गुरूगीता के महामंत्र साधनापथ के प्रदीप हैं। इनसे निःसृत होने वाली ज्योति किरणें साधकों को भटकन और उलझन से बचाती है। वैदिक ऋषिगण, अनुभवी महासाधक सभी एक स्वर से कहते हैं कि साधनापथ महादुर्गम है। इस पर निरन्तर चलते रहना महाकठिन है। फिर चलते रहकर लक्ष्य को पा लेना गुरू कृपा के बिना नितान्त असम्भव है ।। उपनिषद् की श्रुतियों में साधकों के लिए ऐसे ही चेतावनी भरे वचन हैं। कठोपनिषद् की श्रुति कहती है- क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति अर्थात्- यह साधना पथ छुरे की धार की भाँति अति दुष्कर है। यह पथ अति दुर्गम है, ऐसा अनुभवी कवियों (ऋषियों) का कहना है। गुरूकृपा ही इस दुर्गम पथ को सुगम बनाती है। गुरू- करूणा का सम्बल पाकर ही शिष्य इस पथ पर चलने में सफल होता है। सद्गुरू के स्नेह सिंचन से ही साधक की साधना पूर्ण होती है।
उपर्युक्त मंत्रों में बताया गया है कि शिष्य को यह तथ्य जान लेना चाहिए कि सद्गुरू का चिन्तन स्वयं आराध्य का ही चिंतन है। इसलिए कल्याण की कामना को करने वाला साधक इसे अवश्य करे। तीनों लोकों में निवास करने वाले सभी इस सत्य को कहते हैं कि गुरूमुख में ही अज्ञान के अन्धकार को हटाने वाले प्रकाश स्त्रोत हैं। शास्त्र वचनों से भी यही सिद्ध होता है कि गुरूकृपा से ही माया की भ्रान्ति नष्ट होती है। गुरू से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं है।
गुरूभक्ति की इस तत्त्वकथा में नयी कड़ी जोड़ते हुए भगवान् सदाशिव माता पार्वती को समझाते हैं-
ध्रुवं तेषां च सर्वेषां नास्ति तत्त्वं गरोः परम्।
आसनं शयनं वस्त्रं भूषणं वाहनादिकम्॥ २६॥
साधकेन प्रदातव्यं गुरूसन्तोषकारकम् ।।
गुरोराराधनं कार्य स्वजीवित्वं निवेदसेत् ॥ २७॥
कर्मणा मनसा वाचा नित्यमाराधयेद् गुरूम् ।।
दीर्घदण्डम् नमस्कृत्य निर्लज्जोगुरूसन्निधौ ॥ २८॥
शरीरमिन्द्रियं प्राणान् सद्गुरूभ्यो निवेदयेत्।
आत्मदारादिकं सर्व सद्गुरूभ्यो निवेदयेत् ॥ २९॥
कृमिकीट भस्मविष्ठा- दुर्गन्धिमलमूत्रकम्।
श्लेष्मरक्तं त्वचामांसं वञ्चयेन्न वरानने ॥ ३०॥
हे श्रेष्ठमुख वाली देवी पार्वती ! शिष्य को यह सत्य भली भाँति जान लेना चाहिए कि यह ध्रुव (अटल) है कि गुरू से श्रेष्ठ अन्य कोई भी तत्त्व नहीं है। ऐसे लोक कल्याण में निरत परम कृपालु गुरू के कार्य के लिए आसन, वस्त्र ,, आभूषण ,वाहन आदि देते रहना शिष्य का कर्त्तव्य है। साधक द्वारा इस तरह लोक कल्याणकारी कार्यों में सहयोग से सद्गुरू से सद्गुरू को सन्तोष होता है। भगवान् शिव का कथन है कि गुरू कार्य के लिए साधक को अपनी जीविका को भी अर्पण करना चाहिए॥ २६- २७॥ कर्म, मन और वचन से नित्य गुरू आराधना करना ही शिष्य का कर्त्तव्य है। गुरू के कार्य में तनिक भी लज्जा करने की जरूरत नहीं है। गुरू को साष्टांग नमस्कार करना चाहिए॥२८॥ शिष्य का शरीर ,, इन्द्रिय, मन, प्राण सभी कुछ गुरू कार्य के लिए अर्पित होना चाहिए। यहाँ तक कि अपने साथ पत्नी आदि परिवार के सदस्यों को गुरू कार्य में अर्पण कर देना चाहिए॥ २९॥ भगवान् सदाशिव कहते हैं कि हे पार्वती ! यह अपना शरीर कृमि, कीट, भस्म, विष्ठा, मल- मूत्र, त्वचा, मांस आदि का ही तो ढेर है। यह यदि गुरू कार्य के लिए अर्पित हो जाए, तो इससे श्रेष्ठ भला और क्या हो सकता है॥ ३०॥
