गुरुगीता

सर्वसंकटहारिणी गुरूगीता की मंत्र साधना

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     गुरूगीता की मंत्र साधना सर्वसंकट हारिणी है। जिसने भी गुरूगीता का पाठ अनुष्ठान किया, उन सभी के अनुभव आश्चर्यकारी रहे हैं। गुरूगीता की मंत्र माला, गुरूतत्त्व का बोध, शिष्य प्रबोध एवं तत्त्व चर्चा के साथ अनेकों मांत्रिक रहस्य भी हैं। जो इन रहस्यों को जानकर उनका प्रयोग करना सीख जाता है, वह कभी भी दुस्तर संकट के जाल में नहीं उलझता, कु्रर ग्रहों की पीड़ाएँ उसे कभी नहीं सतातीं। दुःख और दुर्भाग्य उसे छू तक नहीं पाते। गुरू चेतना है ही सारे आश्चर्यों ,चमत्कारों व अलौकिक शक्तियों का घनीभूत पुञ्ज। बात बस केवल अनुभव की है। अब तक ये अनुभव अनेकों ने किए हैं और अनगिनत अभी कर सकते हैं। अनुभवी साधकों के मध्य यह बहुत ही सुप्रचलित वाक्य है कि जब गुरूगीता है, तब भला अन्य शास्त्रों व साधनाओं के विस्तार से क्या लाभ?
     गुरूगीता के पिछले क्रम में इस साधना रहस्य के कई गूढ़ संकेत किए गए हैं। इसमें बताया गया है कि समुद्र में जिस तरह से जल, दुग्ध में दुग्ध ,घृत में घृत, घड़े का आकाश घड़े के फूट जाने से घड़े में मिल जाता है, उसी तरह से आत्मा परमात्मा में लीन हो जाता है। गुरूगीता की साधना से जीवात्माएँ जिस एकता का अनुभव करती हैं, वह उन्हें दिन- रात आनन्द में विभोर रखती है और वह जीवन मुक्ति का आनन्द उठाता है। ऐसी महनीय विभूतियों की जो भाव- भक्ति करता है, वह सन्देह रहित होकर सभी आध्यात्मिक -लौकिक सुख प्राप्त करता है, वह सन्देह रहित होकर सभी आध्यात्मिक -लौकिक सुख प्राप्त करता है, उसे भोग एवं मोक्ष मिलते हैं, 
उसकी जिह्वा पर सरस्वती निवास करती है। 
     इस गुरू रहस्य कथा के अन्य आयाम प्रकट करते हुए भगवान् सदाशिव कहते हैं- 

अनेन प्राणिनः सर्वे गुरूगीता जपेन तु। 
सर्वसिद्धिं प्रान्पुवन्ति भुक्तिं मुक्तिं न संशयः॥ १६६॥ 
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं धर्म्यं सांख्यं मयोदितम्। 
गुरूगीतासमं नास्ति सत्यं सत्यं वरानने॥ १६७॥ 
एको देव एकधर्म एकनिष्ठा परं तपः। 
गुरोः परतरं नान्यत् नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्॥ १६८॥ 
माता धन्या पिता धन्यो धन्यो वंशः कुलं तथा। 
धन्या च वसुधा देवि गुरूभक्तिः सुदुर्लभा॥ १६९॥ 
शरीरमिन्द्रियं प्राणश्चार्थस्वजनबांधवाः। 
माता पिता कुलं देवि! गुरूरेव न संशयः॥ १७०॥ 

