गुरुगीता

गुरूचरणों की रज कराए भवसागर से पार

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     गुरूगीता का गायन शिष्यों के अन्तर्मन को गुरूभक्ति से भिगोता है उनके हृदय में सद्गुरू समर्पण के स्वर फूटते हैं। मन- प्राण में गुरूवर के लिए अपने सर्वस्व को न्योछावर करने की उमंग जगती है। अन्तर्चेतना में सद्गुरू की चेतना झलकने और लगती है। जिन्होंने भी गुरूगीता की अनुभूति पायी है- सभी का यही मत है। साधनाएँ अनेक हैं, मत और पथ भी अनगिनत हैं ; पर गुरूभक्तों के लिए यही एक मंत्र है- अपने गुरूदेव का नाम। उनका एक ही कर्म है, अपने गुरूवर के प्रति समर्पण का भाव। जिन्दगी के सारे रिश्ते- नाते, सभी सम्बन्ध गुरूदेव में ही हैं। उनके सिवा त्रिभुवन में न कोई सत्य है और न कोई तथ्य। 
     उपर्यक्त मंत्रों में भगवान् भोलेनाथ के इन वचनों को हमने पढ़ा है कि दुःख देने वाले, रोग उत्पन्न करने वाले प्राणायाम का भला क्या प्रयोजन है? अरे ! गुरूवर की चेतना के अन्तःकरण में उदय होने मात्र से बलवान वायु तत्क्षण स्वयं प्रशमित हो जाती है। ऐसे गुरूदेव की निरन्तर सेवा करनी चाहिए; क्योंकि इससे सहज ही आत्मलाभ हो जाता है। अपने गुरूदेव के स्वरूप का थोड़ा सा कीर्तन भी शिव- कीर्तन के बराबर है। सद्गुरू का स्मरण और उन्हें ही समर्पण- शिष्यों के जीवन का सार है। इस सरल; किन्तु समर्थ साधना से उन्हें सब कुछ अनायास ही मिल जाता है। 
     गुरू भक्ति की इस साधना महिमा के अगले क्रम को स्पष्ट करते हुए भगवान् सदाशिव जगन्माता पार्वती से कहते हैं- 

यत्पादरेणुकणिका काऽपि संसारवारिधेः। 
सेतुबंधायते नाथं देशिकं तमुपास्महे॥ ५५॥ 
यस्मादनुग्रहं लब्ध्वा महदज्ञानमुत्सृजेत्। 
तस्मै श्रीदेशिकेन्द्राय नमश्चाभीष्टसिद्धये॥ ५६॥ 

