गुरुगीता

संकटमोचक मोक्षदायी है गुरूगीता का पाठ

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     गुरूगीता की साधना शिष्य- साधक के सूक्ष्म जीवन में अचरज भरे परिवर्तन करती है। इससे अकाट्य कर्म कटते हैं, अमिट संस्कार मिटते हैं। दुस्तर दुयोग, महासंकट विनाशक प्रारब्ध गुरूभक्त साधक को नहीं व्यापते। जो अनुभवी हैं, वे अपने अनुभव के बल पर इस सत्य का उद्घोष करते हैं कि गुरूगीता की मंत्र- महिमा व गुरूकृपा संयोग असाध्य को साधने वाला है। इन पंक्तियों को न तो कोई कल्पना मानें और न अतिशयोक्ति, बल्कि इसे अध्यात्म विज्ञान का प्रायोगिक सच माना जाय। जिसे अनेकों साधकों ने अपने जीवन में जिया है। इच्छा करने पर दूसरे भी गुरूगीता की मंत्र सामर्थ्य एवं गुरूकृपा की महाशक्ति के आश्चर्यकारी अनुभव पा सकते हैं। यह केवल लिखी जाने वाली ,पढ़ी जाने वाली, कही जाने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि की जाने वाली, जी जाने वाली सच्चाई है। 
     इसका प्रकटीकरण पिछले क्रमों में विविध रूप में हुआ है। बीती गुरूभक्ति कथा में भी भगवान् सदाशिव ने माँ जगदम्बा को बताया है कि सद्गुरू के संतोष मात्र से करोड़ों जन्मों के जप- तप एवं व्रत आदि क्रियाएँ सफल हो जाती हैं। जो अपनी विद्याबल एवं तपबल के गर्व में गुरूसेवा नहीं करते, वे अभागे हैं। फिर वे स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवर्षि, पितर, किन्नर अथवा कोई भी क्यों न हों। यही नहीं, सिद्ध चारण, यक्ष एवं मुनिजन भी गुरूसेवा रहित होने पर हतभाग्य ही कहे जायेंगे। गुरू भाव ही परमतीर्थ है, इसके बिना अन्य सारे तीर्थ निरर्थक हैं। शास्त्र सम्मत सच यही है कि सारे तीर्थ सद्गुरूदेव के पाँव के अँगूठे में आश्रय ग्रहण करते हैं। गुरूगीता का जप मनुष्य को विजय देता है। उसे इस साधना से अनन्त फल मिलता है। इसलिए उचित यही है कि मनुष्य हीन कर्मों का त्याग करके सभी अधम स्थानों का परित्याग करके इस श्रेष्ठ जप को करे। 
     इस प्रकरण को आगे बढ़ाते हुए भगवान् भोलेनाथ कहते हैं- 

जपं हीनासनं कुर्वन् हीनकर्मफलप्रदम्। 
गुरूगीतां प्रयाणे वा संग्रामे रिपुसंकटे॥ १७६॥ 
जपन् जयमवान्प्रोति मरणे मुक्तिदायकम्। 
सर्वकर्म च सर्वत्र गुरूपुत्रस्य सिद्ध्यति॥ १७७॥ 
इदं रहस्यं नो वाच्यं तवाग्रे कथितं मया। 
सुगोप्यं च प्रयत्नेन मम त्वं च प्रियात्विति॥ १७८॥ 

