गुरूगीता गुरूभक्ति की गंगोत्री है। यहाँ से प्रवाहित होने वाली गुरूभक्ति की गंगा जब शिष्यों के अन्तःकरण में प्रवेश करती है, तो उनके जन्म- जन्मान्तर के पापों का शमन होता है। साठ हजार सगर पुत्रों की आत्मशक्ति की ही भाँति यह भक्ति गंगा भी असंख्य शिष्यों के त्रिविध तापों को शान्त करती है। यह भक्ति गंगा सब भाँति कल्पषहारी है। शिष्य- साधक के कषाय- कल्मष इसके भक्ति जल में धुलते हैं। शिष्यों का अन्तर्मन इसके जल में धुल कर धवल होता है। इसे वे सभी अनुभव करते हैं, जो अपने आपको सच्चा शिष्य सिद्ध करने के लिए प्राण- प्रण से बाजी लगाए हुए हैं। इनकी एक ही टेर रहती है कि प्राण भले ही जाए, पर किसी भी भाँति उनका शिष्यत्व कलंकित न होने पाए।
शिष्यत्व की कसौटी पर अपने आप को खरा साबित करने के लिए इस गुरूभक्ति कथा के पूर्व मंत्र में बताया गया है कि गुरूदेव की भक्ति ही सार है। उनकी भक्ति से ज्ञान- विज्ञान सभी कुछ मिल जाता है। श्रुतियों में उन्हीं प्रभु की पराचेतना का निरूपण हुआ है। इसलिए मन और वाणी से उन्हीं सद्गुरूदेव की आराधना करते रहना चाहिए। गुरूसेवा को कमतर मानकर तप और विद्या को सब कुछ मानने वाले भले ही कुछ भी पा लें; लेकिन संसार चक्र से उनका छुटकारा नहीं हो पाता। इसीलिए सद्गुरू के शरणापन्न बने रहना ही साधना जीवन की सर्वोच्च कसौटी है।
इस सत्य को और भी स्पष्ट करते हुए भगवान् महेश्वर आदि- माता शैलसुता पार्वती से कहते हैं-
न मुक्ता देवगंघर्वा: पितरो यक्षकित्ररा:।
ऋषय: सर्वसिद्धाश्च गुरुसेवापरादड्मुखा:॥८६॥
ध्यानं शृणु महादेवि सर्वानन्दप्रदायकम्।
सर्वसौख्यकरं नित्यं भुक्तिमुक्तिविधायकम्॥ ८७॥
श्रीमत्परब्रह्म गुरूं स्मरामि श्रीमत्परब्रह्म गुरूं वदामि।
श्रीमत्परब्रह्म गुरूं नमामि श्रीमत्परब्रह्म गुरूं भजामि॥८८॥
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वतीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादि लक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरूं तं नमामि॥ ८९॥
नित्यं शुद्धं निराभासं निराकारं निरञ्जनम्।
नित्यबोधं चिदानन्दं गुरूं ब्रह्म नमाम्यहम्॥९०॥
देव हों या गन्धर्व, पितर ,यक्ष, किन्नर ,, सिद्ध अथवा ऋषि कोई भी हों, गुरू सेवा से विमुख होने पर उन्हें कदापि मोक्ष नहीं मिल सकता है॥ ८६॥ भगवान् भोलेनाथ कहते हैं, हे महादेवि! सुनो, गुरूदेव का ध्यान सभी तरह के आनन्द का प्रदाता है। यह सभी सुखों को देने वाला है। यह सांसारिक सुख भोगों को देने के साथ मोक्ष को भी देता है॥ ८७॥ सच्चे शिष्य को इस सत्य के लिए संकल्पित रहना चाहिए कि मैं गुरूदेव का स्मरण करूँगा, गुरूदेव की स्तुति- कथा कहूँगा। परब्रह्म की चेतना का साकार रूप श्री गुरूदेव की वाणी ,मन और कर्म से सेवा आराधना करूँगा॥ ८८॥ श्री गुुरूदेव बंह्मानन्द का परम सुख देने वाली साकार मूर्ति हैं वे द्वन्द्वातीत चिदाकाश हैं। तत्त्वमसि आदि श्रुति वाक्यों का लक्ष्य वहीं हैं। वे प्रभु एक, नित्य, विमल, अचल एवं सभी कर्मों के साक्षी रूप हैं। भावपूर्ण नमन है॥८९॥ श्री गुरूदेव नित्य ,शुद्ध ,निराभास, निराकार एवं माया से परे हैं। वे नित्यबोधमय एवं चिदानन्दमय हैं। उन परात्पर ब्रह्म गुरूदेव को नमन हैं॥९०॥
