अन्तर्यात्रा के पथ पर श्रद्घा एवं सम्पूर्ण सामर्थ्य से चल रहे साधक के व्यक्तित्व से कभी ज्ञान के आश्चर्य पल्लवित होते हैं, तो कभी उसमें अचरज में डालनी शक्ति सामर्थ्य नजर आती है। जिसे कभी सुना नहीं गया, जिसके बारे में कभी सोचा नहीं गया, ऐसे कितने ही अचरज साधक के सामने आ खड़े होते हैं। इसी के साथ आती है- अलौकिक शक्तियाँ, जिनमें अपार, अद्भुत एवं आश्चर्यपूर्ण सामर्थ्य होती है। अन्तर्यात्रा के इस दौर में जो कुछ भी घटित होता है, उसे अनुभव तो किया जा सकता है, पर बताया नहीं जा सकता। यदि उसे बताया भी जाय, तो सुनने वालों को यह सब नानी की कहानी की भाँति लगेगा। तार्किक लोग इसे अविश्वसनीय कहेंगे। और बुद्धिमान लोगों के लिए यह गल्प कथा होगा। पर महर्षि पतंजलि कहते हैं कि यह उनके लिए सत्य है, जो ध्यान करते हैं, जिनके पास ध्यान की पारसमणि है, उनसे स्वर्ण राशि दूर नहीं, क्योंकि इस लोहे से जीवन की कुरूपता ही सुवर्ण में बदल जाने वाली है।
महर्षि अपने अगले सूत्र में ध्यान के प्रभाव को बताते हुए कहते हैं-
परमाणुपरममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः॥ १/४०॥
शब्दार्थ-
(उस समय) अस्य=इसका (योग साधक का); परमाणुपरममहत्त्वान्तः = परमाणु से लेकर परम महत्त्व तक; वशीकारः = वशीकार (हो जाता है)।
अर्थात् इस प्रकार योगी अति सूक्ष्म परमाणु से लेकर अपरिसीम तक सभी का वशीकार कर लेता है अर्थात वश में कर लेता है।
इस सूत्र में आश्चर्य तो है, पर ऐसा जो अनिवार्यतः घटित होता है- योग साधक की ध्यान- साधना में। इस सूत्र में निहित भाव इतना ही है कि ध्यान द्वार है अपरिसोम का, अतिचेतन का। जो इस द्वार को खोलना जानता है, उसके जीवन में सभी असम्भव सम्भव होते हैं। लेकिन यह सब होता तभी है, जबकि साधक को ध्यान की तकनीक में विशेषज्ञता हासिल हो। सामान्यतया देखा यही जाता है कि ध्यान के गहरे विज्ञान से लोगों का परिचय नहीं है। साधारण जनों की बात तो जाने दें, अपने को ध्यानयोगी महात्मा बताने वाले भी ध्यान की यथार्थता व सार्थकता से अपरिचित नजर आते हैं। ध्यान के नाम पर जो होता या किया जाता है, वह प्रायः नींद लाने वाली गोली से अधिक कुछ नहीं होता। ये पंक्तियाँ किसी को बुरी जरूर लग सकती है, पर सत्य को तो सुना व स्वीकारा जाना ही चाहिए।
जिन्हें ध्यान की गहरी अनुभूति है, वे इस सत्य से अवश्य सहमत होंगे कि ध्यान एक गहन आध्यात्मिक शल्य क्रिया है। इसे बड़ी बारीकी एवं समझदारी से करना पड़ता है। यह समूची प्रक्रिया तीन चरणों में सम्पन्न होती है। युग ऋषि परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार ध्यान करने से पहले व्यक्ति को ध्यान के लायक होना पड़ता है। ध्यान की यह सुपात्रता ही ध्यान की प्रक्रिया का पहला चरण है- जिसमें शरीर व मन को ध्यान के अनुरूप बनाना पड़ता है। शरीर स्वस्थ, हल्का- फुल्का व निरोग रहे, इसके लिए आवश्यक है- खान का संयम। ध्यानयोगी का भोजन औषधि की भाँति होना चाहिए। जो शरीर को स्वस्थ रखने में तो सहायक हो, परन्तु शरीर को ऐसा न बनाये, जिससे मानसिक चेतना देह पर ही टिकी रहे। शरीर की स्थिति ऐसी हो, जो मन को ऊर्ध्वगामी बनाने में सहायक हो।
