व्याख्यान का उद्देश्य :-
१. व्यक्तित्व का वास्तविक अर्थ समझ में आए।
२. व्यक्तित्व निर्माण अर्थात् चरित्र निर्माण (आन्तरिक व्यक्तित्व) हेतु संकल्प जागे।
३. नर मानव व देव मानव बनने की अभिलाषा जागे।
४. वाणी, वेश-विन्यास व व्यवहार में वांछित परिवर्तन कर सादगीयुक्त व्यक्तित्व के प्रति आकर्षण पैदा हो।
व्याख्यान का क्रम :-
क्या आप एक शानदार व्यक्तित्व के स्वामी बनना चाहते हैं? या देवदास की भाँति मुह लटकाए हताशा निराशापूर्ण जीवन चाहते हैं। नहीं कोई भी ऐसा नहीं चाहता। स्वामी विवेकानन्द का शरीर सौष्ठव से लेकर उनका ज्ञान तथा मानवता व संस्कृति के लिए उनके समर्पण से किसका मन प्रफुल्लीत नहीं होता। चिते की तरह शरीर में फूर्ति, सज्जनों भाँति वेशभूषा व शालीन संभाषण, प्रसन्नचित्त चेहरा, मिलनशारिता, सन्तुलित मस्तिष्क, सादयुक्त जीवन, श्रेष्ठ संस्कारवान व्यक्तित्व से भला कौन प्रभावित नहीं होगा।
वास्तव में व्यक्तित्व निर्माण मानव जीवन का परम लक्ष्य है। युवा डॉ. बनें, इंजिनियर बने, वकिल, प्रोफेसर, आई.ए. एस. अफसर बनें चाहे नेता, अभिनेता, व्यवसायी, धनपति, कलाकार, संगीतकार, वैज्ञानिक अन्वेषक कुछ भी बनने के पहले पहली आवश्यकता है पहले सफल मनुष्य बनें, सुसंस्कृत नागरिक बनें। यदि वह व्यक्ति व्यक्तित्ववान बन गया तो एक कृषक और मजदूर के रूप में अपने तथा समाज में चारों ओर सुगंधि बिखेरेगा। लोग उनकी चुम्बकीय व्यक्तित्व के पीछे दौड़ेंगे अन्यथा व्यक्ति में घटियापन होने पर ऊँची डीग्री, धन, पद-प्रतिष्ठा भी घातक सिद्ध होगी। आज ऐसे उदाहरणों से समाज भरा पड़ा है। यह ज्ञान वह समझ रहे हैं कि हमें विकास किस ओर करना है। निर्माण किस पक्ष का करना है। ताकि लक्ष्य स्पष्ट रहे। पहले व्यक्तित्ववान, चरित्रवान बनना है। यह मुख्य लक्ष्य है। उके साथ हम अपने निर्धारित उपलक्ष्य के अनुसार जो बन जायें उत्तम है। यो तो सभी मनुष्य अपनी शारीरिक संरचना के आधार पर समान होते हैं। उनकी विशेषताओं के आधार पर उनमें बहुत अन्तर होता है। मनुष्य की जीवन शैली, जीवन के प्रति उनका नजरिया, उनकी रूचियों व गतिविधियों के आधार पर उनके स्तर की पहचान होती है। इसी आधार पर महापुरुषों ने मनुष्य को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया है। पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने मानव के चार प्रकार बताये हैं।
१. नर पिशाच : -जो दूसरों को कष्ट देकर, दु:ख देकर प्रसन्न होते हैं, जैसे-आतंकवादी, नक्सलवादी, चोर, तस्कर, अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति। जो सैकड़ों मानव समूह को मौत के घाट उतारकर प्रसन्न होते हैं। जो अपने परिवार पड़ोस में भी क्रूरता द्वारा अपनी पैशााचिक प्रवृत्ति का प्रमाण देते हैं। बहु को जलाना, प्रताडि़त करना, पत्नी को पीटना आदि।
२. नरपशु : - जो जीवन में अपना स्वार्थ व अपने हित को प्राथमिकता देते हुए केवल अपने लिए जीते है, अपने स्वार्थ के लिए लड़ते भी हैं। पेट व प्रजनन के लिए जीना ही जिनका ध्येय होता है। अपनी सारी प्रतिभा, धन, समय, बुद्धिमता को केवल स्वयं के लिए नियोजित करने में ही जिनका सम्पूर्ण जीवन चूक जाता है, वे नर पशु हैं। जीवन के प्रति इनका नजरिया- Eat Drink and be merry मै भला तो जग भला’ का होता है। आज के अधिकांश प्रतिभाशाली, साधन सम्पन्न तथाकथित आधुनिक लोगों की ऐसी ही विचारधारा है।
