गुरुगीता

गुरूगीता का प्रत्येक अक्षर मंत्रराज है

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
     गुरूगीता परम दिव्य शास्त्र है। इसका अर्थ एवं इसके शब्द दोनों ही दिव्य हैं। इसके अर्थ में परम गम्भीर एवं गूढ़ तत्त्वज्ञान की झाँकी है। आध्यात्मिक साधना के शिखर अनुभवों की झलक है। इतना ही नहीं, गुरूगीता के अर्थ में ज्ञान, कर्म व भक्ति तथा हठ एवं राजयोग की दुर्लभ साधनाएँ प्रकाशित होती हैं। इनमें से किसी एक साधना विधि का साधन करने वाला आध्यात्मिक जीवन की दुर्लभ, दुर्लभतर एवं दुर्लभतम विभूतियों को पा सकता है। ऐसा कहने का आधार लेखकीय कल्पना नहीं, वरन् शास्त्रों व सन्त जीवन चरित का स्वाध्याय व अध्यात्म पुरूषों के सत्संग का अनुभव है। यह सत्य इतना प्रामाणिक है, जिसे कोई साधक अपने स्वयं के अनुभव में बदल सकता है। कतिपय भाग्यशाली ऐसा कर भी रहे है। 
     अर्थ जितनी ही दिव्यता- गुरूगीता के शब्दों और अक्षरों में है। हालाँकि यह सत्यबुद्धि एवं सभी तर्कों से परे है। सच तो यही है कि गुरूगीता के अक्षरों व शब्दों के महत्त्व को जानना, समझना, इसके अर्थ को समझने से ज्यादा दुष्कर व दुरूह है। क्योंकि अर्थ में तो तर्क, दर्शन एवं ज्ञान का संयोजन है। इसे बुद्धि एवं अन्तर्प्रज्ञा से जाना जा सकता है। परन्तु अक्षरों व शब्दों के संयोजन में छुपी हुई दिव्यता को पहचानना केवल श्रद्धासिक्त हृदय से ही सम्भव है। इसी बलबूते पर गुरूगीता की यह मांत्रिक सामर्थ्य प्रकट होती है। गुरूगीता का सम्पूर्ण ग्रन्थ अपने आप में मंत्रशास्त्र है। इसके कई दुर्लभ प्रयोग हैं, जो अलग -अलग ढ़ंग से सिद्ध एवं सम्पन्न किए जाते हैं। इस क्रम में महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि इसे जानने वाले भी विरल एवं दुर्लभ हैं। साधकों एवं सिद्धों के समुदाय में विरल जन ही ऐसे हैं, जो मंत्रमयी गुरूगीता के मंत्रों का प्रयोग करने की सामर्थ्य रखते हैं। 
     हालाँकि गुरूगीता में इसके पर्याप्त संकेत मिलते हैं। गुरूगीता के पिछले क्रम में भी कुछ ऐसे ही गूढ़ निर्देशों की चर्चा की गयी है। इसमें भगवान् सदाशिव ने जगन्माता भवानी को बताया है कि हे देवि! गुरूगीता द्वारा उपदेशित मार्ग ही मुक्तिदायक है। लेकिन इन सभी साधनाओं का उपयोग साधक को लोक कल्याण के लिए करना चाहिए, न कि लौकिक कामनाओं को पूरा करने के लिए। जो ज्ञानहीन लोग इन महत्त्वपूर्ण ,दुर्लभ एवं गोपनीय साधनाओं का उपयोग सांसारिक कामों के लिए करते हैं, उन्हें बार- बार भवसागर में गिरना पड़ता है। परन्तु जो ज्ञानी अपनी निष्कामता क साथ इन साधनाओं का उपयोग करते हैं, वे सभी कर्म बन्धनों से मुक्त रहते हैं 
     इस परम रहस्यमयी गुरूकथा को आगे बढ़ाते हुए भगवान् भोलेनाथ माँ जगदम्बा से कहते हैं- 

इदं तु भक्तिभावेन पठते श्रृणुते यदि। 
लिखित्वा तत्प्रदातव्यं तत्सर्वं सफलं भवेत्॥ १३१॥ 
गुरूगीतात्मकं देवि शुद्धतत्त्वं मयोदितम्। 
भवव्याधिविनाशार्थं स्वयमेव जपेत्सदा॥ १३२॥ 
गुरूगीताक्षरैकं तु मंत्रराजमिमं जपेत्। 
अन्ये च विविधा मंत्राः कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥ १३३॥ 
अनन्तफलमाप्रोति गुरूगीताजपेन तु। 
सर्वपापप्रशमनं सर्वदारिद्रयनाशनम्॥१३४॥ 