इसके बाद अगली स्थिति मन की है। मन की गंगा में विचार व भावनाओं का जल बहता है। इसे प्रदूषण मुक्त करना एवं इस प्रवाह को नियंत्रित करना, इसे ऊर्जा केन्द्र के रूप में परिवर्तित करना ध्यानयोग के साधक की अगली चुनौती है। जिस तरह से नदी के जल पर बाँध बनाकर उस जल के वेग को शक्ति में परिवर्तित किया जाता है। कुछ इसी तरह की चुनौती ध्यान के साधक की भी होती है। यदि जलधारा के वेग को नियंत्रित न किया जा सका, तो इससे टरबाइन चलाना सम्भव नहीं होगा और फिर विद्युत उत्पादन न हो सकेगा। ध्यान के साधक को भी अपने विचार व भाव प्रवाह को ध्येय की लय में बाँधना पड़ता है।
निरन्तर प्रयास से ऐसा हो पाता है। पवित्र ध्येय के साथ जब मन लय पूर्ण होता है, तो न केवल विचार एवं भावनाएँ शुद्ध होती हैं, बल्कि उनमें ऊर्जस्विता आती है और ये सचमुच ही लेजर किरणों के पुञ्ज में बदल जाती है। अभी की स्थिति में तो हमारी ऊर्जा टिमटिमाहट की भाँति है, इससे कोई विशेष कार्य नहीं सध सकता। ध्यान की प्रक्रिया में आध्यात्मिक शल्य चिकित्सा के लिए मन की तरंगों का लेजर किरणों के पुञ्ज में परिवर्तित होना अनिवार्य है। यही वह उपकरण है, जिसके प्रकाश में अचेतन की गहराइयों में उतरना सम्भव हो जाता है। इसी के द्वारा अचेतन के संस्कारों की शल्य क्रिया बन पड़ती है। यह प्रक्रिया जटिल है, कठिन है, दुरूह है, दुष्कर है। यह श्रम साध्य भी है और समय साध्य भी।
चेतन मन की तरंगों से जो लेजर किरणों का पुञ्ज तैयार होता है, उसी से अचेतन के संस्कारों को देखना एवं इन्हें हटाना बन पड़ता है। ये संस्कार परत दर परत होते हैं। इनकी परतों में भारी विविधताएँ होती हैं, जो कालक्रम से प्रकट होती हैं। यह विविधता परस्पर विरोधाभासी भी हो सकती है। उदाहरण के लिए एक परत में साधना के संस्कार हो सकते हैं, तो दूसरी में वासना के। एक परत में साधुता के संस्कार हो सकते हैं, तो दूसरी में शैतानियत के। इस सत्य को ठीक तरह से जानने के लिए ध्यान के गहरे अनुभव से गुजरना निहायत जरूरी है।
सामान्य जीवन के उदाहरण से समझना हो, तो यही कहेंगे कि जिस तरह बीज में वृक्ष का समूचा अस्तित्व छिपा होता है, उसी तरह से अचेतन की परतों में मनुष्य का सम्पूर्ण व्यक्तित्व समाया होता है। बीज से पहले कोपलें एवं जड़ें निकलती हैं, उसकी कोमलता को देख औसत व्यक्ति यह नहीं सोच सकता कि इस वट बीज में कितना बृहत् आकार छुपा है, परन्तु कालक्रम में धीरे- धीरे सब प्रकट होता है। जेनेटिक्स को जानने वाला कुशल वैज्ञानिक अपने कतिपय प्रक्रियाओं से उसमें कुछ परिवर्तन भी कर सकता है। ठीक यही बात ध्यान के बारे में है- इस प्रयोग में ध्यान विज्ञानी अचेतन के संस्कारों का आवश्यक परिष्कार, परिमार्जन यहाँ तक कि रूपान्तरण तक करने में समर्थ होते हैं।
इतना ही अचेतन के अँधेरों से निकल अतिचेतन के प्रकाशमय लोक में प्रवेश करते हैं। और तब आती है वह स्थिति, जिसके लिए महर्षि पतंजलि कहते हैं कि योगी हो जाता है मालिक, अतिसूक्ष्म परमाणु से लेकर अपरिसीम तक का। क्योंकि अतिचेतन के पास सारी शक्ति होती है। वह होता है सर्वशक्तिमान, वह होता है सर्वत्र, वह होता है सर्वव्यापी। अतिचेतन के पास वह हर एक शक्ति होती है, जो सम्भव होती है। यह वह स्तर है, जहाँ सारे असम्भव सम्भव बनते हैं।