गुरुगीता

महामंत्र एवं मंत्रराज है गुरूगीता

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     गुरूगीता में गुह्य साधनाओं के गोपन रहस्य समाये हैं। इसके ये रहस्य सुपात्र साधकों की अन्तर्चेतना में स्वयं ही स्फुरित होते हैं। गुरूगीता का सविधि पाठ करने वालों को साधना से सम्बन्धित अपने प्रश्नों का हल जानने के लिए कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। बस जरूरत है, तो केवल अपनी श्रद्धा को सघन करने की, भक्ति को प्रगाढ़ करने की और गुरूगीता की पाठ साधना में नियमित होने की। यह नियमितता ही उन्हें सब कुछ दे सकने में समर्थ है। जो साधक हैं, जिज्ञासु हैं, ब्रह्मविद्या प्राप्ति के इच्छुक हैं, उन्हें कहीं अन्यत्र नहीं जाना, बस स्वयं में अपनी साधना में स्थिर होना है, अपनी गुरूभक्ति को और अधिक दृढ़ करना है। गुरूभक्ति का चुम्बकत्व गुरूकृपा को स्वयं ही आकर्षित कर लेगा। 
      शिष्यों- साधकों के लिए यहाँ संकेत बस इतना है कि गुरूगीता प्रकट में गुरू महिमा की कथा है। पर रहस्यार्थ में इसका प्रत्येक श्लोक सिद्ध मंत्र है। मातृका बीजों के साथ इसकी संम्यक् साधना ब्रह्माण्ड की आश्चर्यकारी शक्तियों को साधक करते हैं, उनकी भाव चेतना गुरूगीता के मांत्रिक प्रभाव से आध्यात्मिक साधनाओं के लिए स्वयं ही परिष्कृत होती जाती है। उनमें स्वयं ही ग्रन्थि भेदन, चक्र जागरण, कुण्डलिनी उत्थापन आदि क्रियाएँ होने लगती हैं। योग के तत्त्व रहस्य उनके अस्तित्व में स्वयं ही प्रकट होने लगते हैं। और अन्त में प्राप्त होती है- तत्व दृष्टि, जो समाधि की दुर्लभ अनुभूति है। साधना की सुदीर्घ परम्परा में ऐसे कई यशस्वी साधक हुए हैं, जिन्होंने केवल गुरूगीता के साधना सम्बल से अध्यात्म की उच्चतम सिद्धि प्राप्त की। 
     समर्थ साधकों का यह अनुभव इस गुरूभक्ति कथा के पिछले क्रम में अनेक स्थानों पर प्रकट हुआ है। भगवान् सदाशिव ने माता हिमवानसुता को अनगिन विधियों से ये रहस्य बताएँ हैं। पिछले क्रम में भी उन्होंने यह रहस्य बताते हुए कहा है कि हे पार्वती! यह गुरूतत्त्व इतना गोपनीय है कि इसे कार्तिकेय ,गणेश एवं विष्णु आदि देवों को भी नहीं बताना चाहिए। मेरा यह वचन सत्य है। भगवान् भोलेनाथ फिर से कहते हैं- हे देवि! जिसका चित्त पूर्णतया परिपक्व और श्रद्धाभक्ति से युक्त है, उन्हीं से इसे कहना उचित है। हे प्रिये! तुम मेरी आत्मा हो, इसी कारण मैंने यह परम गोपनीय रहस्य तुमसे कहा है। 
     गुरूगीता की परम गोपनीयता के रहस्य का बोध कराते हुए भगवान् महेश्वर कहते हैं- 

अभक्ते वंचके धूर्ते पाखण्डे नास्तिके नरे। 
मनसाऽपि न वक्तव्या गुरूगीता कदाचन॥१८१॥ 
संसार सागरसमुद्धरणैकमन्त्रं 
ब्रह्मादिदेवमुनिपूजितसिद्धमन्त्रम्। 
दारिद्रयदुःखभवरोगविनाशमन्त्रं 
वन्दे महाभयहरं गुरूराजमन्त्रम्॥१८२॥ 