      गुरूदेव की कृपा को उद्घाटित करने वाले इन मन्त्रों में अनगिनत गूढ़ अनुभूतियाँ समायी हैं। इन अनुभूतियों को गुरूभक्तों की भावचेतना में सम्प्रेषित करते हुए भगवान् महादेव के वचन हैं- गुरूदेव की चरण धूलि का एक छोटा सा कण सेतुबन्ध की भाँति है। जिसके सहारे इस महाभवसागर को सरलता से पार किया जा सकता है। उन गुरूदेव की उपासना मैं करूँगा, ऐसा भाव प्रत्येक शिष्य को रखना चाहिए॥ ५५॥ जिनके अनुग्रह मात्र से महान् अज्ञान का नाश होता है। वे गुरूदेव सभी अभीष्ट की सिद्धि देने वाले हैं। उन्हें नमन करना शिष्य का कर्त्तव्य है॥ ५६॥ 
      गुरूगीता के इन महामन्त्रों के अर्थ गुरूभक्त शिष्यों के जीवन में प्रत्येक युग में, प्रत्येक काल में प्रकट होते रहे हैं। प्रत्येक समय में शिष्यों ने गुरूकृपा को अपने अस्तित्व में फलित होते हुए देखा है। ऐसा ही एक उदाहरण लक्ष्मण मल्लाह का है, जो अपने युग के सिद्ध सन्त स्वामी भास्करानन्द का शिष्य था। काशी निवासी सन्तों में स्वामी भास्करानन्द का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है। सन्त साहित्य से जिनका परिचय है, वे जानते हैं कि अंग्रेजी के सुविख्यात साहित्यकार मार्क ट्वेन ने उनके बारे में कई लेख लिखे थे। जर्मनी के सम्राट् कैसर विलियम द्वितीय, तत्कालीन प्रिंस ऑफ वेल्स स्वामी जी के भक्तों में थे। भारत के तत्कालीन अंग्रेज सेनपति जनरल लूकार्ट, तो उन्हें अपना गुरू मानते थे। इन सब विशिष्ट महानुभावों के बीच यह लक्ष्मण मल्लाह भी था। जो न तो पढ़ा लिखा था और न ही उसमें कोई विशेष योग्यता थी ; लेकिन उसका हृदय सदा ही अपने गुरूदेव के प्रति विह्वल रहता था। 
     भारत भर के प्रायः सभी राजा- महाराजा स्वामी जी की चरण धूलि लेने में अपना सौभाग्य मानते थे। स्वयं मार्क ट्वेन ने उनके बारे में अपनी पुस्तक में लिखा था- भारत का ताजमहल अवश्य ही एक विस्मयजनक वस्तु है, जिसका महनीय दृश्य मनुष्य को आनन्द से अभिभूत कर देता है, नूतन चेतना से उद्बुद्ध कर देता है ; किन्तु स्वामी जी के समान महान् एवं विस्मयकारी जीवन वस्तु के साथ उसकी क्या तुलना हो सकती है। स्वामी जी के योग ऐश्वर्य से सभी चमत्कृत थे। प्रायः सभी को स्वामी जी अनेक संकट- आपदाओं से उबारते रहते थे; लेकिन लक्ष्मण मल्लाह के जप, यही उसके लिए सब कुछ था। 
     श्रद्धा से विभोर होकर उसने स्वामी भास्करानन्द की चरण धूलि इकट्ठा कर एक डिबिया में रख ली थी। स्वामी जी के खड़ाँऊ उसकी पूजा बेदी में थे। इनकी पूजा करना, गुरू चरणों का ध्यान करना और गुरू चरणों की रज अपने माथे पर लगाना उसका नित्य नियम था। इसके अलावा उसे किसी और योगविधि का पता न था। कठिन आसन, प्राणायाम की प्रक्रियाएँ उसे नहीं मालूम थी। मुद्राओं एवं बन्ध के बारे में भी उसे बिलकुल पता न था। किसी मंत्र का उसे कोई ज्ञान न था। अपने गुरूदेव का नाम ही उसके लिए महामंत्र था। इसी का वह जाप करता, यदा- कदा इसी नाम धुन का वह कीर्तन करने लगता। 
     एक दिन प्रातः जब वह रोज की भाँति गुरूदेव की चरण रज माथे पर धारण करके गुरूदेव का नाम जप करता हुआ उनके चरणों का चिन्तन कर रहा था, तो उसके अस्तित्व में कुछ आश्चर्यकारी एवं विस्मयजनक दृश्यावलि प्रकट हो गयी। उसने अनुभव किया कि दोनों भौहों के बीच गोल आकार का श्वेत प्रकाश बहुत ही सघन हो गया है। यूँ तो यह प्रकाश पहले भी कभी- कभी झलकता था। यदा- कदा सम्पूर्ण साधनावधि में भी यह प्रकाश बना रहता था; पर आज उसकी सघनता कुछ ज्यादा ही थी। उसका आश्चर्य और भी ज्यादा तो तब हुआ, जब उसने देखा कि गोल आकार के श्वेत प्रकाश में एक हलका सा विस्फोट सा हो गया है और उसमें श्वेत कमल की दो पंखुड़ियाँ खुल रही हैं। 
      गुरू नाम की धुन के साथ ही ये दोनों श्वेत पंखुड़ियाँ खुल गयी और उसके अन्दर से प्रकाश की सघन रेखा उभरी। इसी के पश्चात् उसे अनायास ही अपने आश्रम में स्वामी भास्करानन्द ध्यानस्थ बैठे हुए दिखाई दिए। योग विद्या से अनभिज्ञ लक्ष्मण मल्लाह को यह सब अचरज भरा लगा। दिन में जब वह गुरूदेव को प्रणाम करने गया, तो उसने सुबह की सारी कथा कह सुनायी। लक्ष्मण की सारी बातें सुनकर स्वामी जी मुस्कराए ओर बोले- बेटा! इसे आज्ञा चक्र का जागरण कहते हैं। अब से तुम जब भी भौहों के बीच में मन को एकाग्र करके जिस किसी स्थान वस्तु या व्यक्ति का संकल्प करोगे, वही तुम्हें दिखने लगेगा। 
     स्वामी जी के इस कथन के उत्तर में लक्ष्मण मल्लाह ने कहा- हे गुरूदेव, मैं तो सदा- सदा आपको ही देखते रहना चाहता हूँ। मुझे तो इतना मालूम हे कि मैं आपके चरणों की धूलि को अपनी भौहों के बीच में लगाया करता था। यह जो कुछ भी है, आपकी चरण धूलि का चमत्कार है। अब तो यह नयी बात जानकर मेरा विश्वास हो गया हे कि गुरूचरणों की धूलि से शिष्य आसानी से भवसागर पार कर सकता है। लक्ष्मण मल्लाह की यह अनुभूति हम सब गुरूभक्तों की अनुभूति भी बन सकती है। बस उतना ही सघन प्रेम एवं उत्कट भक्ति चाहिए। असम्भव को सम्भव करने वाली गुरूवर की चेतना की महिमा अनन्त है। 

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