गुरूगीता के मंत्र शिष्यों के अन्तर्मन को कषाय- कल्मष से मुक्त करते हैं। इसमें भक्ति की धारा बहाकर सद्गुरू की भावचेतना से जोड़ते हैं। शिष्य का अन्तर्मन जब तक कलुषित है, कल्मष से लथ- पथ है तब तक उसे सद्गुरू की सत्ता का सार्थक बोघ नहीं हो पाता। यहाँ तक कि लौकिक -सांसारिक दृष्टि से उनके पास रहकर भी आध्यात्मिक दृष्टि से वह उनसे कोसों दूर रहता है। देह की दृष्टि से भले ही वह गुरूदेव से कितना ही नजदीक रहे, पर आत्मा की दृष्टि से उनसे अपरिचित बना रहता है। यह अपरिचय- परिचय में बदले। परिचय प्रगाढ़ता में परिवर्तित हो और प्रगाढ़ता पवित्र भावनाओं में बदल जाए इसके लिए गुरूगीता के मंत्रों की साधना सर्वोत्तम उपाय है।
शिष्यों के मन के मैल को धोने वाली गुरूगीता के पूर्व मंत्र में चेताया गया है कि देव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व कोई भी गुरू से विमुख होने पर किसी को मोक्ष नहीं मिलता। भगवान् शिव के वचन हैं कि गुरूदेव का ध्यान सभी तरह के आनन्द का प्रदाता है। इससे सांसारिक सुखों के साथ मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। इसलिए प्रत्येक शिष्य का यह पावन संकल्प होना चाहिए कि मैं अपने सद्गुरू का घ्यान करूँगा। ये गुरूदेव ब्रह्मानन्द का परम सुख देने वाले, द्वन्द्वातीत एवं सभी भावों से परे हैं। ये प्रभु नित्य, शुद्ध, निराभास, निराकार एवं माया से परे हैं। उन्हें मेरा नित्य नमन है।
अपने इन कृपालु सद्गुरू को किस भाँति ध्यायें? किस तरह उनकी धारणा करें? इस साधना विधान को स्पष्ट करते हुए भगवान् सदाशिव माता भवानी से कहते हैं-
हृदंबुजे कर्णिकमध्यसंस्थे
सिंहासनेसंस्थितदिव्यमूर्तिम्।
ध्यायेद्गुरूं चन्द्रकलाप्रकाशं
चित्पुस्तकाभीष्टवरं दधानम्॥९१॥
श्वेताम्बरं श्वेतविलेपपुष्पं
मुक्ताविभूषं मुदितं द्विनेत्रम्।
वामांङ्कपीठस्थितदिव्यशक्तिं
मन्दस्मितं सांद्रकृपानिधानम्॥९२॥
(शिष्य धारणा करें) उसके हृदय कमल की कर्णिकाओं के बीच स्थित सिंहासन में गुरूदेव की दिव्यमूर्ति विराजमान है। इस दिव्यमूर्ति से शुभ्र चाँदनी सा प्रकाश विकीर्ण हो रहा है। इन सद्गुरूदेव के एक हाथ में पुस्तक है और दूसरे हाथ वर प्रदान करने की मुद्रा में ऊपर उठा है॥ ९१॥सद्गुरूदेव श्वेत वस्त्र पहने हुए हैं, उन्होंने श्वेत लेप धारण किया है। वे श्वेत पुष्प एवं मोतियों की माला से अलंकृत हैं। उनके दोनों नेत्रों से आनन्द छलक रहा है। उनके वामभाग में उनकी लीला सहचरी दिव्य शक्ति माँ विद्यमान हैं। ऐसे मधुर मधुमय मुस्कान बिखेरने वाले गुरूदेव का ध्यान करना चाहिए॥ ९२॥
गुरूगीता के इन मंत्रों में सद्गुरू के ध्यान की विशिष्ट विधि है। इस विधि का एक खास मकसद है। जिसे ध्यान के सूक्ष्म ज्ञाता जान सकते हैं। जो ध्यान के अर्थ व सत्य से परिचित हैं, वे जानते हैं कि ध्यान मात्र एकाग्रता नहीं है। यह आत्मशोधन की प्रक्रिया के साथ अपनी कल्पनाओं व कामनाओं के अनुसार ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के नियंत्रण व नियोजन की विधि है। हमारी चाहत क्या है? इसी के अनुसार ध्यान का विधान तय किया जाता है। ध्यान के उग्र रूप शत्रु संहार के लिए होते