गुरूगीता के महामंत्रों में सद्गुरू के ध्यान का संगीत है। इसकी सुरीली सरगम से एकाग्रता ,स्थिरता, शान्ति एवं पवित्रता की धुनें रची जाती हैं। इसके प्रभाव से व्यक्तित्व की अन्तर्निहित शक्तियों को अपनी सार्थक अभिव्यक्ति मिलती है। शिष्य- साधक ज्यों- ज्यों अपने सद्गुरू के ध्यान में डूबता है, त्यों- त्यों उसकी भाव चेतना गुरूप्रेम में भीगती जाती है। वह अपने प्यारे सद्गुरू के रंग में रँगता चला जाता है। यह अनुभूति ऐसी है, जिसे केवल पाने वाला अनुभव करता है। इसे न तो कहा जा सकता है और न बताया जा सकता है। ध्यान के रूप और रंग कई हैं। इसकी विधियाँ और तकनीकें कई हैं। इनमें से सभी का अपना विशेष प्रभाव है; लेकिन सद्गुरू के ध्यान की भावदशा कुछ और ही है। इसके प्रभाव की रूप छटा के रंग ही निराले हैं।
इन्हीं में से कुछ रंगों की कथा पिछले मंत्रों में कही गयी है। शिष्यों को यह बोध कराया गया कि गुरूदेव आनन्दमय रूप हैं। उनसे शिष्यों को आनन्द मिलता है। वे प्रभु प्रसन्नमुख एवं ज्ञानमय हैं। वे सदा ही आत्मबोध में निमग्र रहते हैं। योगीजन सदा उनकी स्तुति करते हैं। संसार रोग के एक मात्र वैद्य उन गुरूदेव की स्तुति मैं करता हूँ। उन गुरूदेव को मेरा नित्य नमन है, जिनकी भाव चेतना में उत्पत्ति, स्थिति, ध्वंस, निग्रह एवं अनुग्रह का सिलसिला सदा चलता रहता है। इसी समर्पण भरी भक्ति से अपने सहस्त्रदल कमल में गुरूदेव का स्मरण, ध्यान करना चाहिए।
ध्यान की इस भाव भरी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए। भगवान् सदाशिव पराम्बा माँ भवानी से कहते हैं-
न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं
न गुरोरधिकं न गुरोरधिकम्।
शिवशासनतः शिवशासनतः
शिवशासनतः शिवशासनतः॥ ९६॥
इदमेव शिवं त्विदमेवशिवं।
त्विदमेव शिवं त्विदमेव शिवम्।
मम शासनतो मम शासनतो
मम शासनतो मम शासनतः॥ ९७॥
एवं विधं गुरूं ध्यात्वा ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम्।
तत्सद्गुरूप्रसादेन मुक्तोऽहमिति भावयेत्॥ ९८॥
गुरूदेव के अधिक कुछ नहीं है। गुरूदेव से अधिक कुछ नहीं है। गुरूदेव से अधिक कुछ नहीं है। गुरूदेव से अधिक कुछ नहीं है। यह शिव का आदेश है। यह शिव का आदेश है। यह शिव का आदेश है ।। यह शिव का आदेश है। यह शिव का आदेश है॥ ९६॥ भगवान् शिव कहते हैं- यह गुरू तत्व कल्याणकारी है। यह कल्याणकारी है ।। यह कल्याणकारी है। यह कल्याणकारी है। मेरा आदेश है। यह मेरा आदेश है। यह मेरा आदेश है॥ ९७॥ इस तरह (पिछली कड़ी में बतायी गयी) विधि से गुरूदेव का ध्यान करने से स्वतः ही ज्ञान उत्पन्न होता है। उन कृपालु सद्गुरू को कृपा से मैं मुक्त हूँ ऐसा चिन्तन करना चाहिए॥ ९८॥
गुरूगीता के इन मंत्रों में सद्गुरू के ध्यान की फलश्रुति बतायी गयी है। यह ध्यान प्रक्रिया वही है, जिसकी कथा पिछली कड़ी में कही गयी थी। यह ध्यान अतिविशिष्ट है। इस ध्यान से सद्गुरू के सदाशिव होने का अनुभव मिलता है और यह अनुभव कहता है कि गुरू से अधिक और कुछ नहीं है। यही परम कल्याणकारी है। शिव के इस आदेश व उपदेश की सार्थकता उन्हें अनुभव होती है, जो अपने सद्गुरू के ध्यान में रमे हैं।