     भक्तिहीन, वंचक, धूर्त, पाखण्डी, नास्तिक मनुष्य के पास कभी भी इस गुरूगीता को कहने का विचार मन से भी नहीं करना चाहिए॥ १८१॥ संसार सागर से उद्धार का एक मात्र मंत्र यही है, यही ब्रह्मा आदि देवों एवं मुनियों से पूजित सिद्ध मंत्र है। यह दारिद्रय- दुःख व भव रोग नाशक मन्त्र है। मृत्यु रूपी महाभय को हरने वाला, सर्वश्रेष्ठ भवरोग हरने वाले इस गुरूगीता रूपी गुरूमन्त्र का मैं नमन करता हूँ॥ १८२ 
      भगवान् सदाशिव स्वयं जिसे महामन्त्र एवं मन्त्रराज कहकर नमन करें, उसकी महिमा एवं प्रभाव की सीमाएँ भला कैसे मापी जा सकती हैं? हजारों साल से भारतभूमि के महासाधक, भगवान् शिव के इन वचनों की सार्थकता को अनुभव करते आए हैं। यह अनुभव उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुलभ है, जो शिष्य हैं, साधक हैं, जो यथार्थ में अध्यात्म विद्या का असीप्सु हैं। जिसमें तीव्र अभीप्सा है, जिसकी भाव चेतना अपने सद्गुरू को समर्पित हो रही है, जो अपने को गुरू चरणों में निवेदित का चुका है, वह अपने जीवन में इस विरल अनुभव को सहज पा सकता है। 
     कुछ ऐसा ही सहज अनुभव काश्मीर की महायोगिनी नागगन्धा के जीवन में घटित हुआ था। नागगन्धा अपने प्रारम्भिक जीवन में सामान्य बालिका थी। जैसा कि अन्य बालिकाओं के जीवन में होता है उनका भी विवाह हो गया। इसे दुर्भाग्य कहें या दुर्देव अथवा फिर लीलामय भगवान् की अपने भक्त की परीक्षा- नागगन्धा का वैवाहिक जीवन पीड़ा- प्रताड़ना का सघन -साकार रूप था। गृहकार्य इसी के साथ अपने पारिवारिक जनों द्वारा जी जाने वाली पीड़ा यह सब कुछ असहनीय था। भोली बालिका नागगन्धा की भावनाएँ रोज तार- तार होती थीं। अपने ही कहे जाने वालों के व्यंग कटूक्तियों के तीरों से उसका अन्तःकरण रोज ही विदीर्ण होता था। पर कोई अन्य मार्ग भी तो था नहीं। 
     बिलखते हुए रोज छटपटाते हुए घर के काम करना यही उसकी नियति थी। एक रात जब वह अपने घर के काम पूरे करके वहीं कमरे की फर्श पर लुढ़क कर सोयी हुई थी, तभी उसने एक विचित्र स्वप्न देखा कि कोई स्त्री उससे कह रही है, मुझे पहचान, मैं तेरी माँ हूँ। तेरे साथ जो कुछ भी हो रहा है- यह जात्यान्तर भोग है। थोड़े ही दिनों में समाप्त हो जाएगा। अपने भविष्य के मार्ग की खोज के लिए गुरूगीता का अनुष्ठान कर। यह स्वप्न कुछ अद्भुत ,विचित्र एवं विलक्षण था। सोयी नागगन्धा उठकर बैठ गयी। अब उसे पहले से अच्छा लग रहा था। परन्तु साथ ही कई प्रश्न भी थे, कौन थी वह स्त्री? फिर यह गुरूगीता क्या है? इसका अनुष्ठान कैसे होता है? 
     इन प्रश्नों की चुभन लिए वह अपने रोज के कामों में लग गयी। इन कामों के साथ ही दिन ढलने लगा। साँझ की बेला में जब वह वितस्ता नदी के किनारे जल भरने पहुँची, तो वहाँ सन्नाटा था। अभी उसने जल का कलश भरा ही था कि एक वृद्ध ब्राह्मण ने उसे टोका। इस अपरिचित आवाज से वह पहले तो हैरान हुई लेकिन बाद में वाणी में सुने स्नेह ने उसे आश्वस्त किया। वृद्ध ब्राह्मण कह रहे थे- पुत्री मैं वैष्णवी माता के निर्देश से तुम्हारे पास आया हूँ। तुम्हारे लिए यह गुरूगीता की पुस्तक है। इस पुस्तक को देते हुए उन्होंने इसकी पाठविधि एवं अनुष्ठान प्रक्रिया समझा दी। ये वृद्ध ब्राह्मण निश्चित ही कोई विशिष्ट एवं सिद्ध साधक थे। क्योंकि इनके प्रभाव से नागगन्धा के अन्तस में नए प्रकाश की किरणें बरस गयी। 
     उसके जीवन में यह परिवर्तन का पहला पग था। जैसे- तैसे उसने अनुष्ठान की प्रक्रिया प्रारम्भ की। बड़ा मुश्किल था उसके लिए समय निकलना ,फिर भी जैसे- तैसे यह सम्भव हुआ। उसका आहत, क्षत- विक्षत मन अपने अदृश्य गुरू को पुकारने लगा। तड़प एवं पीड़ा है, वह उतना ही शीघ्र अपने भगवान् को पा लेता है। नागगंधा अपने अपरिचित सद्गुरू का आह्वान गुरूगीता के महामंत्रों से कर रही थी। दिन बीतते गये और साथ ही आह्वान के स्वर भी गहरे होते गये। परिस्थितियों की जटिलता से अब उसकी
     मनःस्थिति मुक्त होने लगी। एक दिन स्वप्न में उसने अपने गुरूदेव को देखा। उसे लगा कि उसकी आत्मा के पिता मिल गये हैं।
      इस स्वप्न से वह ज्यों ही जगी, तो देखा कि वे स्वप्न पुरूष प्रत्यक्ष में उसके सामने खड़े हैं। उन दिव्य परमर्षि को सामने पाकर वह विभोर हो गयी। उन्होंने उसे योग एवं तंत्र की कतिपय गहन क्रियाएँ बतातीं। इनके निरन्तर अभ्यास ने उसे योग एवं तंत्र की विद्या में प्रवीण बना दिया। शनैः शनैः वह संसार के समस्त बन्धन से मुक्त हो गई। पीड़ा के गर्भ से एक महासाधिका नागगंधा का जन्म हुआ। कालान्तर में वह एक ही तत्व का उपदेश देती थी- गुरू को पुकारो, वे सर्वसमर्थ अपने शिष्य को अनायास ही सब कुछ दे देते हैं। यह पुकार हम सभी के अंतस् में जगे, तभी हमारा शिष्यत्व सार्थक हो सकता है। गुरूगीता के महामंत्र हम सभी की चेतना में संजीवनी की भाँति घुले ,तो समस्त सिद्धियाँ सुलभ हो सकेगी। 

॥ॐ जय जय श्री स्कन्दपुराणे उत्तरखण्ड 
ईश्वरपार्वती संवादे गुरूगीता सम्पूर्णम्॥ 
ॐ तत्सत् सत्याः सन्तु मम अभीष्टकामा श्रीसद्गुरू अर्पणमस्तु। 

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