गुरुगीता

गुरू भक्ति की सिद्धि सर्वोपरि सबसे बड़ी

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     गुरूगीता गुरूभक्त शिष्यों के लिए कल्पतरू है। इसकी छाँव तले सांसारिक सुख- सम्पदाएँ ,आध्यात्मिक ऐश्वर्य ,मोक्ष सभी कुछ मिलता है। गुरूगीता के सविधि अनुष्ठान से बड़े से बड़े दुस्तर संकट कटते हैं। असहनीय पीड़ाओं से छुटकारा मिलता है। श्रद्धा हो, शिष्यत्व हो, सद्गुरू का आश्रय हो, तो गुरूगीता से असम्भव- सम्भव बन पड़ते हैं। विन्घ- बाधाएँ सांसारिक हों या आध्यात्मिक गुरूगीता से सभी का निराकरण ,समाधान सम्भव है। इसी कारण सभी महासिद्धों, सत्पुरूषों ने इसे चमत्कारों का सारभूत पुंज कहा है। जो इसका आश्रय लेते हैं, उनके जीवन में निराशाएँ हटती हैं एवं आशाओं की किरणें झिलमिलाती हैं। 
     गुरूगीता के पिछले क्रम में इसी सत्य की सार प्रस्तुति की गयी है। भगवान् सदाशिव ने गुरूगीता के मर्म को बताने के साथ भगवती जगदम्बा को अनुष्ठान में आसन की महिमा से अवगत कराया है। शिव वचनों के अनुसार वस्त्रासन पर साधना करने से दरिद्रता आती है। पत्थर पर साधना करने से रोग होते हैं। धरती पर बैठकर साधना करने से दुःख होते हैं, काष्ठासन पर की गयी साधना निष्फल होती है। जबकि काले हरिण के चर्म पर साधना करने से ज्ञान मिलता है, व्याघ्र चर्म पर की गयी साधना मोक्षदायक है। कुश का आसन ज्ञान को सिद्ध करता है, जबकि कम्बल पर बैठकर साधना करने से सर्वसिद्धियाँ मिलती हैं। इस कथन के साथ ही भगवान् भोलेनाथ का उपदेश यह है- अपना कल्याण चाहने वाले साधक को गुरूगीता का अनुष्ठान कुश, दूर्वा अथवा श्वेत कम्बल के आसन पर बैठकर करना उचित है। 
इस प्रकरण को आगे बढ़ाते हुए भगवान् शिव माँ भगवती से कहते हैं- 

मोहनं सर्वभूतानां बंधमोक्षकरं भवेत्। 
देवराजप्रियकरं सर्वलोकवशं भवेत्॥ १४२॥ 
सर्वेषां स्तम्भनकरं गुणानां च विवर्धनम्। 
दुष्कर्मनाशनं चैव सुकर्मसिद्धिदं भवेत्॥१४३॥ 
असिद्धं साधयेत्कार्यं नवग्रहभयावहम्। 
दुःस्वप्रनाशनं चैव सुस्वन्पफलदायकम्॥ १४४॥ 
सर्वशान्तिकरं नित्यं तथा वंध्यासुपुत्रदम्। 
अवैधव्यकरं स्त्रीणां सौभाग्यदायकं सदा॥१४५॥ 