      गुरूगीता का हीन आसन में जप करने पर हीन फल मिलता है। प्रस्थान काल में, संग्राम के समय ,शत्रुसंकट होने पर इसका जप प्रयोग करने पर निश्चित ही जप लाभ मिलता है। मरण समय गुरूगीता का मंत्र चिंतन मोक्ष प्रदाता है। गुरूगीता की ही भाँति गुरूपुत्र से कराई गयी सभी आध्यात्मिक प्रक्रियाएँ सब भाँति सिद्धि देने वाली हैं॥१७६- १७७॥ भगवान् महादेव माँ पार्वती से कहते हैं- हे देवि ! तुम मेरा प्रिय करने वाली हो। इसलिए गुरूगीता का यह रहस्यमय ज्ञान मैंने तुम्हारे सामने प्रकट किया है। इसे जिस किसी के सामने प्रकट करना ठीक नहीं है। इसे यत्नपूर्वक गोपनीय रखना चाहिए। 
     भगवान् शिव के इन वचनों में न केवल गुरूगीता की मंत्र महिमा का बखान है, बल्कि इसके कई रहस्यमय प्रयोगों का संकेत भी है। ऐसे रहस्यमय प्रयोग जो प्रस्थान काल ,संग्राम एवं शत्रु संकट उपस्थित होने पर किये जाते हैं। मरण समय में गुरूगीता का पाठ मोक्षदायी है। इन दिनों इन सभी रहस्यमय प्रयोगों को जानने वाले लगभग नहीं के बराबर हैं। कहा जाता है कि कुछ शताब्दी पूर्व गायत्री के परम साधक विद्यारण्य गुरूगीता के रहस्यों के अनुभवी जानकर थे। उन्होंने कई विकट अवसरों पर इनके प्रयोग से अपने शिष्यों को आश्चर्यजनक सफलता दिलायी। 
     जिन्होंने इतिहास के पृष्ठ पलटे हैं वे स्वामी विद्यारण्य एवं उनके पराक्रमों शिष्यों हरिहर और बुक्का की कथा से परिचित होंगे। 
     इन शिष्यों ने गुरूकृपा के बल पर विजयनगरम साम्राज्य की स्थापना की थी। साधारण सैनिक से साम्राज्य संस्थापक सम्राट् का गौरव दिलाने में स्वामी विद्यारण्य की आध्यात्मिक शक्ति की महनीय भूमिका रही। साम्राज्य स्थापना के दिनों में हरिहर एवं बुक्का को बड़े कठिन एवं जटिल संघर्ष झेलने पड़े। कई बार वह मृत्यु संकट से बचकर निकले। शत्रुओं के घातक एवं संहारक अस्त्रों से उन्हें बचते देखकर अनेकों बार लोग चकित हुए, पर हरिहर व बुक्वा का आत्मविश्वास हमेशा इन कठिन घड़ियों में बढ़ा- चढ़ा रहता। 
     एक बार ऐसे ही भीषण संग्राम में ये दोनों भ्राता शत्रुओं की बड़ी सेना से अचानक घिर गये। इनके साथ केवल अंगरक्षक सैनिक थे। अंगरक्षक सैनिकों की यह छोटी सी टुकड़ी भला विशाल शत्रु सेना का क्या करती? स्थिति यह थी कि अंगरक्षक स्वयं को मिटाकर भी अपने महाराज भ्राताओं को बचा नहीं सकते थे। अंगरक्षक सैनिकों का धैर्य जाता रहा। इनमें से कई तो फूट -फूट कर रोने लगे। उन्हें अपने असहाय होने पर तरस आ रहा था, पर करते भी क्या? अपने इन सैनिकों ही यह दयनीय दशा देखकर महाराज हरिहर ने उन्हें धीरज बँधाते हुए कहा- वीरों! हिम्मत मत हारो। जीवन में ऐसे कई पल और परिस्थितियाँ आती हैं ,जब हम निरूपाय होते हैं। ऐसा भी बहुत कुछ होता है, जिसे करने में स्वयं भगवान् असमर्थ हो जाएँ। लेकिन महाराज आप और हम क्या कर पायेंगे? अंगरक्षकों में से एक देवनायक ने कहा। बुक्का ने अपने भ्राता हरिहर की ओर देखा और मुस्कराये तथा उनसे कहा- अभी तुम गुरूकृपा का चमत्कार देखो। ऐसा कहते हुए दोनों गुरूभक्त भाइयों ने अपने गुरूवर का स्मरण किया। साथ ही गुरूगीता के कतिपय विशिष्ट मंत्रों का होंठों ही होंठों में जप किया। अंगरक्षक सैनिक अपने महाराज भ्राताओं का यह कार्य बड़े निराश मन से देखते रहे।
      कुछ ही पलों के बीतते ही आश्चर्यजनक रूप से बादल छाने लगे। तेज हवाओं के साथ घटाएँ घिर आयीं। काली घटाओं के साथ घिर आये अँधेरे और मुसलाधार वारिश ने शत्रु सेना को संकट में डाल दिया। प्रकृति के इस प्रकोप ने हरिहर और बुक्का भाइयों को स्वतः ही वहाँ से निकलने का मार्ग दे दिया। वे दोनों अपने अंगरक्षकों के साथ वहाँ से सुरक्षित निकल गये। शत्रु सेना उन्हें घेरने की योजना ही बनाती रह गयी। बल्कि इस अचानक हुए प्राकृतिक परिवर्तन से उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा। इस परिवर्तन से सैनिक भी चकित थे। आखिर क्या है उस ताबीज जैसा? क्या थे वे मंत्र जिन्हें इन भाइयों ने दुहराया? अंगरक्षक सैनिकों की इस जिज्ञासा पर महाराज हरिहर ने हँसते हुए बताया- यह गुरूकृपा का सुफल है। हमारे गुरूदेव स्वामी विद्यारण्य ने हमें गुरूगीता के नित्यपाठ का आदेश देते हुए गुरूगीता के कुछ विशिष्ट मंत्रों के हवन से एक मंत्र कवच विनिर्मित करके दिया है। स्वर्णमण्डित ताबीज ही वह कवच है। संकट में इससे रक्षा होती है और गुरूदेव की सहायता प्राप्त होती है। आज वही हुआ, गुरूगीता ने ही संकट में हमारी जान बचायी है। सचमुच ही इसका महत्त्व आश्चर्यजनक है।

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