हैं। ध्यान में राजस भाव की प्रगाढ़ता वैभव एवं समृद्धि देती है। ध्यान का परम सात्त्विक सौम्य रूप ज्ञान देने वाला होता है। गुरूगीता में वर्णित इस ध्यान विधि में सात्त्विक एवं राजस रूप का मिश्रित भाव है गुरूदेव के श्वेत वस्त्र सात्त्विक भाव को प्रगाढ़ करते हैं, किन्तु उनका मोतियों की माला एवं पुष्प से अलंकृत स्वरूप राजस भाव की वृद्धि करता है। इन दोनों भावों के मिश्रण से ध्यान का यह स्वरूप ज्ञान व मोक्ष देने के साथ लौकिक व सांसारिक ऐश्वर्य को भी देने वाला है।
बंगाल में एक सन्त हुए अवधूत तारानाथ, इन्होंने ध्यान की अलग- अलग तकनीकों का विकास किया है। अवधूत तारानाथ महान् योगी होने के साथ उच्चकोटि के तंत्र साधक भी थे। उन्होंने तंत्र एवं योग के मिश्रण से ध्यान साधना पर गम्भीर अन्वेषण किए। उनका कहना था कि एक देवता के सैकड़ों- सहस्त्रों मंत्र होते हैं। कामना, कल्पना एवं संकल्प की दृष्टि से प्रत्येक मंत्र देवता के स्वरूप एक भिन्न आयाम को प्रकाशित- परिभाषित करता है। इनमें से साधक अपनी साधना के लिए जिस भी मंत्र का चयन करता है, उस मंत्र की प्रकृति के अनुरूप उसमें योग के ऐश्वर्य का विकास होता है।
ध्यान के सम्बन्ध में भी यही यथार्थ है। एक ही देवता के विविध ध्यान होते हैं। जो साधक की अलग- अलग भावनाओं एवं विचारों को मूर्त करते हैं। अवधूत तारानाथ सभी तरह की ध्यान प्रक्रिया में गुरू ध्यान को विशेष महत्ता देते थे। उनका कहना था कि गुरूदेव सर्वदेव, देवीमय हैं। उनके ध्यान से सभी का ध्यान हो जाता है। साधक के जीवन में सारे सुफल आ जाते हैं। उन्होंने स्वयं अपनी साधना इसी विधि से सम्पन्न की। उनका जन्म बंगाल के एक गाँव में हुआ था। जन्म के थोड़े दिनों में ही उनके माता- पिता का देहान्त हो गया। अनाथ बालक बेचारा असहाय की भाँति इधर- उधर भटकने लगा।
तभी उनकी भेंट माँ तारा के परम भक्त वामाखेपा से हुई। वामाखेपा की चेतना सदा माँ में लीन रहती थी। उनकी दृष्टि जब इस बालक पर पड़ी, तो उन्होंने इसे माँ की शरण में जाने की सलाह दी। पर इस अनाथ बालक को अपना सब कुछ इन्हीें में नजर आया। उन्होंने बड़े ही सरल भाव से कहा- बाबा, आपके लिए सब कुछ माँ हैं। पर मेरे लिए मेरे सब कुछ आप हैं। मैं आपकी ही शरण में आऊँ गा। बालक की इन भोली बातों पर वामाखेपा हँस दिय। पर उस बालक ने वामाखेपा को अपना गुरूदेव एवं इष्ट सब कुछ मान लिया।
माँ तारा के मन्दिर से थोड़ी दूरी पर उसने अपनी साधना प्रारम्भ कर दी। गुरू का ध्यान, उनका चिन्तन एवं गुरू की सेवा। कर्म, विचार व भावनाओं का प्रवाह नित्य निरन्तर सद्गुरू की दिशा में बह चला। वृत्तियाँ गुरूदेव में तदाकार होने लगीं। एक कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को जब आकाश में पूर्णचन्द्र उदित हो गया। स्वयं वामाखेपा उसके अन्तराकाश में हँस रहे थे। उनकी परावाणी के स्वर अवधूत तारानाथ के कण- कण में समा रहे थे- बेटा! गुरू ही इष्ट है, इष्ट ही गुरू है। गुुरू के ध्यान से सब कुछ मिल जाता है। यही सच है। सद्गुरू की यह कृपा अवधूत तारानाथ के जीवन में घनीभूत हो गयी। उन्हें अपनी गुरू- भक्ति से साधना जीवन का सार मिल गया।