गुरुगीता

सद्गुरू की कृपा से ही मिलती है मुक्ति

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
     गुरूगीता में योगसाधना के गहन रहस्य उजागर होते हैं। इसमें जो कुछ भी है, वह सभी तरह के बुद्धि कौशल से परे है। गुरूगीता के महामंत्रों में निहित रहस्य बुद्धि से नहीं, बोध से अनुभव होता है। इसके मंत्रोंक्षरों की सच्चाई के तर्क से नहीं, साधना से ही जाना जा सकता है। जो लोग गुरूगीता को बुद्धि और तर्क से जानने की कोशिश करते हैं, वे अपने ही जाल में उलझ कर रह जाते हैं। गुरूगीता के सम्बन्ध में उनकी बौद्धिक तत्परता उन्हें भ्रमों के सिवा और कुछ नहीं दे पाती। तर्कों से उन्हें केवल बहस का खोखलापन मिलता है। इसके विपरीत जो साधना करते हैं, वे अपनी साधना से प्राप्त अन्तर्दृष्टि के सहारे सब कुछ जान लेते हैं। 
      गुरूगीता की रहस्य कथा में अन्तर्दृष्टि के रहस्यों की श्रृंखला स्पष्ट होती रही है। इसकी प्रत्येक कड़ी ने साधकों एवं शिष्यों की अन्तर्दृष्टि में हर बार नये आयाम जोड़े हैं। पिछले क्रम में माँ पार्वती ने भगवान् सदाशिव से अनूठी जिज्ञासा जतायी है। उन्होंने पूछा है कि हे महादेव! पिण्ड क्या है? पद किसे कहते हैं? हे भोलेनाथ रूप क्या है और रूपातीत क्या है? माँ की यह सभी जिज्ञासाएँ जीवात्मा के अस्तित्व के अतिगूढ़ प्रश्न हैं और इनका उत्तर केवल साधना की समाधि से शिवमुख से सुनकर ही जाना जा सकता है। 
     इस साधना रहस्यों को अपने श्रीमुख से उद्घाटित करते हुए भगवान् महादेव कहते हैं- 
श्री महादेव उवाच- 

पिण्डं कुण्डलिनीशक्तिः, पदं हंसमुदाहतम्। 
रूपं बिन्दुरितिज्ञेयं रूपातीतं निरञ्जनम् ॥ १२१॥ 
पिण्डे मुक्ता पदे मुक्ता, रूपे मुक्ता वरानने। 
रूपातीते तु ये मुक्तास्ते मुक्तानामसंशयः॥ १२२॥ 

