अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1

जब मिलते हैं व्यक्ति और विराट्

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        अन्तर्यात्रा विज्ञान के रहस्यमय प्रयोगों का प्रभाव चित्त पर स्पष्ट दिखाई देता है। इसका सूक्ष्म, सूक्ष्मता एवं सूक्ष्मतम परिशोधन होने से कर्मबीज, संस्कार, आसक्ति एवं अहंता हटते- मिटते हैं। जहाँ पहले प्रत्येक कर्म एवं भाव व विचार अपनी प्रगाढ़ स्थिति में चित्त पर अपनी अमिट छाप छोड़ते थे, वहीं अब यह स्थिति बदल जाती है। अब तो केवल चित्त पर उनका प्रतिबिम्ब पड़ता है और वह भी क्षणिक। जब तक कर्म अथवा भव- विचार की प्रगाढ़ क्रियाशीलता रहती है, तब तक चित्त के दर्पण पर उसकी झाँकी दिखती है, परन्तु जैसे ही इनकी स्थिति बदली, वैसे ही यह झलक भी मिट जाती है। इस परिशोधन से न केवल चित्त की क्रियाविधि, बल्कि उसका स्वरूप भी बदलता है। इसमें पारदर्शिता के साथ व्यापकता भी आती है। इसके संवेदन योग साधक के अंतस् में अतीन्द्रिय संवेदन एवं ब्रह्माण्डीय अनुभूतियों के रूप में उभरते हैं।

अब ऋतम्भरा प्रज्ञा के एक अन्य विशिष्ट गुण की चर्चा करते हुए महर्षि पतंजलि अपने एक नये सूत्र को प्रकट करते हैं-
        ‘तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी॥ १/५०॥’

शब्दार्थ-

        तज्जः = उससे उत्पन्न होने वाला; संस्कारः = संस्कार; अन्यसंस्कार प्रतिबन्धी = दूसरे संस्कारों का बाध करने वाला होता है।

भावार्थ-

        जो प्रत्यक्ष बोध निर्विचार समाधि में उपलब्ध होता है, वह सभी सामान्य बोध संवेदनाओं के पार होता है- प्रगाढ़ता मे भी, विस्तीर्णता में भी। यही वजह है कि इससे उत्पन्न संस्कार में अन्य सभी संस्कार विलीन हो जाते हैं।

        यह भावदशा सामान्य अनुभव से परे है। यह बुझों तो जाने की स्थिति है, परन्तु साथ ही वैज्ञानिक भी है। संतों की उलटबाँसियाँ यहीं से शुरू होती है। अध्यात्मवेत्ताओं के कथन यहीं रहस्यमय हो जाते हैं, क्योंकि चेतना की इसी अवस्था में व्यक्ति एवं विराट् यहीं मिलते हैं, बल्कि यूँ कहें कि घुलते हैं। संक्षेप में यह मिलन बिन्दु है, घुलन बिन्दु है- व्यक्ति का विराट् में। जिसके साथ ऐसा हुआ अथवा हो रहा है वही इसे समझेगा। शेष को तो अविश्वास करना ही है। अब जैसे बर्फ के ठोस आकार को देखकर पारखी उसके पानी बनने की बात कह सकता है। उसके व्यापक होने की सम्भावनाएँ उसे उस बर्फ के टुकड़े में नजर आयेगी और साथ उससे आगे की अवस्था जबकि यह जल वाष्प बन जायेगा, उसके अपने मानसिक नेत्रों में झलकने लगेगी। लेकिन कोई गैर जानकार बर्फ के वाष्प होने की कहानी पर आश्चर्ययुक्त अविश्वास ही करेगा।

        संसार वस्तुओं एवं व्यक्तियों का भी है और ऊर्जाओं का भी और सम्भव है इनमें पारस्परिक परिवर्तन भी, परन्तु यह बात कोई वैज्ञानिक ही समझेगा। ठीक इसी भाँति दुनिया अहंता की भी है, जहाँ मैं- मेरे और तू- तेरे की दीवारें हैं और आत्म- व्यापकता, ब्रह्मनिष्ठ की भी, जहाँ ये काल्पनिक लकीरें ढहती नजर आती हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि ये भेद कभी था हीं नहीं। पर ये बात कोई अध्यात्मतत्त्व का अनुभवी ही समझेगा और कोई नहीं।
        कहते हैं कि एक बड़े धनपति को अपने धन का भारी अहं था। उसे गर्व था अपनी बड़ी फैक्ट्री का। ये धनाढ्य महोदय राजस्थान के थे और परम पूज्य गुरुदेव से मिलने के लिए गायत्री तपोभूमि मथुरा पहुँचे थे। अपनी बातों के बीच- बीच में फैक्ट्री एवं हवेली की चर्चा जरूर कर देते, परन्तु गुरुदेव ने उनकी इन बातों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की। थोड़ी देर तक वार्तालाप यूँ चलता रहा। तभी गुरुदेव हँसते हुए उठे और एक बड़ा सा नक्शा सामने लाकर बिछा दिया। यह नक्शा विश्व का था। इसे दिखाते हुए वह उन सेठ जी से बोले- सेठ जी! जरा इसमें ढूँढ़िए तो सही कि अपना भारत देश कहाँ है। थोड़े से आश्चर्यचकित सेठ ने जैसे- तैसे एक जगह पर अंगुली रखकर भारत देश बताया।