     गुरूगीता की साधना सभी प्राणियों का सम्मोहन करने वाली है। इससे सभी बन्धनों से छुटकारा मिलता है इससे देवराज की प्रीति मिलती है और सभी लोकों के प्राणी वश में होते हैं॥१४२॥ इससे सभी शत्रुओं एवं दुर्गुणों का स्तम्भन होता है। गुणों की अभिवृद्धि होती है। गुरूगीता की यह साधना दुष्कर्मों का नाश करके सत्कर्मों की सिद्धि देती है॥ १४३॥ इस साधना से असाध्यकार्य साध्य होते हैं एवं नवग्रहों की पीड़ा दूर होती है। दुःस्वन्पों का फल नष्ट होता है, सुस्वप्नों का सुफल मिलता है॥ १४४॥ इस साधना से नित्य सभी प्रकार की शान्ति होती है, वन्ध्या स्त्री इस साधना के द्वारा पुत्रवती बनती है। स्त्री इस साधना द्वारा अपने वैधव्य का निवारण करके सौभाग्य को चिरस्थायी बनाती है॥ १४५॥ 
     भगवान् शिव के ये वचन संसार के असह्य कष्टों से संतप्त जनों के लिए गुरू उपदेश के समान है। इनके अनुसरण से मनुष्य न केवल स्वयं विपत्तियों से छूट सकता है, बल्कि औरों की भी सार्थक सहायता कर सकता है। बस गुरूगीता की सुखद् छाँव में आश्रय लेने भर की बात है। इस प्रसंग में एक बड़ी ही प्यारी अनुभूति कथा है। समर्थ गुरू रामदास के शिष्य स्वामी कल्याण गोदावरी नदी से कुछ कोस दूर एक गाँव में ठहरे हुए थे। अपने सद्गुरू के नाम की अलख जगाते हुए सत्प्रवृत्तियों का प्रसार करना उनका व्रत था। जय- जय रघुवीर समर्थ, को उच्चस्वर से पुकारते हुए जब वह ग्राम वीथियों से गुजरते ,तो लोग बरबस उन्हें घेर लेते। उनके पास आश्चर्यजनक सिद्धियाँ तो नहीं थीं, पर गुरूकृपा का बल था। अपने गुरू पर उनका सम्पूर्ण विश्वास ही उनकी सबसे बड़ी पूँजी थी। उनकी भक्तिपूर्ण बातें लोगों में चेतना की नयी लहरें पैदा करती। 
      ग्रामवासी स्वामी कल्याण के वचनों से आह्लादित थे। उन्हें जीवन की नयी दिशा मिल रही थी। परन्तु रूढ़िवादी साधु और कई तांत्रिक उनकी इन बातों से प्रसन्न नहीं थे, क्योंकि कल्याण स्वामी के वचनों ने जन जीवन में इतनी जागृति पैदा कर दी थी कि इन सभी का व्यवसाय बन्द होने लगा था। कर्म के सिद्धान्त पर विश्वास करने लगा जन- जीवन सत्कार्यों में प्रवृत्त होने लगा था। चमत्कारों की ओछी बाजीगरी से उसे उकताहट होने लगी थी। जन मानस की यह स्थिति अपने को सिद्ध कहने वाले तांत्रिकों को रास नहीं आयी। उन्होंने कल्याण स्वामी के प्रति अनेकों षड्यंत्र रचने शुरू कर दिये। वे सब मिलकर किसी भी तरह जन- जीवन की नजर में उन्हें अप्रमाणिक एवं अयोग्य साबित करना चाहते थे। 
     जब उनके सामान्य उपक्रम असफल साबित हुए, तो उन्होंने अपनी चमत्कारी सिद्धियों का सहारा लिया। इन सिद्धियों के बल पर उन्होंने गाँव के तालाबों, कुआँ, बावड़ियों का जल सुखा दिया। इस तांत्रिक अत्याचार से सामान्य जनता पानी के लिए तरसने लगी। मनुष्य एवं पशुओं का जीवन बिना पानी के विपन्न हो गया। बिलखते बच्चे ,परेशान गृहणियों की जिन्दगी दूभर हो गयी। परेशान गाँववासी कल्याण स्वामी के यहाँ गये। पर वे करते भी क्या? उनके पास ऐसी कोई सिद्धि नहीं थी, जिससे समस्या का हल हो सके। इधर इन कु्रर तांत्रिकों ने उनका और उनके गुरू का अपमान करना प्रारम्भ कर दिया। गाँव वालों को जितना सम्भव था। 
     कल्याण स्वामी के लिए स्वयं के अपमान का तो कोई मोल नहीं था, पर गुरू का अपमान उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ। ग्रामीण जनों की दुर्दशा भी उनसे देखी न गयी। आखिर में उन्होंने गुरूगीता एवं गुरूमंत्र का आश्रय लेने की सोची। ग्रामवासियों के कल्याण के लिए उन्होंने कठिन उपवास करते हुए गायत्री महामंत्र से सम्पुटित करके गुरूगीता का अनुष्ठान प्रारम्भ किया। प्रगाढ़ तप में उनके दिन बीतते ।। प्रार्थना में उनकी रातें व्यतीत होतीं। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। एक रात प्रार्थना करते समय उनकी भाव चेतना समर्थ सद्गुरू के चरणों में विलीन होने लगी। उनके हृदय में बस एक ही आर्त पुकार थी, हे सद्गुरू! इन निर्दोष ग्रामीण जनों की रक्षा करो। 
     भक्त की पुकार गुरूदेव अनसुनी न कर सके। उनकी परावाणी कल्याण स्वामी की अंतर्चेतना में गूँज उठी, चिंता न कर, माँ गोदावरी से प्रार्थना कर, उनको मेरा संदेश देना, उन्हें कहना मेरे गुरू ने आपको ग्रामीण जनों के कल्याण के लिए आमंत्रित किया है। समर्थ गुरू का यह विचित्र सा संदेश कल्याण स्वामी को ठीक से समझ नहीं आया। फिर भी वे अपने गुरूभक्ति की धुन में माँ गोदावरी के पास गये और उन्होंने गुरू का संदेश सुनाते हुए ग्रामवासियों का जल संकट दूर करने के लिए प्रार्थना की। इतना ही नहीं गोदावरी से एक लकीर खींचते हुए गाँव में आ गये। 
     उनके उस कार्य का तांत्रिकों ने बड़ा मजाक उड़ाया। लेकिन सबको आश्चर्य तो तब हुआ, जब उन्होंने देखा कि पानी से खाली गाँव कुएँ, तालाब, बावड़िया फिर से पानी से भर गये हैं। माँ गोदावरी प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं बहती रही, किन्तु उनकी अंतर्धारा ने गाँव आकर सबका कष्ट दूर कर दिया। गाँव वालों ने गुरूभक्ति का यह प्रत्यक्ष चमत्कार देखा और उन सबने स्वीकार किया, किसी भी मांत्रिक- तांत्रिक सिद्धि से गुरूभक्ति की सिद्धि बड़ी है। गुरूभक्ति से बड़कर न तो कोई सिद्धि और न शक्ति।

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