गुरुगीता

कष्टों में भी प्रसन्न रखती है गुरूभक्ति

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     गुरूगीता के गायन से शिष्यों को मन चाहे वरदान मिलते हैं। लेकिन जो शिष्य है, उसके मन में केवल एक चाहत जगती है- अपने सद्गुरू से मिलन की चाहत। जिसे सांसारिक कामनाएँ ,वासनाएँ एवं लालसाएँ छूती हैं, समझो वह अभी शिष्य नहीं ।। हाँ, इतना जरूर है कि इस पाप पंक में फँसे हुए लोगों पर भी गुरू भक्त शिष्यों का दया आती है। दयावश वे इनकी मदद भी करते हैं। परन्तु सांसारिक कामनाओं के कीचड़ में वे कभी भी फँसना- उलझना नहीं चाहते हैं। यही वजह है कि कई बार ऐसे सांसारिक लोग इन सच्चे गुरूभक्तों को असफल मान लेते हैं। वे इनकी आध्यात्मिक विभूतियों को समझ ही नहीं पाते। उन्हें अनुमान ही नहीं हो पाता कि गुरूगीता का गायन करने वाले इन गुरूभक्त शिष्यों के आध्यात्मिक रहस्य क्या है और कितने हैं? यदि उनके जीवन में साधनाओं के साथ परेशानियाँ भी हैं तो इनके कारण क्या हैं? 
     गुरूगीता गाथा के पिछले क्रम में इस सत्य का सांकेतिक उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है कि गुरूगीता की साधना सभी प्राणियों का सम्मोहन करने वाली है। इससे सभी प्राणियों को छुटकारा मिलता है। इससे सभी शत्रुओं एवं दुर्गुणों का स्तम्भन होता है, गुणों में बढ़ोत्तरी होती है। गुरूगीता की यह साधना दुरूकर्मों का नाश करके सत्कर्मों की सिद्धि देती है। इस साधना से सभी असाध्य कार्य साध्य होते हैं एवं नवग्रहों की पीड़ा दूर होती है। दुःस्वप्नों का फल नष्ट होता है, बन्ध्या स्त्री भी इस साधना से पुत्रवती बनती है। इस साधना के द्वारा स्त्रियाँ अपने सौभाग्य को चिरस्थायी बनाती हैं। 
     इस प्रकरण को विस्तार देते हुए भगवान् भोलेनाथ पराम्बा माँ भगवती से कहते हैं- 

आयुरारोग्यमैयश्वर्यपुत्रपौत्रप्रवर्धनम्। 
अकामतः स्त्री विधवा जपान्मोक्षमवान्पुयात् ॥ १४६॥ 
अवैधव्यं सकामा तु लभते चान्यजन्मनि। 
सर्वदुःखभयं विध्नं नाशयेच्छापहारकम्॥ १४७॥ 
सर्वबाधाप्रशमनं धर्मार्थकाममोक्षदम्। 
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्॥ १४८॥ 
कामितस्य कामधेनुः कल्पनाकल्पपादपः। 
चिन्तामणिः चिंतितस्य सर्वमङ्गलकारकम्॥१४९॥ 
मोक्षहेतुर्जपेत् नित्यं मोक्षश्रियमवाप्नुयात्। 
भोगकामो जपेद्यो वै तस्य कामफलप्रदम्॥१५०॥ 
     