        अब गुरुदेव ने उनसे राजस्थान की बात पूछी, बड़ी मुश्किल से बेचारे राजस्थान बता पाये और अपना शहर जयपुर बताने में तो उन्हें पसीना आ गया। कहीं पर उन्हें जयपुर ढूँढे ही न मिला। जब गुरुदेव ने उनसे अपनी फैक्ट्री एवं हवेली बताने को कहा, तो वे चकरा गये और बोले- आचार्य जी! आप तो मजाक करते हैं, भला इसमें मेरी फैक्ट्री- हवेली कहाँ मिलेगी। उन्हें इस तरह परेशान होते देखकर गुरुदेव बोले- सेठ जी! कुछ ऐसे ही ब्रह्माण्ड के नक्शे में अपनी धरती नहीं ढूँढ़ी जा सकती और जब बात भगवान् की हो, तो हमारा अपना अहं बड़ा होने पर भी कहीं नजर नहीं आता। इस प्रसंग को गुरुदेव ने अपनी चर्चाओं में एक बार बताते हुए कहा था- योग साधक का चित्त जैसे- जैसे शुद्ध होता है- वैसे ही उसके अहं का अस्तित्व विलीन होता है। कुछ वैसे ही जैसे कि बर्फ का टुकड़ा वाष्पीभूत हो जाता है।

        और जब अहं ही नहीं, तब अहंता के संस्कार कैसे? वह तो विराट् में घटने वाली घटनाओं का साक्षी बन जाता है। उसे स्पष्ट अनुभव होता है कि सत्, रज एवं तम के त्रिगुणात्मक ऊर्जा प्रवाह वस्तु, व्यक्ति एवं परिस्थिति में एक आश्चर्यकारी उलटफेर कर रहे हैं। बस एक दिव्य क्रीड़ा चल रही है। एक दिव्यजननी माँ परम प्रकृति के इंगित से सारे परिवर्तन हो रहे हैं। ऐसे में क्रियाएँ तो होती दिखती हैं, पर कर्त्ता नहीं। उसे स्पष्ट अनुभव होता है कि वस्तु, व्यक्ति एवं परिस्थिति इन क्रियाओं की घटने वाली घटनाओं का माध्यम है। यह मात्र कल्पना या विचार नहीं, एक अनुभव है, प्रगाढ़ एवं विस्तीर्ण। जो योग साधक में सम्पूर्ण बोध बनकर उतरता है। इस अवतरण के साथ ही उसके चित्त में क्रियाओं, भावों एवं विचारों के प्रतिबिम्ब तो पड़ते हैं, परन्तु उनका कोई निशान उस पर नहीं अंकित हो पाता।

        बल्कि अंतश्चेतना की इस अनूठी भावदशा में जो भाव एवं विचार उपजते हैं, वे रहे- बचे संस्कारों का भी नाश करते हैं। इस अनुभव को पाने वाले के बोध में किसी भी वस्तु या व्यक्ति में विराट् घुलता नजर आता है। तभी तो अंग्रेजी भाषा के कवि वर्ड्सवर्थ ने यह बात कही कि यदि मैं एक फूल को जान लूँ, तो परमात्मा को जान लूँगा। लोगों ने उस महाकवि से सवाल किया भला यह कैसे? तो जवाब में वह हँसा और बोला कि इस एक के बिना परमात्मा का अस्तित्व जो नहीं है। सुनने वाला कोई पादरी था, उसने कहा- यह कैसे बात करते हो? तो उस कवि ने अपनी रहस्यमयी वाणी में कहा- तुम यह भी जान लो कि परमात्मा का अस्तित्व तो मेरे बिना भी नहीं है। पादरी को लगा कि यह कवि पागल हो गया है, पर सच्चाई यह थी कि वह महाकवि उस भावदशा को पा चुका था, जहाँ व्यक्ति एवं विराट् घुलते हुए अनुभव होते हैं। इस अनुभव की व्यापकता में देह के प्रति ममता नहीं रह पाती और न बचता है मन का कोई पृथक् अस्तित्व। अहंता यहाँ अस्तित्व को खो देती है। और चित्त के दर्पण में झाँकी होती है ब्रह्म की। ऐसे में किसी नये संस्कारों का उपजना सम्भव नहीं। यह ऐसी रहस्य कथा है, जिसे अनुभवी कहते हैं और अनुभवी ही समझते हैं। जो अनुभव पाने की डगर पर हैं, वे इस सूत्र को पकड़कर अपना नया अनुभव पा सकते हैं।
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