गुरूगीता के महामन्त्रों में भक्ति रहस्य के साथ तत्त्व रहस्य भी समाया है। दृष्टि में यथार्थता आ सके, तो अनुभव होता है कि भक्ति एवं तत्त्व ज्ञान दोनों आपस में गुँथे हैं। साधक के अन्तःकरण में गुरूभक्ति का उदय उसमें आध्यात्मिक प्रकाश की पहली किरण की तरह होता है। गुरूभक्ति की प्रगाढ़ता के साथ साधक की अन्तर्चेतना सूक्ष्म होती जाती है। इसी के साथ उसके अनुभवों की सीमाएँ व्यापक हो जाती हैं। इनके स्तर एवं स्थिति में भी बदलाव आता है। इस प्रक्रिया के क्रमिक रूप में साधक की सत्य एवं तत्त्व की झलक मिलती है। हालाँकि यह सम्पूर्ण आयोजन दीर्धकालीन है; परन्तु भक्ति से तत्त्वज्ञान के परिणाम सुनिश्चित हैं। जो शिष्य- साधक इस डगर पर संकल्पित होकर चल देते हैं- उन्हें अपने जीवन का लक्ष्य मिलना निश्चित हो जाता है।
गुरूगीता की भक्तिकथा में इस सत्य के कई आयाम प्रकट हो चुके हैं। पिछले मंत्र में ध्यान की नयी प्रक्रिया सुझायी गयी है। इसमें भगवान् सदाशिव के कथन को उजागर करते हुए बताया गया है कि हृदय में चिन्मय आत्मज्योति के अंगुष्ठ मात्र स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। इस ध्यान की गहनता एवं प्रगाढ़ता में साधक को अगम- अगोचर ब्रह्मतत्त्व की अनुभूति होती है। जिस तरह सुगन्धित पदार्थों में स्वाभाविक रूप से सुगन्ध व्याप्त है, उसी तरह से परमात्मा सर्वव्यापी है। अपनी आत्मचेतना में ध्यान करते रहने से कीट- भ्रमर न्याय की भाँति यह जीवात्मा आत्मतत्त्व का अनुभव करते हुए ब्रह्मतत्त्व में विलीन हो जाता है। ध्यान के इस शिखर में साधक को सह अनुभव होता है कि अपने सद्गुरू निराकार स्वरूप ही ब्राह्मी चेतना हैं। जो सद्गुरू को तत्त्व से जान लेता है, वह सही मायने में तत्त्ववेता हो जाता है।
ध्यान से तत्त्वज्ञान के क्रम में माँ भवानी भगवान् सदाशिव से जिज्ञासा करती हैं-
श्री पार्वत्युवाच-
पिण्डं किंतु महादेव पदं कि समुदाहृतम्।
रूपातीतं च रूपं किं एतद् आख्याहि शंकर॥ १२०॥
श्री पार्वती कहती हैं- पिण्ड क्या है? पद किसे कहते हैं? हे शंकर रूप क्या है और रूपातीत क्या है? यह आप हमें बताएँ।
जगन्माता भवानी की ये जिज्ञासाएँ जीव को तत्त्व बोध कराने वाली हैं। सन्तान की सबसे अधिक चिन्ता माता को होती है। माँ के सिवा अपनी सन्तान की कल्याण कामना भला और कौन करेगा? इसी कल्याण कामना से प्रेरित होकर माता ने जगदीश्वर से ये जिज्ञासाएँ कीं। इन जिज्ञासाओं की गहनता एवं व्यापकता अति विस्तार लिए हुए है। इन कुछ प्रश्नों में अध्यात्म का मूल मर्म है। अध्यात्मज्ञान के जो भी मौलिक सवाल हैं- वे सभी इनमें समाए हुए हैं। इनके हल होने से जीवन की सभी गुत्थियाँ स्वयं ही सुलझ जाती हैं। हालाँकि इनको सही ढंग से समझने के लिए इन सभी प्रश्नों पर एक- एक करके विचार करने की जरूरत है।
इनमें से सबसे पहला सवाल है पिण्ड क्या है? सामान्यतया यह सभी जानते हैं कि पिण्ड देह को कहते हैं। देह की अनुभूति सभी को होती है। विशेषज्ञ इसकी रचना, क्रिया, विकृतियों एवं इसके समाधान को जानते हैं। चिकित्सा विशेषज्ञ वर्षों तक लगातार इसे पढ़ते हैं- इसके बारे में अनुसन्धान करते हैं। हालाँकि इस अथक परिश्रम के बावजूद कबूल करते हैं कि उनके शोध प्रयास अभी अधूरे हैं। इस देह ज्ञान से अलग पिण्ड का तत्त्वज्ञान अलग है। पिण्ड चिकित्सा विज्ञान का शब्द न होकर योग विज्ञान का शब्द है। इसे योग की दृष्टि से ही सोचा और जाना चाहिए।