सद्गुरू के ध्यान में रमी ऐसी ही एक गुरूकृपा सिद्ध महातपस्विनी माँ ज्योतिर्मयी का कथा प्रसंग बड़ा ही प्रेरक है। माता ज्योतिर्मयी का विवाह अल्पायु में उनके मायके वालों ने कर दिया था; पर देव का आघात उनके पति नहीं रहे। पति के बूढ़े माता- पिता भी इकलौते पुत्र के वियोग की वजह से स्वर्ग सिधार गए। इधर मायके वालों पर भी दुर्भाग्य की कुदृष्टि थी। वह थी भी माता- पिता की इकलौती कन्या। पुत्री की इस दारूण वेदना से विह्वल माता- पिता अधिक दिन जीवित न रह पाये। वे भी परलोकवासी हो गए। बारह- तेरह वर्ष की बालिका ज्योतिर्मयी का इस संसार में अपना कोई न रहा।
रोती - बिलखती, यह विधवा बालिका अपने के घने अँधेरे से घबरा गई। क्या करें? कहाँ जाएँगे? ये सवाल उसके सामने भूखे शेर की तरह गर्जने लगे। इनसे छुटकारा पाने के लिए उसके पास मात्र गंगा की गोद के सिवा और कोई भी रास्ता न था। सो उसने अपने गाँव के पास बहती हुई गंगा नदी की धारा में प्राण त्यागने की ठान ली। रात के घने अँधेरे में जब वह गंगा की गोद में छलाँग लगाने के लिए उद्यत थी, तभी किसी ने पीछे से आकार उसका हाथ पकड़ लिया ।। अचानक इस तरह हाथ पकड़ लेने पर वह चिहुँकी और चौंकी। पीछे मुड़कर देखा ,तो गैरिक वस्त्रधारी एक वृद्ध संन्यासी खड़े थे। उनके श्वेत केश शुभ्र चाँदनी में चाँदी की तरह चमक रहे थे।
उन्होंने प्यार से उसका हाथ थाम कर केवल इतना कहा- बेटी! जिसका कोई नहीं होता, उसका भगवान् होता है। भगवान् अपने इस सबसे प्यारे बच्चे की सहायता के लिए किसी न किसी को अवश्य भेजता है। उसी ने तुम्हारे लिए मुझे भेजा है। आओ तुम मेरे साथ आओ। उन संन्यासी के स्वरों में माँ की ममता थी। बालिका ज्योतिर्मयी ने उन पर सहज विश्वास कर लिया। वही उनके गुरू हो गए और भरोसा ,गुरू का ध्यान ही उसका धर्म बन गया। इसी धर्म के निर्वाह में उसके दिवस- रात्रि बीतने लगे।
प्रातः स्नान आदि नित्यकर्मों से निबटकर वह सद्गुरू के ध्यान में खो जाती। सहस्त्रदल कमल पर गुरूदेव की भव्यमूर्ति का ध्यान यही उसकी साधना थी। नियमित अभ्यास के प्रभाव से ध्यान का चुम्बकत्त्व घना होता गया और इस चुम्बकत्त्व ने उसके प्राण प्रवाह की गति बदल दी। निम्रगामी प्राण विद्युत् ऊर्ध्वगामी होने लगी। जो ऊर्जा निम्र केन्द्रों पर एकत्रित रहती थी। अब उसने ऊर्ध्वगामी होकर चेतना के उच्च केन्द्रों को जाग्रत् करना प्रारम्भ कर दिया। चक्रों के जागरण, बेधन एवं प्रस्फुटन की क्रिया चल पड़ी। सोते- जागते, उठते- बैठते ,, चलते- फिरते काम करते हुए ज्योतिर्मयी की भावनाएँ सहस्त्रदल कमल में स्थापित सद्गुरू की चेतना में विलीन होती रहती थी। समय के साथ इसमें प्रगाढ़ता आती गयी।
वर्षों बीत गए और गुरू ने स्थूल देह का त्याग कर दिया; पर उनकी सूक्ष्म चेतना के साथ ज्योतिर्मयी का अभिनव साहचर्य था। वह हमेशा कहती थी कि सच्चा शिष्य हमेशा अपने गुरू के साथ रहता है। वह अपने गुरू में रहता है और गुरू उसमें समाए रहते हैं। अब उसका व्यक्तित्व सभी आध्यात्मिक सिद्धियों, शक्तियों एवं विभूतियों का भण्डार बन गया। आध्यात्मिक साधना की दुर्लभ कही जाने वाली अवस्थाओं को उसने सहज प्राप्त कर लिया। हालाँकि उसके आस- पास के लोग उसकी इस उच्च स्थिति से अनजान थे। उन्हें तो इस सत्य का तब पता चला, जब हिमालय की दुर्गम कन्दराओं में तप करने वाले योगिराज महानन्द ने उन्हें बताया कि तुम्हारे गाँव के पास गंगा किनारे वास करने वाली माँ ज्योतिर्मयी परम योगसिद्ध हैं और उन्हें यह अवस्था सद्गुरू के ध्यान से मिली है। इस सच को सुनकर सभी कह उठे- सद्गुरू की महिमा अनन्त! इस अनन्त महिमा के अनन्त विस्तार का अगला आयाम इस प्रकार है-