गुरूगीता के इन महामन्त्रों के सार को अपनी चौपाई में बाँधते हुए गोस्वामी तुलसी दास जी मानस में कहते हैं-
गुरू बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जो बिरंचि संकर सम होई ॥
यानि कि ब्रह्मा एवं शिव की भाँति समर्थ होने पर भी श्री गुरूदेव का आश्रय पाए बिना इस भवसागर को कोई पार नहीं कर सकता है। शिष्यों को- साधकों को यह सत्य भली भाँति आत्मसात् कर लेना चाहिए कि अध्यात्म तत्त्व गुरूगम्य है। श्री गुरू के बिना तप तो किया जा सकता है, सिद्धियाँ तो पायी जा सकती हैं, चमत्कार तो दिखाए जा सकते हैं, पर अध्यात्म के सत्य को गुरू के आशीष के बिना नहीं पाया जा सकता। गुरूकृपा के बिना आत्मतत्त्व का ज्ञान नितान्त असम्भव है।
इस सच्चाई को उजागर करने वाला एक बहुत ही प्रेरक प्रसंग है। टी.वी. कापालि शास्त्री दक्षिण भारत के बहुत ही उद्भट विद्वान् थे। वेदों के महापण्डित के रूप में उनकी ख्याति थी। वेदविद्या के साथ तन्त्र के महासाधक के रूप में सभी उनको जानते थे। सिद्धियाँ उनकी चेरी थीं और चमत्कार उनके अनुचर। अनेकों भक्तों का जमघट उन्हें घेरे रहता था, जिनमें से कुछ सच्चे जिज्ञासु भी थे। इन सच्चे जिज्ञासु शिष्यों में एक एम.पी. पण्डित थे। जिन्होंने बाद के दिनों में प्रख्यात मनीषी के रूप में महती ख्याति अर्जित की।
तप, विद्या एवं सिद्धियों के धनी कापालि शास्त्री के पास सब कुछ था सिवा अध्यात्म तत्त्व के गूढ़ रहस्यों के। यह अभाव उन्हें हमेशा सालता। एक दिन उन्होंने बड़े कातर भाव से तन्त्र महाविद्या की अधिष्ठात्री माता जगदम्बा से प्रार्थना की, माँ मुझे राह दिखा। वरदायिनी माता अपनी इस तपस्वी सन्तान पर कृपालु हुई और उन्होंने कहा, सद्गुरू की शरण में जा। वही तेरा कल्याण करेंगे। माँ कौन हैं मेरे सद्गुरू? इस प्रश्न के उत्तर में माँ की परा वाणी गूँजी- पाण्डिचेरी में तप कर रहे महायोगी श्रीअरविन्द तेरे सद्गुरू हैं।
माँ जगदम्बा का आदेश पाकर टी.वी. कापालि शास्त्री अपने सुयोग्य शिष्य एम.पी. पडिण्त के साथ श्री अरविन्द आश्रम पहुँच गए। महान् विद्वान्, परम तपस्वी, अनगिनत अलौकिक सिद्धियों से सम्पन्न इस महासाधक को देखकर आश्रमवासी चकित थे। वह स्वयं जब महर्षि के सम्मुख पहुँचे, तो महर्षि मुस्कराए और बोले, शास्त्री मेरे पास क्यों आए हो? कापालि शास्त्री ने विनम्रतापूर्वक कहा, हे प्रभु तप विद्या आदि की जो क्षुद्रताएँ मेरे पास हैं, वही अज्ञान सम्पदा आपके चरणों में अर्पित करने आया हूँ। यह कहते हुए उन्होंने अपना हृदय श्री अरविन्द के चरणों में उड़ेल दिया। शास्त्री जी के साथ एम.पी. पण्डित ने भी उनका अनुसरण किया। वेद और तन्त्र मार्ग की सारी साधनाओं को कर चुके कापालि शास्त्री अब एक ही साधना में जुट गए और वह साधना थी श्री सद्गुरू शरणं ।। इस साधना ने उन्हें आध्यात्मिक जीवन की परम पूर्णता दी।