      हे देवि! कुण्डलिनी शक्ति पिण्ड है। हंस पद है, बिन्दु ही रूप है तथा निरञ्जन, निराकार रूपातीत है, ऐसा कहते हैं॥ १२१॥ जो पिण्ड से मुक्त हुआ, पद से मुक्त हुआ, रूप से मुक्त हुआ और जो रूपातीत से मुक्त हो सका, हे श्रेष्ठ मुखवाली! उसी को मुक्त कहते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है॥१२२॥ 
      गुरूगीता के उपरोक्त दो महामंत्रों में योगीजनों की समस्त योगसाधना का सार है। विरले ही इसकी अनुभूति कर पाते हैं। भगवान् शिव बड़े क्रम से माता भवानी को इन रहस्यों की जानकारी देते हैं। वे कहते हैं कि कुण्डलिनी शक्ति ही पिण्ड है। इसका तात्पर्य यह है कि जब तक योग साधक में कुण्डलिनी शक्ति सुप्त रहती है, तब तक वह देह बोध और देहाभिमान से बँधा रहता है। ऐसा व्यक्ति कितनी ही पुस्तकें पढ़ डाले, भले कितनी ही शास्त्रों का अध्ययन कर ले, पर उसे देह बोध से मुक्ति नहीं मिलती। इनके पास तर्क तो होते हैं, पर बोध नहीं होता है। ये बातें कितनी ही ऊँची क्यों न करें, पर वह वासनाओं की कीचड़ और कलुष से मुक्त नहीं हो पाता। उसे यह मुक्ति मिलती है- कुण्डलिनी शक्ति के जागरण से। 
      कुण्डलिनी के जागृत होते ही कीचड़ धुलने लगती है, कुसंस्कारों की काई छटने लगती है और तब उसे अनुभव होता है कि देह से परे भी उसकी सत्ता है। इस तरह ऐसा साधक कुण्डलिनी के जागरण एवं ऊर्घ्वगमन के साथ ही पिण्ड से मुक्त हो जाता है; परन्तु यह मुक्ति का पहला चरण है। इसके आगे की यात्रा तब सम्भव होती है, जब वह पद को पहचानता है। प्राण रूप हंस की सूक्ष्मताओं एवं विचित्रताओं से परिचित होता है। देह में जितने बन्धन है, वे सब के सब स्थूल हैं, परन्तु प्राण की प्रकृति देह की तुलना में सूक्ष्म है। इस प्राण को भलीभाँति जान लेने पर ,इसे अपनी साधना से स्थिर कर लेने पर उसे पद मुक्ति के रूप में मुक्ति के दूसरे चरण का अनुभव होता है। 
      इस अवस्था में पहुँचे हुए योगी को वासनाएँ नहीं सताती, कुसंस्कारों की कीचड़ उसे कलुषित नहीं करती। वह भय से सर्वथा मुक्त हो जाता है। परन्तु यहीं से उसके जीवन में ऋद्धियों का, सिद्धियों का सिलसिला प्रारम्भ होता है। परिष्कृत प्राण एवं पारदर्शी मन उसमें अनेक अलौकिक विभूतियों को जन्म देते हैं। हालाँकि इसमें स्थूल जैसा कुछ भी नहीं होता। परन्तु इनके प्रयोग एवं परिणाम से सूक्ष्म अभिमान तो जगता ही है। इनसे छुटकारा इतना आसान नहीं है। यह तो योग साधक को परिष्कृत प्राण एवं पारदर्शी मन उसमें अनेक अलौकिक विभूतियों को जन्म देते हैं। हालाँकि इसमें स्थूल जैसा कुछ भी नहीं होता। परन्तु इनके प्रयोग एवं परिणाम से सूक्ष्म अभिमान तो जगता ही है। इनसे छुटकारा इतना आसान नहीं है। यह तो योग साधक को के वल आत्म साक्षात्कार के बाद ही उपलब्ध होता है। 
      किन्तु यह तभी होता है, जब इसे बिन्दु रूप आत्मज्योति का दर्शन हो। यह दर्शन ही आत्म साक्षात्कार है। जो योग साधक इस आत्मरूप का साक्षात्कार करता है, वही मुक्ति के अगले चरण यानि कि रूप मुक्ति का आनन्द उठा सकता है। योग साधक की यह अवस्था पूर्णतः द्वन्द्वातीत होती है। न यहाँ सुख होता है और न दुःख। किसी तरह के सांसारिक- लौकिक कष्ट उसे कोई पीड़ा नहीं देते। गुण गुणों में बसते हैं, इस सत्य का अनुभव उसे इसी अवस्था में होता है। उपनिषदों में इसी को अंगुष्ठ मात्र आत्मज्योति का साक्षात्कार कहा गया है। इस ज्योति के दर्शन मात्र से योग साधक को स्वयं का ज्ञान एवं आत्मरूप में स्थिति की प्राप्ति हो जाती है। इस अवस्था का सच एक ऐसा सच है, जिसे अवुभवी ही जानते हैं। वही इसका सुख एवं आनन्द भोगते हैं। 
      मुक्ति की यह अवस्था पाने के बाद भी भेद बना रहता है। जीव सत्ता एवं परमात्म सत्ता के बीच पारदर्शी दीवार बनी रहती है। कुछ वैसा ही, जैसा कि लैम्प की ज्योति एवं देखने वाले के बीच शीशा आ खड़ा होता है। देखने वाला ज्योति को देखता है, परन्तु इसे छू नहीं सकता, इसमें समा नहीं सकता। कुछ इसी तरह आत्मज्योति में स्थिर हो जाने के बाद जीव सत्ता को परमात्मा की अनुभूति तो होने लगती है, परन्तु भेद करने वाली पारदर्शी दीवार नहीं ढहती। यह अवस्था आनन्ददायक होते हुए भी बड़ी पीड़ादायक एवं तड़पाने वाली है। 
      अनुभवी जनों को ही इसका अनुभव होता है। इस पारदर्शी दीवार को भेदना किसी साधनात्मक पुरूषार्थ से सम्भव नहीं है। कोई भी योग साधना, किसी तरह की तकनीक से यह कार्य नहीं हो सकता। इसके लिए तो बस भक्त की पुकार और भगवान् की कृपा का मेल चाहिए। शिष्य की तड़पन एवं सद्गुरु की कृपा से ही यह दीवार ढहती है- गिरती है। बड़ी कठिन एवं मार्मिक बात है यह ।। जो यहाँ लिखा और कहा जा रहा है, उसे पता नहीं कौन किस तरह से समझ सकेगा। पर यही सच है, यही सच है। जिसे अपने गुरू की यह कृपा मिल जाती है, उसी को रूपातीत निरूपित हो जाता है। यही सम्पूर्ण मुक्ति है। सद्गुरू की अपने शिष्य पर अनूठी कृपा है। इस कृपा को पाने वाला कौन होता है? इसे भगवान् सदाशिव अगले क्रम में बताते हैं। 

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118