गुरूगीता के महामन्त्र साधना जीवन के महासूत्र हैं। इन्हें अपनाकर, इनकी साधना करके साधक का अध्यात्म राज्य में प्रवेश सुनिश्चित है। पर ध्यान रहे गुरूगीता के इन महामन्त्रों की साधना करने का मतलब कतिपय क्रियाओं अथवा कर्मकाण्ड़ों को कर लेना भर नहीं है। इनकी साधना करने का अर्थ है- उस भावदशा में अपनी सम्पूर्णता एवं समग्रता से जीना ,, बताया गया है कि परम गुरू भगवान् सदाशिव के उन वचनों को किस तरह आत्मसात् किया जाए, जिसमें उन्होंने कहा था कि गुरूतत्त्व ही साधक के जीवन का सार सर्वस्व है। इसके अभाव में यज्ञ, व्रत, तप, दान, जप और तीर्थ अपना अर्थ खो देते हैं। यही नहीं अपनी प्रबुद्ध आत्मा और सद्गुरू भिन्न नहीं हैं। ये दोनों एक ही हैं, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इस तत्त्व के सत्य को जानने से ही साधक के जीवन में सत्य ज्ञान का उदय होता है।
गुरूतत्त्व की इस कथा को आगे बढ़ाते हुए देवाधिदेव भगवान् महादेव आदिमाता पार्वती से कहते हैं-
सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पादसेवनात् ।।
देहीब्रह्मभवेद् यस्मात् त्वत् कृपार्थं वदामि ते॥ ११॥
सद्गुरू के चरणों की सेवा से साधक सारे पापों से मुक्त होकर विशुद्धात्मा हो जाता है। (भगवान् शिव, माता पार्वती से कहते हैं, यही नहीं देवि ! )) मैं तुम्हें कृपापूर्वक बता रहा हूँ, देहधारी जीव ब्रह्मभाव को उपलब्ध हो जाता है।
गुरूचरणों की महिमा के बारे में कहे गए, भगवान् महादेव के ये वचन साधकों के जीवन का सम्पूर्ण सत्य है। समस्त सृष्टि का आध्यात्मिक इतिहास साक्षी है कि अनेकों बार इस महामन्त्र में निहित सत्य को अपने साधना जीवन में खरा प्रमाणित किया है। महान् साधकों ने दुर्लभतम ब्रह्मतत्त्व का बोध इस महामन्त्र की साधना से पाया है। ऐसी सैकड़ों, हजारों और लाखों घटनाओं में हम यहाँ केवल एक घटना की चर्चा कर रहे हैं। इसकी चर्चा विश्वविख्यात महान् योगी स्वामी योगानन्द ने योगीकथामृत में भी की है।
सद्गुरू के चरणों की महिमा का बोध कराने वाली यह अनुभूति कथा महान् गुरू योगिराजाधिराज श्री श्यामाचरण लाहिड़ी और उनके विभूतिवान् शिष्य स्वामी प्रणवानन्द के बारे है। स्वामी प्रणवानन्द ने स्वयं अपने मुख से अपनी इस अनुभूति को योगानन्द को सुनाया था। उन्होंने उनसे कहा- गुरू की कृपा कितनी अमूल्य होती है, वह सुनो। मैं उन दिनों नित्यरात्रि को आठ घण्टे ध्यान किया करता था। उस समय मेरा समूचा दिन अपने रेलवे कार्यालय में बीत जाता था। वहाँ मुझे अपने क्लर्क होने का दायित्व निभाना पड़ता था। उन दिनों मेरे लिए यह ड्यूटी बड़ी थकाऊ और उबाऊ थी। फिर भी मैं बड़े ही मनोयोग पूर्वक हर रात को ध्यान करता था। प्रत्येक रात्रि को आठ घण्टे की अविराम साधना मेरी जीवनचर्चा का अनिवार्य और अविभाज्य अंग बन गयी।
इसके अद्भुत परिणाम भी मेरे जीवन में आए। विराट् आध्यात्मिक अनुभूति से मेरी समूची अन्तर्चेतना उद्भासित हो उठी ; परन्तु अभी भी उस अखण्ड सच्चिदानन्द और मेरे बीच एक झीना परदा हमेशा बना रहता था। यहाँ तक कि अतिमानवी निष्ठा के साथ साधना करने के बावजूद भी मैं ब्रह्रातत्व से एकाकार नहीं हो सका। इस बारे में किए गए मेरे सारे प्रयास पुरूषार्थ, निष्फल गए। तभी मुझे ध्यान आया कि साधक के लिए सद्गुरू चरणों की कृपा ही परमपूर्णता का परिचय पर्याय बनती है। यही सोचकर एक दिन सायंकाल मैंने लाहिड़ी महाशय के चरणों का आश्रय ग्रहण किया। उनके आशीष की आकांक्षा के साथ मेरी प्रार्थना चलती रही ,गुरूदेव मेरी ईश्वर में समा जाने की आकांक्षा इतनी तीव्र वेदना का रूप धारण कर चुकी हे कि उस परम प्रभु का प्रत्यक्ष दर्शन किए बिना मैं अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता।
