद में गाँव वालों ने उनके लिए कुटिया बना दी। बाबा माधवदास की एक ही साधना थी- गुरूभक्ति। इसी ने इन्हें साधना के शिखर तक पहुँचाया था। जब तक उनके गुरूदेव थे, उन्होंने उनकी सेवा की। उनकी आज्ञा का पालन किया। बाद में उनके शरीर छोड़ने पर उन्हीं की आज्ञा से इस गाँव में चले आए। 
     चर्चा में गाँव वालों को उन्होंने बताया कि उनके गुरूदेव कहा करते थे कि साधु पर भी समाज का ऋण होता है। सो उसे चुकाना चाहिए। क्या ही अच्छा हो कि एक- एक साधु एक- एक गाँव में जाकर ज्ञान की अलख जगाए। गाँव के लोगों को शिक्षा और संस्कार दे। उन्हें आध्यात्मिक जीवन दृष्टि प्रदान करे। अपने गुरू के आदेश के अनुसार वे सदा इन्हीं कामों में लगे रहते थे। जब गाँव वाले उनसे पूछते कि वह इतना परिश्रम क्यों करते हैं? तो वे कहा करते कि गुरू का आदेश के अनुसार ही जीने का संकल्प लिया है। 
     बाबा माधवदास वेणुपुर में लोगों से कहा करते थे, श्रद्धा का मतलब है- समर्पण। यानि कि निमित्त मात्र हो जाना। मन में इस अनुभूति को बसा लेना कि मैं नहीं तू। गुरूभक्ति का मतलब है कि हे गुरूदेव अब मैंने स्वयं को समाप्त कर दिया है, अब तुम आओ और मेरे हृदय में विराजमान हो जाओ। अब मैं वैसे ही जीऊँगा, जैसे कि तुम जिलाओगे। अब मेरी कोई मरजी नहीं, तुम्हारी मरजी ही मेरी मरजी है। माधवदास जैसा कहते थे, वैसा ही उनका जीवन भी था। उनका कहना था कि शिष्य जिस दिन अपने आप को शव बना लेता है, उसी दिन उसके गुरूदेव उसमें कर उसे शिव बना देते हैं। 
     जिस क्षण शिष्य का अस्तित्व मिट जाता हैं, उसमें सद्गुरू प्रकट हो जाते हैं। फिर सारी साधनाएँ स्वयं होने लगती हैं, सभी तप स्वयं होने लगते हैं। शिष्य को यह बात हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि सत्कर्म एक ही है, जिसे हमने न किया हो, बल्कि हमारे माध्यम से स्वयं गुरूदेव ने किया हो। जो भक्ति अहंकार को लेकर बहता है, वह कभी पवित्र नहीं हो सकता। उसके प्रवाह के सान्निध्य में कभी तीर्थ नहीं बन सकते। शिष्य के करने लायक एक ही यज्ञ है- अपने अहं को भस्म कर देना। समझने की बात यह है कि धूप में खड़े होना अथवा भूखे मरने का नाम तपस्या करना है। शिष्य धर्म को निभाने वाले बाबा माधवदास सारे जीवन यही तप करते रहे। इसी महातप से उनका अस्तित्व जन- जन के लिए वरदान बन गया। पर यदि कोई उनसे उनकी उपलब्धियों की बात करते, तो वे हँस पड़ते और कहते और मैं हूँ ही कहाँ, ये तो गुरूदेव हैं, जो इस शरीर को चला रहे हैं और अपने कर्म कर रहे हैं। इस सत्य के नूतन आयामों को अगले मंत्रों में स्पष्ट किया गया है।
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