गुरुगीता

गुरूकृपा से असंभव भी संभव है

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     गुरूगीता गुरूभक्ति का सुमधुर गायन है। सद्गुरू भक्ति से साधक को सब कुछ सहज, सुलभ हो जाता है। गुरू प्रेम की छाँव में रहने वाला शिष्य जीवन के सभी विन्घों- बाधाओं से अनायास ही सुरक्षित- संरक्षित रहता है। धन्य हैं वे लोग, जिनके अन्तःकरण में गुरू भक्ति का उदय हुआ है ; क्योंकि इसके उदय होने से साधक का अन्तःकरण सदा ही दिव्य आलोक से आलोकित रहता है। अध्यात्मविद्या की सभी रहस्यात्मक प्रक्रियाएँ अपने आप ही उसके अन्तःकरण में स्फुरित होती रहती हैं। अनेकों अलौकिक अनुभव उसे हर क्षण धन्य करते रहते हैं। इन पंक्तियों में जो कुछ कहा जा रहा है, वह केवल वैचारिक -तार्किक यथार्थ भर नहीं है, बल्कि समर्पण पथ पर चल पड़े साधकों के अनुभवों का सार है। इसे प्रत्येक साधक आज, अभी और इन्हीं क्षणों में अनुभव कर सकता है। 
     गुरू भक्ति की इस तत्त्व कथा के पिछले क्रम में परम पूज्य गुरूदेव के इसी चैतन्य तत्त्व की अनुभूति कराने का प्रयास किया गया है। गुरूदेव सृष्टि में चल रहे उत्पत्ति एवं प्रलय रूप नाटक के नित्य साक्षी हैं। वे प्रभु जिस भी दिशा में विराज रहे हों, उसी दिशा में शिष्य को भक्तिपूर्वक पुष्पाञ्जलि अर्पित करना चाहिए। श्री गुरूदेव ही परात्पर एवं परम गुरू हैं। तीनों नाथ गुरू उनमें समाए हैं। उन्हीं में गणपति का वास है। तन्त्र साधना के तीनों रहस्यमय पीठ उन्हीं में हैं। अष्ट भैरव ,विरंचि चक्र, सभी मण्डल, पंचवीर, नवमुद्राएँ, चौसठ योगिनियाँ, सभी मातृकाएँ उन गुरूदेव के ही चेतना मण्डल में अवस्थित हैं। साधना की जितनी भी प्रक्रियाएँ हैं, उन सभी का कोई भी महत्वपूर्ण तत्त्व उनसे अलग नहीं है। सभी कुछ उन्हीं शिष्यवत्सल प्रभु में समर्पित है। 
     गुरूदेव भगवान् के इस अध्यात्ममय स्वरूप को स्पष्ट करने के बाद भगवान् सदाशिव साधकों को निर्देश देते हैं कि अपने परम पूज्य गुरूदेव का आश्रय छोड़कर अन्य कहीं भी न भटको। वेदान्त एवं तन्त्र की किन्हीं रहस्यमय उलझनों में मत उलझो। सद्गुरू शरण में, सद्गुरू में सब कुछ है। इस तथ्य को और भी अधिक स्पष्ट स्वरों में बताते हुए देवाधिदेव महादेव आदिमाता पार्वती से कहते हैं- 

अभ्यस्तैः सकलैः सुदीर्घमनिलैः व्याधिप्रदैर्दुष्करैः 
प्राणायाम शतैरनेककरणै र्दुःखात्मकैर्दुजयैः। 
यस्मिन्नभ्युदिते विनश्यति बली वायुः स्वयं तत़्क्षणात् 
प्राप्तुं तत्सहजं स्वभावमनिशं सेवध्वमेकं गुरूम्॥ ५३॥ 
स्वदेशिकस्यैव शरीर चिन्तनं भवेदनन्तस्य शिवस्य चिन्तनं। 
स्वदेशिकस्यैव च नाम कीर्तनं भवेदनन्तस्य शिवस्य कीर्तनं॥ ५४॥ 