इन महामंत्रों का प्रत्येक अक्षर साधक के साधना पथ का प्रदीप है। इससे निकलने वाली प्रत्येक किरण के प्रकाश में साधक का साधनामय जीवन उज्ज्वल होता है। गुरू तत्त्व जितना श्रेष्ठ है, उतना ही श्रेष्ठ गुरू का कार्य है। तात्त्विक दृष्टि से दोनों एक ही है। श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी शिवानन्द जी महाराज कहते थे -डिवोशन टू संघ इज़ डिवोशन टू ठाकुर यानि कि मिशन- मठ के संगठन के प्रति भक्ति ठाकुर के प्रति भक्ति है। सद्गुरू का कार्य सदुगुरू की चेतना का ही विस्तार है। जो शिष्य अपने सद्गुरू के कार्य के प्रति समर्पित है, यथार्थ में वही सद्गुरू के प्रति समर्पित है। जो सद्गुरू के कार्य के लिए अपने समय, श्रम एवं धन का नियोजन करते हैं, वही अपने गुरू की सच्ची आराधना करते हैं।
सद्गुरू की आराधना के लिए गुरू कार्य हेतु अपने साधन एवं समय का एक महत्वपूर्ण अंश लगाना चाहिए। गुरू कार्य छोटा हो या बड़ा उसे करने में किसी भी तरह की लज्जा नहीं होनी चाहिए। श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि लोगों को जिन कार्यों के लिए लज्जित होना चाहिए, उन्हें करने में वे लज्जित नहीं होते। बड़े मजे से झूठ ,छल, कपट करते हैं, धोखाधड़ी करते हैं। इन कार्यों में उन्हें लज्जा नहीं आती है; पर गुरू की आज्ञा का पालन करने में वे शर्माते हैं। सद्गुरू का कार्य जो भी है, उसे भक्तिपूर्ण रीति से करना चाहिए। इसके लिए लज्जा का त्याग करने में भी कोई संकोच नहीं करना चाहिए।
कर्म ही नहीं, मन और वाणी से भी गुरू आराधना करनी चाहिए। बार- बार और हमेशा ही यह सत्य ध्यान में रखना चाहिए कि गुरू आराधना गुरू की शरीर सेवा तक सीमित नहीं है। इसके व्यापक दायरे में, सद्गुरू के विचारों का प्रसार व उनके अभियान को गति देने के लिए प्राण- पण से प्रयास करना भी शामिल है। इस हेतु न केवल स्वयं का जीवन अर्पण करना चाहिए ; बल्कि अपनी पत्नी एवं परिवार के अन्य सदस्यों को लगाना चाहिए। यह देह पंचमहाभूतों के विकार के सिवा भला और है ही क्या? इस देह की सार्थकता सद्गुरू के कार्य के प्रति समर्पित होने में ही है।
स्वामी विवेकानन्द महाराज के दो शिष्य थे स्वामी कल्याणानन्द और स्वामी निश्चयानन्द। एक दिन स्वामी जी ने इन दोनों को अपने पास बुलाया और कहा- देखो हरिद्वार में साधुओं की सेवा की कोई व्यवस्था नहीं है। उन दिनों आज से करीब सौ वर्ष पूर्व हरिद्वार का समूचा क्षेत्र महाअरण्य था। साधु हों या फिर तीर्थयात्री इन सभी का सामान्य औषधि एवं चिकित्सा के अभाव में अनेकों कष्ट उठाने पड़ते थे। कई बार तो इन्हें मरना भी पड़ता था। स्वामी जी ने अपने इन दोनों शिष्यों को इनकी सेवा का आदेश दिया ।। इन दोनों साधन विहीन साधुओं के पास अपने सद्गुरू के आदेश के सिवा और कोई भी सम्पति न थी। जब स्वामी कल्याणानन्द एवं स्वामी निश्चयानन्द स्वामी जी को प्रणाम करके चलने लगे, तो उन्होंने कहा- अब तुम दोनों इधर लौटकर फिर कभी न आना, बंगाल को भूल जाना। आदेश अति कठिन था ; परन्तु शिष्य भी सद्गुरू को सम्पूर्ण रीति से समर्पित थे।
बेलूड़ मठ से चलकर ये दोनों ही हरिद्वार आए। उन्होंने कनखल में अपनी झोपड़ियाँ बनाई और जुट गए सेवा कार्यों में। दिन भर बीमार साधुओं एवं तीर्थ यात्रियों की सेवा और रात भर अपने सद्गुरू का ध्यान। कार्य चलता रहा, वर्ष बीतते रहे। इस बीच स्वामी जी ने इच्छामृत्यु का वरण किया; परन्तु सद्गुरू आदेश के व्रती ये दोनों गुरू के अन्तिम दर्शन में भी नहीं गए। गुरू कार्य के लिए उन्होंने अनेकों अपमान झेले, तिरस्कार सहे; पर सब कुछ उनके लिए गुरू कृपा ही थी। लगातार ३५ सालों तक उनका यह सेवा कार्य चलता रहा। उनके कार्यों का स्मारक आज भी कनखल क्षेत्र में श्री रामकृष्ण सेवाश्रम के रूप में स्थित है। सद्गुरू के कार्य क प्रति निष्ठापूर्ण समर्पण ने उन्हें अघ्यात्म के शिखरों तक पहुँचा दिया। इन दोनों के लिए स्वामी जी ने स्वयं अपने मुख से कहा था- हमारे ये बच्चे परमहंसत्व प्राप्त कर धन्य हो जाएँगे। गुरूकृपा से यही हुआ भी। ऐसे कृपालु सद्गुरू को शत- सहस्त्र-कोटिशः नमन !