     गुरूगीता का भक्तिपूर्वक पठन, श्रवण एवं इसका लेखन तथा दूसरों को इसे देने से सर्वसुफल प्राप्त होते हैं॥१३१॥ प्रभु कहते हैं- हे देवि! गुरूगीता रूपी इस शुद्ध तत्त्व को मैंने आपके सामने कहा है। इसका विधिपूर्वक जप सभी सांसारिक कठिनाइयों का विनाश करने वाला है॥ १३२॥ गुरूगीता का प्रत्येक अक्षर मंत्रराज है। अन्य सभी मंत्र मिलकर भी इसकी सोलहवीं कला भी नहीं हैं॥ १३३॥ इस गुरूगीता की मंत्रमाला के जप का अनन्तफल है। इसका पाठ करने वाला इस अनन्त फल को प्राप्त करता है। ऐसा करने से उसके सभी पापों का एवं सभी तरह की दरिद्रता का विनाश होता है॥१३४॥ 
     भगवान् शिव के इस कथन में गुरूगीता के मांत्रिक महत्त्व का संकेत है। इसमें इसके पाठ के महत्त्व का वर्णन है। जिस तरह से श्रीमद्भगवद्गीता स्वयं योगेश्वर कृष्ण के मुखारविन्द से उपदेशित होने के कारण सर्वशास्त्रमयी है, उसी तरह गुरूगीता सभी योगियों के परम आराध्य योगीश्वर भगवान् शिव के श्रीमुख से उच्चरित है। एक अर्थ में इसका महत्व श्रीमद् भगवत् गीता से भी बढ़कर है और वह इस तरह कि श्रीमद् भगवद्गीता के श्रोता के रूप में अर्जुन हैं, जो कि मोहग्रस्त एवं किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में इसे सुनना प्रारम्भ करते हैं। जबकि गुरूगीता की श्रोता भगवती आदिशक्ति जगदम्बा स्वयं हैं। जो कि सम्पूर्ण सृष्टि को अपने गर्भ में धारण करती हैं। जिनकी चित् शक्ति से ही यह सृष्टि चेतना एवं शक्ति प्राप्त करती है। 
     गुरूगीता के उपदेष्टा के रूप में स्वयं परात्पर महेश्वर, जिनसे सारे शास्त्र एवं योग मार्गों का उद्गम हुआ है और श्रोता के रूप में स्वयं भगवती जगज्जननी, जिनकी गोद में समूची सृष्टि आश्रय पाती है, इनके संवाद के रूप में उदय हुई गुरूगीता के मांत्रिक महत्त्व का यथार्थ विवरण दे पाना किसी भी साधक -सिद्ध के वश की बात नहीं है। हाँ, ऐसे महान् साधकों की अनुभूतियों के विवरण एवं वर्णन पढ़कर रोमाञ्चित, गद्गद्, पुलकित एवं प्रेरित हुआ जा सकता है। ऐसी ही प्रेरक एवं अनुभूतिपूर्ण कथा खाकी बाबा की है। 
     खाकी बाबा उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल के विख्यात सन्त हुए हैं इनकी योग विभूतियों की अनेक कथाएँ अभी भी पूर्वांचल के गाँवों में बड़ी श्रद्धा से कही- सुनी जाती है। खाकी बाबा का अधिकाशं समय कुसुमी के जंगल में बीता। हाँ अपने अन्तिम समय में वह अवश्य चित्रकूट चले गए। खाकी बाबा के अनेक कृपा पात्रों में मुस्लिम सन्त सैयद रोशन अलीशाह एवं उनके शिष्य सिराजउद्दीन का विशेष नाम आता है। भट्टमयूरवंशीय मझौली नरेश भी खाकी बाबा के कृपा पात्रों में थे। कहते हैं कि बाबा को आध्यात्मिक पथ पर स्वयं भगवान् सदाशिव चलाया था। उन्होंने स्वयं ही इन योगीराज को तारक मंत्र की दीक्षा दी थी। 
     कहते हैं कि बाबा की गहन आध्यात्मिक अभिरूचि थी। बचपन से ही उनका मन संसार में नहीं लगता था। पर कहाँ जाएँ? क्या करें? कोई मार्ग भी तो नहीं था। हारकर उन्होंने श्री दुर्गासप्तशती का आश्रय लिया। स्वयं भगवती रूपी सप्तशती का आश्रय लेकर माँ, जो कण- कण में अग- जग में है। एक दिन जब वे पाठोपरान्त माँ के ध्यान में बैठे, तो अद्भुत झलक मिली। उन्होंने देखा कि आकाश मार्ग से भगवान् भोलेनाथ माता जगदम्बा के साथ जा रहे हैं। माँ ने प्रभु से कहा- हे दयानिधान इस बालक का भी कल्याण करें। भगवान् शिव ने माँ की इन बातों को अनसुना कर दिया। कई बार के आग्रह के बाद उन्होंने केवल एक बात कही- देवि! यह अभी सत्पात्र नहीं है। अपने को सत्पात्र बनाने के लिए इसे अभी और भी बहुत कुछ करना है। ऐसा करके उन्होंने माँ से कुछ कहा।
     जो कहा गया- वह तो खाकी बाबा नहीं सुन- समझ पाए ; परन्तु उन्हें इतना अवश्य समझ में आया कि माँ उनसे कह रही हैं कि पुत्र तुम सद्गुरू प्राप्ति के लिए गुरूगीता का आश्रय लो। तुम्हारा सर्वविधि कल्याण होगा। बस, खाकी बाबा ने उस दिन से गुरूगीता का प्रातः, मध्याहृ सायं एवं तुरीय संध्या में पाठ प्रारम्भ कर दिया। ऐसा करते हुए उन्हें बरसों बीत गए। तब एक दिन तुरीय संध्या के समय यानि कि मध्यरात्रि की साधना के समय ध्यानावस्था में भगवान् शिव की झलक फिर मिली। इस बार प्रभु ने उन्हें स्वयं तारक मंत्र का उपदेश दिया। दयानिधान ने स्वयं दक्षिणामूर्ति रूप में उन्हें शिष्य के रूप में अंगीकार किया। अन्तश्चेतना में तारक मंत्र के प्रविष्ट होने के साथ उनकी कुण्डलिनी का उत्थापन हो गया और अनेक योग विभूतियाँ स्वयं ही प्रकट हो गयी।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118