     गुरूगीता के जप अनुष्ठान से सारे प्राणी सभी सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं, भोग एवं मोक्ष पाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है॥ १६६॥ भगवान् सदाशिव पूरी दृढ़ता से माता पार्वती से कहते हैं- हे वरानने ! यह मेरे द्वारा प्रकाशित धर्मयुक्त ज्ञान है। यह सत्य ,सत्य और पूर्ण सत्य है कि गुरूगीता के समान अन्य कुछ भी नहीं है॥ १६७॥ एक ही देव है, एक ही धर्म है, एक ही निष्ठा और यही परम तप है कि गुरू से परे कोई भी तत्त्व नहीं है, गुरू से श्रेष्ठ कोई तत्त्व नहीं है, गुरू से अधिक कोई तत्त्व नहीं है॥ १६८॥ हे देवि! गुरूभक्त गुरुभक्त को धारण करने वाले माता- पिता, कुल एवम् वंश धन्य होते है, क्योंकि गुरुभक्त्ति अति दुर्लभ है। हे देवि! शरीर- इन्द्रिय, प्राण, धन, माता सभी सदगुण की चेतना का ही तो विस्तार है, इसमें कोई संशय नहीं है। 
     भगवान् सदाशिव के ये वचन अकाटय है। कोई भी व्यक्ति इन्हें अपने जीवन में परख सकता है। बस ,बात गुरुगीता की साधना करनें की है। युँ तो साधनाएँ बहुत है, हर एक का अपना महत्त्व है। सभी के अपने- अपने विधान एवं अपने सुफल है, लेकिन लेकिन इन सब की सीमाएँ भी है। प्रत्येक साधना अपना अभीष्ट पुरा करके चुक जाती है। परन्तु गुरुगीता का विस्तार व्यापक है, इससे काम्य अभीष्ट तो पुर्ण होते है, साथ ही वृत्तियाँ भी निर्मल होती है। अंत में सदगुरु एवम् परमात्मा दोनों की प्राप्ति होती है। यह बात इतनी खरी है कि जब कोई जहाँ चाहे इसे आजमा सकता है । 
     ऐसा ही अनुभव महाराष्ट्र के परमभक्त विष्णु शंकर को हुआ था। विष्णु शंकर सामान्य गृहस्थ थे। उनकी जीवन यात्रा सामान्य जनों की भाँति साधारण चल रही थी। घर- परिवार की मामूली उलझनों के साथ सब कुछ ठीक था। थोड़े बहुत उतार- चढ़ाव तो आते थे, पर अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था जिसे अघटित कहा जा सके। पर दैव का कोप कहें या दुर्विपाक, एकाएक सब कुछ उलट- पुलट गया। समय का फेर जिन्दगी में होता है, ऐसा लगने लगा। ग्रहों की क्रूर दशा साफ नजर आने लगी। खेती, घर, काम- काज, रिश्तों का संसार ,सब कहीं टुटन- दरारें नजर आने लगी। हानि ,षडयन्त्र और अपमान से विष्णु शंकर का जीवन घिर गया। वह क्या करें, कैसे करे, कहाँ जाय कुछ भी नहीं सूझ रहा था। 
     यहाँ तक कि हमेशा शांत एवम् स्वस्थ रहने वाले विष्णु शंकर चिड़चिड़े ,अन्यमनस्क, उदासीन एवं अवसादग्रस्त रहने लगे। विपरीत परिस्थितियों का प्रचण्ड वेग उन्हें असहाय बनाने लगा। ऐसी असहायता में उन्हें यदा- कदा आत्महत्या के विचार घेर लेते। अकेले बैठेकर वह फुट- फुटकर रोते रहते। कभी- कभी शिवालय जाकर भगवान शिव की लिंगमूर्ति के सामने बिलख उठते, परंतु उपाय नदारत था। अब तो असहा आर्थिक हानि के कारण भुखे- मरने की नौबत आ पहुँची थी। परन्तु कोई उपाय न था। 
     पर उस दिन सोते समय उन्होंने सपने में देखा कि एक श्रेव्त केश दाढ़ी एवं देदीप्यमान चेहरे वाले ऋषि उन्हें सान्त्वना देते हुए कह रहे है -धैर्य रखो पुत्र! यह पुर्वजन्म के कर्मों के कारण आया दुर्विपाक है। इस जीवन में तुमने ऐसे कोई काम नहीं किए, जिसका तुम्हें इतना कठोर दण्ड मिलता। पर कर्म तो कर्म होते है, इस जीवन के हों या पिछले जीवन के, भोगने तो पड़ते ही है, धैर्य रखो और कठिन तप में अपने को प्रवृत करो। तुम्हारे कठोर तप के प्रभाव से यह अंधेरा छिन्न- भिन्न हो जाएगा, पर तप का आधार क्या हो? अंतस में यह अनुगूँज उठी। यह अनुगूँज देर तक रहती इसके पहले ही ऋषि ने कहा- गुरुगीता भगवान शिव की वाणी है। शिवमुख से उच्चारित होने के कारण यह परम मंत्र है। इसमें असीम ऊर्जा समायी है। इसे ही अपने तप का आधार बनाओ। 
     उस दिव्य स्वप्र में ही उन ऋषि ने उन्हें तप की प्रकिया समझा दी। चन्द्रायण व्रत, नियमित गायत्री जप और गुरुगीता जप और गुरुगीता का पाठ अनुष्ठान, उन ऋषि ने मस्तक पर हाथ रखा। उनके दिव्य स्पर्श से विष्णुशंकर के मन का अवसाद जाता रहा। निद्रा से जगकर उन्हें चैतन्यता लग रही थी। मन हल्का था और उनमें तप का उत्साह संचारित हो रहा था। अगले दिन गुरुवार था। गुरुवार- गुरुचेतना के स्मरण का पुनीत क्षण है। ऐसा समझते हुए उन्होंने इस पावन क्षण में जो पुष्य नक्षत्र से भी जुड़ा था। ऐसे गुरुपुष्य योग में विष्णु शंकर ने अपनी तप साधना आरम्भ कर दी। 
     हालांकि परिस्थितियों में अभी भी अपमान, षड़यंत्र ,हानि एवं कुचक्रों के प्रबल झंझावात उठ रहे थे। पर अब मन:स्थिति भिन्न थी, उसमें तप के लिए प्रबल उत्साह था और दैवी सहायता पर प्रबल विश्वास भी। इसी विश्वास की पूँजी के साथ तप की अंतर्धारा बह चली। दिवस, मास बीतने लगे। छ: महीने तक तो परिस्थितियों में किसी तरह का कोई परिवर्तन नहीं दिखाई दिया, परन्तु छह महीने बाद घने अँधेरे में प्रकाश की किरणें फुटने लगी। इतना हुआ कि भूखे मरने की नौबत समाप्त हुई। बाहर अपमान एवं व्यंग के अवसर कम होने लगे सघन अँधेरे में यह उजाले की वृष्टि बढ़ती गयी। गुरुगीता ने उन्हें आश्रय, आश्र्वासन एवं सुफल सभी कुछ दिया। अब वह अनुभव कर रहे थे कि गुरुगीता दुष्कर संकटों का सार्थक समाधान है, जो संकटों के पाश से पाश से मुक्त कर गुरुभक्ति ईश्वरनिष्ठा का वरदान देती है। 

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