लाहिड़ी महाशय हल्के से मुस्कराए और बोले, भला इसमें मैं क्या कर सकता हूँ। तुम और गहराई से ध्यान करो। मैने उनके चरण पकड़कर बड़े ही करूण भाव से पुकार की , हे मेरे प्रभु , मेरे स्वामी, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। आप इस भौतिक कलेवर में मेरे सम्मुख विद्यमान हैं। अब मेरी प्रार्थना को स्वीकारें, और मुझे आशीर्वाद दें कि मैं आपका आपसे अनन्त रूप में दर्शन कर सकूँ। प्रसन्न भाव से शिष्य वत्सल परम सद्गुरू लाहिड़ी महाशय ने अपना हाथ आशीर्वाद मुद्रा में उठाते हुए कहा ,, जाओ वत्स ,, अब तुम जाओ और ध्यान करो। मैंने तुम्हारी प्रार्थना परमपिता परमेश्वर परब्रह्म तक पहुँचा दी है।
अपरिमित आनन्द और उल्लास से भरकर मैं घर लौटा। नित्य की ही भांति उस रात्रि भी मैं ध्यान के लिए बैठा ।। बस फर्क थोड़ा था , आज सद्गुरू के चरण मेरी ध्यानस्थ चेतना का केन्द्र थे ।। वे चरण कब अनन्त विराट् परब्रह्म बन गए पता ही नहीं चला। बस उसी रात मैंने जीवन की चिरप्रतीक्षित परमसिद्धि प्राप्त कर ली। उस दिन से माया का कोई भी परदा उस परमानन्दमय जगत् स्त्रष्टा की छवि को मेरे नेत्रों से ओझल नहीं कर सका है। यह कहते हुए स्वामी प्रणवानन्द का मुखमण्डल प्रसन्नता से दमक उठा। स्वामी योगानन्द लिखते हैं कि गुरू महिमा की यह कथा सुनकर मेरा भय भी नष्ट हो गया।
योगानन्द द्वारा कही गयी यह योगकथा गुरूचरणों की महिमा को प्रकट करती है। गुरूचरण ही अपने तात्त्विक रूप में परब्रह्म का स्वरूप है। लेकिन इसे जाना और समझा तभी जा सकता है- जब साधक अपनी गुरूभक्ति की साधना के शिखर पर आरूढ़ हो गया है। एक सन्त कवि ने इस तथ्य को एक पंक्ति में कहने की कोशिश की है- श्री गुरुचरणों में नेह। साधन और सिद्धि है येह।
अर्थात् गुरूचरणों में अनुराग साधना भी है और सिद्धि भी। साधना के रूप में इसका प्रारम्भ होता है, तो इसके तात्विक स्वरूप के दर्शन में इसकी सिद्धि की चरम परिणति होते हैं। हममें से अनेक गुरूपद अनुरागी यह जानना चाहेंगे की इस साधना की शुरूआत कैसे करें? तो इसका सरल उत्तर है कि गुरूचरणों के भाव भरे ध्यान से। भाव भरे ध्यान का मतलब इस अटल विश्वास से है कि सद्गुरू का
स्थूल रूप ही कुछ नहीं परब्रह्म का ही घनीभूत प्राकट्य है।
वही भक्तवत्सल भगवान् हमारे कल्याण के लिए शिष्यवत्सल गुरूदेव के रूप में प्रकट हुए हैं। बिना किसी शर्त के ,, बिना किसी मांग के, बिना किसी अधिकार के, स्वयं को उनके श्री चरणों में न्यौछावर कर देना ही गुरूचरणों की सच्ची सेवा है। इससे हमारे जन्म- जन्मान्तर के सारे पाप धुल जाते हैं और आत्मा का विशुद्ध स्वरूप निखरने लगता है। साथ ही अन्तर्चेतना में अयमात्मा ब्रह्म की अनुभूति प्रकट और प्रत्यक्ष हो जाती है। इस कथन में तर्कपूर्ण कल्पना का जाल नहीं, बल्कि असंख्य साधकों की साधनात्मक अनुभूति सँजोयी है। सद्गुरू के चरणों का प्रभाव एवं प्रताप ही ऐसा है। इसकी महिमा कथा का और अधिक विस्तार अगले मंत्रों में है।