गुरूगीता में सद्गुरू महिमा के गीत हैं। इनका गायन करने वाले शिष्यों की चेतना पवित्र- प्रखर एवं प्रकाशित होती है। ये गीत कितने भी गाये जायें ,, इनका रस समाप्त नहीं होता है और न ही इनका प्रभाव क्षमता पा सकता है। युगों- युगों से इस सत्य को सभी शिष्यों ने अनुभव किया है और कुछ बड़भागी शिष्य इस सच्चाई को अपनी साधना सम्पदा मानकर जी रहे हैं। हाँ, यह सच है कि धन- मान, यश- कीर्ति सब कुछ होने पर भी जिस शिष्य के होठों पर गुरू महिमा के गीत नहीं हैं, वह अभागा है, कंगाल है, समस्त आश्रयों के होने के बावजूद निराश्रित है। जबकि इसके विपरीत जिस शिष्य के पास न तो धन है और न मान है, न यश है, न कीर्ति है, वह यदि गुरू महिमा के गीतों को गाने की कला को जानता है, तो परम सौभाग्यशाली है।
पिछले मंत्रों में यह बताया गया है कि सद्गुरू चेतना सब भाँति अपूर्व है, नित्य है, स्वयं प्रकाशित और निरामय है। इसमें सभी विकारों का अभाव है। यह परमाकाश रूप अचल व अक्षय आनन्द का स्त्रोत है। वेद आदि शास्त्रो एवं सभी प्रभावों से भी यही सिद्ध होता है। गुरूदेव की आत्मचेतना, तपश्चेतना का सदा- सदा स्मरण करना चाहिए ; शिष्य के लिए इससे श्रेष्ठ अन्य कोई साधन नहीं है।
गुरू महिमा के इन गीतों को एक नये स्वर में पिरोते हुए भगवान् भोलेनाथ आदिमाता से कहते हैं-
अखण्डमण्डलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ६७॥
सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदाम्बुजः।
वेदान्ताम्बुजसूर्यो, यस्तस्मै श्री गुरूवेनमः॥ ६८॥
यस्य स्मरणमात्रेण, ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम्।
य एव सर्वसंप्राप्तिस्तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ६९॥
चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरञ्जनम् ।।
नादबिन्दुकलातीतं तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ ७०॥
अखण्ड वलयाकार चेतना के रूप में जो इस सम्पूर्ण चर- अचर जगत् में व्याप्त हैं, ब्रह्म तत्त्व व आत्म तत्त्व के रूप में यही चेतना उनके श्री चरणों की कृपा से दर्शित होती है। उन श्री सद्गुरू को नमन है॥ ६७॥ वैदिक ऋचाओं एवं उपनिषद् की श्रुतियों के सभी महावाक्य रत्न उनके श्री चरणों में विराजित हैं। उन गुरूदेव की चेतना से सूर्य का प्रकाश पाकर ही वेदान्त का कमल खिलता है, ऐसे सद्गुरू को नमन है॥ ६८॥ जिनके स्मरण करने भर से अपने आप ही ज्ञान उत्पन्न होता है, जो अपने में सभी आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति है, उन कृपालु सद्गुरू को नमन है॥ ६९॥ जो परम चैतन्य, शाश्वत, शान्त और आकाश से भी अतीत और माया से परे हैं, वे नाद, बिन्दु एवं कला से परे हैं, ऐसे सद्गुरू को नमन है ॥ ७०॥
गुरू महिमा के महामंत्रमय स्तोत्र होने के साथ तत्त्वचिंतक को भी प्रकाशित करते हैं। निराकार- माया से परे परमेश्वर ही माया को वशवर्ती करके शिष्य के कल्याण के लिए सद्गरू की काया धारण करते हैं। वे देहधारी होने पर भी देहातीत हैं। उन्हें जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है। जो उनकी शरण में गया उसे सब कुछ स्वयं ही मिल जाता है। उनमें भक्ति ,ज्ञान ,कर्म, योग, ध्यान आदि सभी सत्य सम्पूर्ण रूप से प्रकाशित है। जिन्होंने भी यह बात अपने अन्तःकरण में धारण कर ली, वे अध्यात्मवेत्ता हो गये।