जीव को पिण्ड मिलने और इसमें आबद्ध होने का कारण उसकी वासनाएँ, चाहतें और इच्छाएँ हैं। वासनाएँ जब तक हैं, जीव का पिण्ड से छुटकारा नहीं है। इतना ही नहीं, वह इन वासनाओं से लिपटे रहने के कारण स्वयं को ही पिण्ड समझने लगता है। ग्रामीण अंचल में एक बड़ा प्रचलित मुहावरा है- पिण्ड छुड़ाना। किसी जंजाल या विपत्ति से पीछा छूटने पर कहते हैं कि चलो पिण्ड छूटा। भले ही इस कहावत पर किसी ने गहराई से विचार न किया हो, परन्तु सच यही है कि पिण्ड छूटना बड़े महत्त्व की बात है; परन्तु योगीजन जानते हैं कि पिण्ड से मुक्त होना वासनाओं से मुक्त होने के बाद ही सम्भव है और वासनाएँ कुण्डलिनी शक्ति के जागरण व ऊर्ध्वगमन के बाद ही छूट पाती हैं। सो वासनाओं और इससे पैदा होने वाले कर्म बीजों व इसके परिणामों को जिसने जान लिया, समझो उसने पिण्ड के तत्त्व को जान लिया।
माता जगदम्बा प्रभु से अगला सवाल करती हैं- प्रभु पद किसे कहते हैं? यह पद शब्द भी यौगिक शब्दावली की एक गहरी विशेषता है। योग में जीवात्मा को पद कहा गया है। इसका एक नाम हंस भी है। इस हंस का ज्ञान सामान्य जनों को नहीं होता; क्योंकि वासनाओं से चंचल प्राणों में यह अनुभूति नहीं हो पाती। जब वासनाओं का वेग थमता है, तब प्राण स्थिर होते हैं। और प्राणों की इस स्थिरता में हंस का अनुभव होता है। यह अनुभव जीवात्मा का है। जीवात्मा का मतलब है आत्मचेतना का वह स्वरूप जिसने प्रकृति बन्धनों के कारण जीव भाव को स्वीकार कर लिया है। जीव भाव से मुक्त होने पर ही योग साधना में आत्मतत्त्व की अनुभूति होती है।
इसी क्रम में माँ की अगली जिज्ञासा है कि प्रभु रूप क्या है? रूप का मतलब है- आत्मरूप का। यह आत्मरूप है- आत्मज्योति रूप नीलबिन्दु। इसका अनुभव साधक को आत्मज्योति का अनुभव देता है। इस अनुभूति के साथ ही साधक को अपने आत्मरूप का ज्ञान व भान हो जाता है। सभी जप, योग एवं तप का सुफल यही है। जिसकी यह स्थिति नहीं है समझो उसे अभी अध्यात्म की कक्षा में प्रवेश नहीं मिला। योग साधना में रूप दर्शन एवं रूप मुक्ति यही दो क्रम हैं। इन्हें पूरा कर लेने पर रूपातीत अनुभूति का क्रम होता है। यह अध्यात्म विद्या की उच्च कक्षा है इसमें प्रवेश साधक को जन्मों की साधना के बाद मिलता है।
इस उच्च कक्षा के बारे में जगन्माता भवानी अगली जिज्ञासा करती हैं- प्रभु रूपातीत क्या है? रूपातीत है ब्राह्मीचेतना। सभी रूप इसी से उदय होते हैं और इसी में विलीन हो जाते हैं। यह अनुभूति विरल है। जन्म- जन्मान्तर की साधना के बाद ही साधक इसकी प्राप्ति का अधिकारी हो पाता है। इसे पाने पर न शोक रह जाता है और न मोह। माया से परे अगम- अगोचर प्रभु की अनुभूति अति असाधारण अनुभव है। इस अनुभव में साधना की सार्थकता है। यहीं जीव शिव बनता है। इस शिवत्व की प्राप्ति में उसकी गुरूसेवा की सफलता है। उसके सद्गुरू के वरदान का सुफल है। जिसको यह मिल गया समझो उसे सब मिल गया।
हालाँकि यह तत्त्व बोध होता है क्रमवार ही ।। सबके पहले पिण्ड बोध करना होता है। किन वासनाओं के प्रतिफल से यह देह मिली है। किन कर्मबीजों के कारण वर्तमान परिस्थितियाँ हैं। इसे अपनी साधना की गहराई में अनुभव करना होता है। इसके बाद आता है प्राणों की गति का क्रम। प्राणों की गति का ऊर्ध्व व स्थिर होना जीवात्मा के साक्षात्कार का कारण बनता है। इसके बाद ही हो पाता है आत्मज्योति के दर्शन का क्रम और बाद में ब्राह्मी चेतना से सायुज्य की स्थिति बनती है। यह सायुज्यता मिलने पर साधक को अपने सद्गुरू के निराकार निरञ्जन तत्त्व का साक्षात्कार होता है। माँ की इन जिज्ञासाओं में भगवान् सदाशिव के उत्तर अत्यन्त मर्मस्पर्शी हैं।