     गुरूदेव की आध्यात्मिक चेतना के रहस्य को प्रकट करने वाले ये मंत्र अपने फलितार्थ में रहस्यमय एवं गूढ़ होते हुए भी प्रक्रिया में अति सरल हैं। देवाधिदेव महादेव स्कन्दमाता जगदम्बा से कहते हैं, देवी! दुःख देने वाले ,रोग उत्पन्न करने वाले ,इद्रियों को पीड़ा पहुँचाने वाले, दुर्जय दीर्धश्वास की क्रिया रूपी सैकड़ौं की संख्या में प्राणायाम के अभ्यास का भला क्या सुफल है? अरे! जिनकी चेतना के अन्तःकरण में उदय होने मात्र से बलवान् वायु तत्क्षण स्वयं प्रशमित हो जाती है। ऐसे गुरूदेव की निरन्तर सेवा करनी चाहिए ; क्योंकि इस गुरूसेवा से सहज ही आत्मलाभ हो जाता है॥ ५३॥ अपने गुरूदेव के स्वरूप का थोड़ा सा भी चिन्तन भगवान शिव के स्वरूप के अनन्त चिन्तन के समान है। गुरूदेव के नाम का थोड़ा सा भी कीर्तन भगवान् शिव के अनन्त नाम कीर्तन के बराबर है॥ ५४॥ 
     गुरूगीता के इन मन्त्रों के अर्थ को अधिक स्पष्ट रीति से समझने के लिए गुरूभक्ति साधना की एक सत्यकथा साधकों के समक्ष प्रस्तुत है। यह कथा आदि गुरू शंकराचार्य एवं उनके शिष्य तोटकाचार्य से सम्बन्धित है। आचार्य शंकर उन दिनों बद्रीनाथ धाम में वेदान्त दर्शन पर अपने प्रसिद्ध शारीरक भाष्य को लिख रहे थे। वेदान्त दर्शन यानि कि ब्रह्मसूत्र पर यह सुप्रसिद्ध भाष्य है। इसकी एक- एक पंक्ति में वेदान्त साधना एवं ब्रह्मज्ञान के अद्भुत रहस्य सँजोये हैं। हिमालय के शुभ्र धवल शिखरों की छाँव में भगवान् नारायण की पावन तपस्थली में उन दिनों आचार्य की लेखन पयस्विनी प्रवाहित हो रही थी। आचार्य का प्रायः सम्पूर्ण दिन अपने एकान्त चिन्तन एवं लेखन में बीतता था। दिन के अन्तिम प्रहर में सन्ध्या से पूर्व आचार्य अपने भाष्य के लिखित अंशों को शिष्यों को पढ़ाते थे। 
      आदिगुरू भगवान् शंकराचार्य के शिष्यों में पद्यपाद, सुरेश्वर आदि परम विद्वान् शिष्य थे। विद्वान् शिष्यों की इस मण्डली में एक मूढ़मति मन्दबुद्धि, बेपढ़ा- लिखा एक बालक भी था। यह बालक बिना पढ़ा- लिखा भले ही था, उसकी बुद्धि भले ही तीव्र न थी ; परन्तु उसका हृदय आचार्य के प्रति भक्ति से भरा था। आचार्य उसके लिए सर्वस्व थे। आचार्य की सेवा ही उसका जीवन था। इसके अलावा उसे और कुछ भी न आता था। उसकी मूढ़ता और मन्दबुद्धि पर कभी- कभी आचार्य के अन्य शिष्य उपहास भी कर लेते थे। पर इससे उसे कोई फर्क न पड़ता था वह तो बस गुरूगत प्राण था। गुरूसेवा के अलावा उसे और कोई चाह न थी ।। फिर भी आचार्य न जाने क्यों उसे अपनी सायं कक्षा में बुलाना न भूलते थे। 
      एक दिन आचार्य की नियमित कक्षा का समय हो गया था। पद्यपादाचार्य, सुरेश्वराचार्य, हस्तामलकाचार्य आदि सभी भगवान् शंकराचार्य के श्रीचरणों के समीप आ जुटे थे; किन्तु आचार्य का वह सेवक शिष्य दिखाई नहीं दे रहा था। आचार्य को उसी की प्रतीक्षा थी। वह रह- रहकर इधर- उधर देख लेते। कक्षा में विलम्ब हो रहा था। उपस्थित शिष्यों में से प्रत्येक को प्रतीक्षा असह्य हो रही थी। सभी को भारी उत्सुकता थी कि उनके गुरूदेव ने आज नया क्या लिखा है। यह उत्सुकता अपने चरम बिन्दु पर जा पहुँची, पर कोई कुछ कह नहीं पा रहा था। अन्त में पद्यपाद ने साहस किया, पाठ प्रारम्भ करने की कृपा करें भगवान् ।। वत्स ! मुझे अपने एक शिष्य की प्रतीक्षा है। आचार्य ने उत्तर दिया। पर वह तो निरा विमूढ़ है भगवन्! उसका आना न आना दोनों ही एक जैसे हैं। पद्यपाद के स्वरों में विनम्रता होते हुए भी एक खीझ थी।
      आचार्य भगवत्पादशंकर से यह बात छुपी न रही। उन्होंने यह जान लिया कि उनके इन विद्वान् शिष्यों को अपनी विद्वता का कुछ अभिमान हो आया है। शिष्यों का गर्वहरण करने वाले आचार्य शंकर मुस्कराए और एक क्षण के लिए ध्यानस्थ हो गए। उनका वह शिष्य ,, जिनकी उन्हें प्रतीक्षा थी, उन्हीं के वस्त्र धोने के लिए गया था। यह उसका नित्य का कार्य था; किन्तु आज अचानक उसके अन्तःकरण में समस्त विद्याएँ एक साथ प्रकाशित हो गयी। वह गुरूकृपा की इस अनुभूति पर कृतकृत्य हो गया। अपने कांधे पर गुरूदेव के धुले वस्त्रों को लिए हाथ जोड़े तोटक छन्दों में आचार्य की स्तुति करते हुए वह चला आ रहा था। 