यहाँ पर एक सत्य घटना की चर्चा की जा रही है। यह चर्चा अनेक शिष्यों के मनों को सत्प्रेरणाओं से भरेगी- ऐसा विश्वास है। यह घटना महान् संत रामदास काठिया बाबा के शिष्य गरीबदास के बारे में है। गरीबदास पढ़े- लिखे तो नहीं थे, पर उनके हृदय में अपने गुरूदेव के प्रति अगाध भक्ति थी; लेकिन इस भक्ति के बावजूद बाबा रामदास उनसे बड़ी कठोरता व उपेक्षा का बर्ताव करते थे। आगन्तुक शिष्यों को बाबा के इस व्यवहार पर बड़ा अचरज भी होता ।। वे सोचते कि सभी के साथ प्रेम भरी कोमल- मीठे बोल बोलने वाले बाबा आखिर गरीबदास पर ही क्यों बात- बात पर बरसते हैं? पर किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि उनसे कोई कुछ पूछे। लेकिन बाबा के इस बर्ताव से न तो गरीबदास की श्रद्धा कम हुई और न ही उसका विश्वास डिगा।
एक बार तो जैसे बाबा रामदास ने कठोरता की सारी सीमाएँ ही पार कर डाली। हुआ यूँ कि उन दिनों ब्रज परिक्रमा हो रही थी। ८४ कोस की उस परिक्रमा में उसे काफी सामान लाद कर चलना पड़ता था। जहाँ यात्रा रूकती, वहाँ उसे थके- हारे होने पर भी ४०- ५० आदमियों का भोजन बनाना पड़ता। इतना कठिन श्रम करने के बाद भी उसका नियम था कि वह सभी को खाना खिलाकर स्वयं भोजन करता था। श्रद्धासिक्त भक्ति और अद्भूत विनयशीलता इसी को उसने अपनी भक्ति की परिभाषा बना लिया था।
उस दिन गरीबदास ने यात्रा के पड़ाव पर अपने नियम के अनुसार भोजन बनाया। सभी साधुओं व अभ्यागतों के साथ अपने गुरूदेव बाबा रामदास को भी आदर सहित बुलाया और प्रेम सहित उसने उन्हें खाना परोसा। पर यह क्या- आसन पर बैठते ही उन्होंने रोटी हाथ में ली और उसे दूर फेंकते हुए गरज कर कहा- बेशरम मेरे लिए कच्ची रोटियाँ बनाता है, जबकि रोटियाँ अच्छी तरह सिकी हुई थीं। इतना कहकर भी वह चुप नहीं रहे और अपनी लाठी उसके सिर पर दे मारी। लाठी की चोट से गरीबदास के सिर से खून बहने लगा। हारा- थका वह गुरूभक्त दर्द से बुरी तरह चीखा और बेहोश हो गया। बाबा रामदास का यह व्यवहार वहाँ उपस्थित जनों में से किसी को अच्छा न लगा। पर इससे बेखबर बाबा मजे से एक ओर चलते बने।
इधर जब गरीबदास को होश आया, तो उन्होंने बड़ी आतुरता से अपने गुरूदेव बाबा रामदास को ढूँढ़ा और उनके चरणों पर सिर रखते हुए बोला- हे मेरे कृपालु गुरूदेव, हे मेरे आराध्य! मुझसे अपराध हो गया, क्षमा करें भगवान् ! शिष्य की गहरी श्रद्धा आज विजयी हुई। परम कठोर बर्ताव करने वाले उसके गुरूदेव आज मातृवत् हो उठे। उसे उन्होंने अपनी छाती से लगाते हुए कहा- बेटा ! सद्गुरू की कठोरता में ही उनका प्रेम है। जो इसे जानता है- वही सच्चा शिष्य है। मेरी कठोरता से तेरे जन्म- जमान्तर के कर्म नष्ट हो गये हैं। अब तू मेरे आशीर्वाद से परमहंसत्व प्राप्त कर धन्य हो जायेगा। गुरू की कृपा की यह महिमा अनन्त है।