गुरुगीता

साक्षात् भगवान् विश्वनाथ होते हैं - सद्गुरू

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     गुरूगीता के महामंत्रों में साधना का परम रहस्य है। इसे जानने वाला जीवन की सारी भटकन से क्षण में ही उबर जाता है। जब समर्थ सद्गुरू के चरणों का आश्रय सुलभ हो, तब भला और कहीं भटकने से क्या फायदा? दयामय गुरूदेव के चरणों की महिमा की कथा उपर्युक्त मंत्रों में कही गयी है। इसमें भगवान् महादेव ने माता पार्वती को बताया हे कि सद्गुरू के चरणों के जल से किस तरह से साधक को यौगिक ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। किस तरह उसमें ज्ञान- वैराग्य आदि गुणों का विकास होता है। शिष्य के अन्तर्मन में ज्यों- ज्यों गुरू भक्ति प्रगाढ़ होती है, त्यों- त्यों उसका अन्तःकरण ज्ञान के प्रकाश से भरता जाता है। गुरूकृपा ही के केवलम् शिष्य के साधनामय जीवन का एक मात्र सत्य है। 
      इसे समझाते हुए देवाधिदेव भगवान् महादेव जगदम्बा पार्वती से आगे कहते हैं- 

गुरोः पादोदकं पीत्वा गुरोरूच्छिष्टभोजनम् ।। 
गुरूमूर्तेः सदा ध्यानं गुरूमन्त्रं सदा जपेत्॥ १५॥ 
काशीक्षेत्रं तन्निवासो जाह्नवी चरणोदकम्। 
गुरूः विश्वेश्वरः साक्षात् तारकं ब्रह्मनिश्चितम्॥ १६॥ 
गुरोः पादोदकं यत्तु गयाsसौ सोऽक्षयोवटः। 
तीर्थराज प्रयागश्च गुरूमूर्त्यै नमोनमः॥ १७॥ 