     गुरूगीता के विधिपूर्वक अनुष्ठान से आयु आरोग्य ऐश्वर्य एवं पुत्र- पौत्रों की वृद्धि होती है। विधवा स्त्री यदि निष्काम भाव से इसका पाठ करे, तो उन्हें मोक्ष मिलता है॥१४६॥ यदि वे सकाम भाव से पाठ करें, तो उन्हें अगले जन्म में अचल सौभाग्य की प्राप्ति होती है। गुरूगीता के पाठ से सभी दुःख, भय, विध्न एवं शापों का नाश होता है॥ १४७॥ इसकी साधना सभी बाधाओं का शमन करके धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष देने वाली है। यहाँ तक कि साधक जो- जो भी इच्छा करता है, वे सभी इच्छाएँ इससे निश्चित ही पूरी होती है।। १४८॥ यह गुरूगीता का पाठ कामना पूर्ति के लिए कामधेनु है। कल्पनाओं को साकार करने वाला कल्पतरू है। यह चिुंताओं को दूर करने वाली चिंतामणि है। इससे सभी का सब तरह से मंगल होता है॥१४९॥ मोक्ष की इच्छा से जो इसका पाठ करता है, उसे मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। भोग की इच्छा से पाठ करने वाले को मनवांछित भोग मिलते हैं॥१५०॥ 
     भगवान् शिव के इन वचनों में गहरी सार्थकता एवं रहस्यमयता है। कई बार सामान्य जन इसकी रहस्यमयता के कारण गुरूगीता की साधना की सार्थकता नहीं समझ पाते। उन्हें लगता है, जो साधना में तत्पर है, उन्हें भला इतने कष्ट क्यों मिलते हैं। गुरूभक्त शिष्यों पर इतनी अधिक विपत्तियाँ क्यों आती हैं? सत्पथ पर चलते हुए उन्हें इतने ज्यादा संकटों का सामना क्यों करना पड़ता है? जबकि दुर्गुणी -दुराचारी लोगों को उनकी तुलना में ज्यादा सुख- भोग उठाते देखा जाता है। इन बातों के अटपटे रहस्यों का भेद करने में इन साधारण लोगों की बुद्धि हतप्रभ रह जाती है। उन्हें इस आध्यात्मिक उलटबासी में न कोई सार्थकता नजर आती है और न कोई यथार्थता। ऐसे लोग सदा- सदा अपने बौद्धिक प्रपंचों में उलझे रहकर साधना, तपस्या एवं सत्कर्मों से दूरी बनाये रखते हैं। 
     इस प्रसंग में एक बड़ी मोहक कथा है। यह कथा पंजाब प्रान्त के सन्त बाबा लाल के बारे में है। बाबा लाल बड़े पहुँचे हुए फकीर थे। उनकी अलौकिक शक्तियों एवं यौगिक विभूतियों के कारण न केवल सामान्य जन, बल्कि पीर- फकीर एवं शाहजादे, बादशाह भी अभिभूत रहते थे। शाहजहाँ का बड़ा बेटा दाराशिकोह भी उनका भक्त था। इस बात से कम लोग वाकिफ हैं कि वह अपने पीर- मुर्शीद सूफी सरमद से मिलने के पहले से वह बाबा लाल जी से मिला था। वह इन्हें लालपीर जी कहा करता था। 
     शाहजादा दाराशिकोह का मन सूफियाना था। उसे परमात्मा से सच्ची लगन थी। बाबा लाल से मिलकर उसने अपनी ख्वाहिश बयान की कि आप मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लीजिए। बाबा लाल जी ने उसकी ओर देखा और बोले -दारा! तुझे तेरे मुर्शीद मिलेंगे। इसके लिए गुरूगीता का पाठ किया कर। दाराशिकोह उन दिनों उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कर रहे थे। उन्होंने बाबा लाल की बात मान कर गुरूगीता का पाठ प्रारम्भ किया। इसके प्रभाव से उन्हें अपने पीर- मुर्शीद सूफी सरमद से मुलाकात हुई। दारा एवं सरमद जैसे एक- दूसरे के लिए बने थे। हालाँकि सरमद से मिलने के बाद भी दारा ने बाबा लाल की भक्ति नहीं छोड़ी। ऐतिहासिक तथ्य कहते हैं कि दाराशिकोह ने बाबा लाल से सात बार मुलाकातें कीं। इन मुलाकातों में उन्होंने बाबा लाल से अनेकों सवाल किये। दाराशिकोह द्वारा किये गये प्रश्न एवं बाबा लाल द्वारा दिये गये जवाब वास्तव में आध्यात्मिकता का खजाना है। जिन्हें शाहजहान में वजीर राय मुंशी चन्द्रभान विरहमनज् ने फारसी में लिपिबद्ध करने का महान् कार्य किया। जो इसरारे मार्फत या इसरारे गुलजार या नादिरूलनुकात के नाम से प्रसिद्ध है।      इतिहास इस बात की गवाही देता है कि औरंगजेब ने अपने बड़े भाई दारा के साथ बड़ा ही बर्बर एवं अमानवीय बर्ताव किया। और अंत में उन्हें और उनके बेटे का कत्ल करा दिया। यहाँ तक कि उसने सूफी फकीर सरमद को भी मरवा दिया। इसके बाद वह अपने अहं एवं अकड़ के साथ बाबा लाल जी से मिलने गया। बाबा लाल जी उसे देखकर मुस्कराये। औरंगजेब ने उन्हें व्यंग्यपूर्वक प्रणाम् किया और पूछा- महराज वैसे तो आप कई सिद्धियों के मालिक हैं, फकीर सरमद के बारे में लोग कुछ ऐसा ही कहा करते थे। परन्तु किसी ने दाराशिकोह की मदद नहीं की। आपकी कोई सिद्धि और साधना उसके काम नहीं आयी। बेचारा बेमौत मारा गया! 
     बाबा लाल जी औरंगजेब की बात सुनकर हँसे और बोले- औरंगजेब तू मगरूर है और अंधा भी। तेरा भाई दारा दरवेश था, उसे किसी भी राज्य की कोई इच्छा नहीं थी। वह तो बस अपने पिता की रक्षा करना चाहता था। तूने जो उसके साथ बर्बरता का व्यवहार किया है, उसकी सजा तो तू उम्र भर भोगेगा। जिस तरह साँप अपनी केंचुली को छोड़कर यह नहीं सोचता कि उसकी केंचुली का क्या किया जायेगा, उसी प्रकार सच्चा दरवेश अपने बाहरी जीवन की चिंता नहीं किया करते। दारा ने भी अनेक कष्ट एवं यातना सहकर महातप किया और आज वह खुद की रहमतों फरिश्तों का बादशाह है। तू देखना चाहता है तो देख- ऐसा कहते हुए बाबा लाल ने औरंगजेब को स्पर्श किया। इस स्पर्श के साथ औरंगजेब रूहानी दुनिया में पहुँच गया और उसने दारा के आध्यात्मिक वैभव को देखा। उसे अपने किये पर बड़ी शर्म आई। आँख खुलने पर उसने बाबा लाल जी से माफी माँगी। लेकिन प्रत्युत्तर में बाबा ने कुछ नहीं कहा। क्रूर औरंगजेब को अपने मन के कोने में कहीं इसका अहसास जरूर हुआ होगा कि गुरूभक्ति एवं साधना कर्म निरर्थक नहीं होती।

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