विदिताखिलशास्त्र सुधा जलधे, महितोपनिषत्कथितार्थनिधे। 
हृदये कमले विमलं चरणं, भवशंकरदेशिक मम शरणम्॥ 
करूणावरूणालय पालयमाम्, भवसागरदुःखविदून हृदम् ।। 
रचयाखिल दर्शन तत्त्वविदं ,भव शंकरदेशिकमम शरणं॥ 

     तोटक छन्द में स्व स्फुरित इस गुरू वन्दना को सुनकर वहाँ उपस्थित सभी अवाक् रह गए। उन्हें भारी अचरज तो तब हुआ, जब उसे आचार्य ने आदेश दिया- वत्स! आज मेरे स्थान पर तुम इन्हें ब्रह्मसूत्र पर मेरे मन्तव्य को समझाओ। इतना ही नहीं तुम इनके सम्मुख उन सूत्रों की व्याख्या भी करो, जिन पर अभी मैंने भाष्य नहीं लिखा है। तोटकाचार्य- जो आज्ञा गुरूदेव! कहकर आचार्य की आज्ञा का पालन कर दिखाया। तोटकाचार्य की अनायास उदित हुई प्रखर प्रतिभा को देखकर सभी को इस सत्य की अनुभूति हो गयी कि तोटकाचार्य पर गुरू -कृपा बरस गयी है। त्राहिमास गुरूदेव! कहते हुए सभी शिष्य आचार्य के चरणों में गिर पड़े। आचार्य ने उन्हें निराभिमानी बनने की सलाह दी। सभी अनुभव कर रहे थे कि गुरू- कृपा से सब कुछ सम्भव है। 


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