     गुरू भक्त साधक की समर्थ साधना का सार इतना ही है कि वह गुरू चरणों के जल (चरणामृत) को पिए। गुरू को पहले भोज्य पदार्थों को समर्पित कर बाद में स्वयं उन्हें प्रसाद रूप में ग्रहण करे॥ १५॥ 
     गुरू का निवास ही मुक्तिदायिनी काशी है। उनका चरणोदक ही इस काशीधाम को आध्यात्मिक ऊर्जा से भरने वाला गंगाजल है। गुरूदेव ही भगवान् विश्वनाथ हैं। वही साक्षात् तारक ब्रह्म हैं ॥ १६
     गुरूदेव का चरणोदक गया तीर्थ है। वह स्वयं अक्षयवट एवं तीर्थराज प्रयाग है। ऐसे सद्गुरू भगवान् को प्रणाम करना ,, नमन करना ही साधक के जीवन का सार सर्वस्व है॥ १७॥ 
     इन मंत्रों के भाव गहन हैं, पर इनकी साधना अति सुगम और महाफलदायी है। जब सर्वदेव देवीमय कृपालु सद्गुरू का सान्निध्य हमें सुलभ है, तब अन्यत्र क्यों भटका जाए? गुरूदेव का चरणोदक महाप्रभावशाली है। यह सामान्य जल नहीं है। इसमें तो उनकी तप चेतना घुली रहती है। गुरूदेव जब स्थूल कलेवर में नहीं हैं, तब ऐसी स्थिति में जल पात्र में उनके चरणों की भावना करते हुए चरणोदक तैयार किया जा सकता है। इसका पान साधक के हृदय में भक्ति को प्रगाढ़ करता है। इसी तरह साधक का भोजन भी गुरूदेव का प्रसाद होना चाहिए। स्वयं भोजन करने से पहले गुरूदेव को भोग लगाए। मन ही मन सभी भोज्य पदार्थों को उन्हें अर्पित करे। प्रगाढ़ता से भावना करे कि कृपालु गुरूदेव हमारे द्वारा अर्पित पदार्थों को ग्रहण कर रहे हैं। बाद में उस भोजन को उनका प्रसाद समझ कर ग्रहण करे। 
     मनुष्य शरीर में होने पर भी सद्गुरू कभी भी सामान्य मनुष्य नहीं होते। वह तो परमात्मा चेतना का घनीभूत रूप है। उनका निवास शिष्यों के लिए मुक्तिदायिनी काशी है। इस कथन में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है ; क्योकि सद्गुरू जहाँ रहते हैं, वहाँ उनकी तपश्चेतना का घनीभूत प्रभाव छाया रहता है। न जाने कितने देवी- देवता, ऋषि- महर्षि सिद्धजन उनसे मिलने के लिए आते हैं। उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा भी उस क्षेत्र में घुलती रहती है। इस समस्त ऊर्जा की आध्यात्मिक प्रतिक्रिया अपने आप ही वहाँ रहने वालों पर पड़ती रहती है। जिनका हृदय अपने गुरू के प्रति भक्ति से भरा है। जो गुरूदेव की चेतना के प्रति ग्रहणशील हैं, ऐसे भक्त- साधकों का मोक्ष निश्चित है। गुरूधाम में निवास काशीवास से किसी भी तरह से कम नहीं है। 
     श्रद्धालुजनों में काशीवास के प्रति गहरी आस्था है। लोग वृद्धावस्था में घर- परिवार के मोह को छोड़कर काशी जाकर रहा करते थे। क्योंकि शास्त्र- पुराण सभी एक स्वर से कहते हैं कि काशीवास करने से काशी में जाकर शरीर छोड़ने से फिर से जीवन भवबन्धनों में नहीं पड़ता। भगवान् भोलेनाथ उसे मुक्ति प्रदान करते हैं। वही सभी जनों के मुक्तिदाता कृपालु भोलेनाथ माता पार्वती से गुरूगीता में कहते हैं कि गुरूधाम किसी भी तरह से काशी से कम नहीं है। गुरू जहाँ भी रहते हैं, वहीं काशी है। इस काशी के विश्वनाथ स्वयं गुरू हैं। वही साक्षात् तारक ब्रह्म का स्वरूप है। उनकी कृपा से शिष्य को अनायास और अप्रयास ही मुक्ति लाभ होता है। गुरूचरणों का जल ही इस काशी में गंगा की जलधारा है। जिसका एक कण भी जीवों को त्रिविध तापों से छुटकारा देता है। 
      भगवान् सदाशिव इस प्रकरण को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि गुरूदेव का चरणोदक काशी तीर्थ तो है ही, गयातीर्थ भी है। सनातन धर्म को मानने वाले सभी जन गया की महिमा से परिचित हैं। गया वह पवित्र क्षेत्र है, जहाँ प्रेतात्माओं को मुक्ति मिलती है। पुराणों में कथा है कि भगवान् विष्णु ने यहाँ पर गयासुर के मन में भगवान् के प्रति भक्ति भी थी। इस भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु ने उससे वरदान माँगने के लिए कहा। तब गयासुर ने सृष्टि के पालनहार विष्णु से यह वर माँगा कि प्रभु यहाँ जो भी अपने पितरों का श्राद्ध करे अथवा प्रेतयोनि में किसी भी आत्मा के लिए कोई यहाँ श्राद्ध संकल्प करे ,, तो उन पितर और प्रेत आत्माओं की मुक्ति हो जाए। 
     गुरूचरणों और चरण जल का प्रभाव भी कुछ ऐसा ही है। गुरूचरण केवल गुरूभक्त शिष्य के लिए ही कल्याणकारी नहीं है ; बल्कि उनके लिए भी कल्याणकारी है, जिनके कल्याण की कामना उस शिष्य के मन में उठती है। अपने गुरू का सच्चा शिष्य जिस किसी के लिए भी कल्याण की प्रार्थना करेगा, उसका कल्याण हुए बिना नहीं रहेगा। गुरूदेव के चरणों का सात्रिध्य अक्षय वट एवं तीर्थराज प्रयाग की भाँति है, जहाँ की गयी थोड़ी सी भी साधना अनन्त गुना फलदायी हो जाती है। यहाँ थोड़े से भी शुभकर्म अपरिमित एवं असीम फलदायी होते हैं। ऐसे कृपालु गुरूदेव के चरणों में साधक- शिष्यों का बार- बार नमन कल्याणकारी है। 
      कृपालु गुरूदेव की महिमा का अथ- इति से रहित अनन्त स्वरूप भगवान् भोलेनाथ के सिवा और कौन जान सकता है। सद्गुरू का स्मरण चिन्तन ही शिष्य के लिए महासाधना है। जिससे जीवन में सभी सुफल अनायास ही मिल जाते हैं।

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