३. नर मानव : - ऐसे मनुष्य जो समाज को अपने जीवन का एक अभिन्न अंग मानकर समाज के हित में अपना हित समझते हैं, जो अपने लिए तो जीते हैं, लेकिन अपने समय, साधन, प्रतिभा व ज्ञान का एक अंश औरों के लिए भी लगाते हें। देश धर्म समाज संस्कृति के लिए भी उनका चिन्तन होता है। उन्हें परोपकार प्रिय होता है।
४. देवमानव : -वे महान आत्माएँ जिनकी हर श्वांस, सम्पूर्ण जीवन औरों के लिए होता है। औरों के लिए जीता है। औरों के हित जो मरता है उसका हर आंसू रामायण, प्रत्येक कर्म ही गीता है, की पंक्तियों को जो चरितार्थ करता है, वे हर क्षण समाज के लिए ही समर्पित जीवन जीते हैं मरते भी औरों के लिए ही हैं। जो देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर देते हैं। (जैसे-जटायु की भांति, गांधी, विनोबा, विवेकानन्द की भांति जीवन) मनुष्य शरीर धारी प्राण में इन विभिन्न चरणों में होने वाली विकास उनके विचारों व भावों का ही विकास है। हमारी गौरवशाली भारतीय संस्कृति में वसुधैव कुटुम्बकम का आदर्श है जो सम्पूर्ण विश्व वसुधा को अपना परिवार मानती है। हमें जानना चाहिए कि हम ऋषियों की सन्तान हैं, हमारी संस्कृति संस्कार प्रधान है। भारतीय संस्कृति में चेतना के विकास को महत्ता दी गई है। इसी मापदण्ड के आधार पर व्यक्तित्व का, जीवन का निर्माण हो न कि व्यक्तिगत रूची भौतिक उपलब्धियों को व्यक्तित्व का मापदण्ड माना जाए। इसके लिए महापुरुषों को, सिद्धान्तों को जीने वाले सफल व्यक्तिओंं को अपना रोल मॉडल बनाएँ। शार्टकट रास्ता अपनाने वाले आधुनिक लोगों को नहीं।
आइए व्यक्तित्व शब्द पर विचार करें। व्यक्तित्व में दो शब्द हैं व्यक्त और तत्व। जो व्यक्ति के प्रत्यक्षत: सामने न होने पर भी प्रभावित करता है वह उसका व्यक्तित्व है। आपने प्राय: लोगों से यह कहते सुना होगा-अमुक व्यक्ति देवता हैसा है, शानदार व्यक्तित्व है, अमुक व्यक्ति बहुत अहंकारी है, गांधी जी महान व्यक्तित्व के धनी थे, आदि। ये सभी टिप्पणी व्यक्ति के व्यक्तित्व के अलग-अलग पक्षों की ओर संकेत करते हैं।
व्यक्तित्व दो प्रकार के होते हैं- १.बाह्य, २. आन्तरिक। व्यक्तित्व वंशानुक्रम पर आधारित जन्मजात नहीं होता बल्कि उसे बनाया जाता है।
१. बाह्य व्यक्तित्व : - यह स्थूल शरीर से सम्बन्ध रखता है। व्यक्ति का बाहरी रूप, रंग, कद, स्वास्थ्य, आहार-विहार, आदतें, बातचीत करने का तरीका, व्यवहार, वेश विन्यास आदि सम्मिलित रूप से किसी व्यक्ति के बाह्य व्यक्तित्व को बनाते हैं।
२. आन्तरिक व्यक्तित्व : - यह व्यक्ति के सूक्ष्म और कारण शरीर से सम्बन्ध रखता है। व्यक्ति का चिन्तन, विचार, स्भाव, चरित्र, संस्कार, लोभ, मोह, अहंकार जनित समस्त भावनाएँ, श्रद्धा संवेदना आदि सभी प्रकार के सकारात्मक और नकारात्मक तत्वों से व्यक्ति का आन्तरिक व्यक्तित्व बनता है।
आन्तरिक व्यक्तित्व ही वास्तव में व्यक्ति का वास्तविक व्यक्तित्व होता है, क्योंकि उसी की परछाई बाह्य व्यक्तित्व में झलकती है। इसी आधार पर व्यक्ति स्वस्थ, सुन्दर, सेवा, सहकारिता, आत्मविश्वास सम्पन्न, परोपकारी, उच्च आदर्श से सम्पन्न यो इसके विपरीत होता है।
चिंतन:- ‘‘जो व्यक्ति जैसा सोचता और करता है वह वैसा ही बन जाता है ।’’ निश्चित रूप व्यक्ति का चिन्तन ही है जो व्यक्तित्व को ऊपर उठाता है या नीचे गिराता है। सकारात्मक चिंतन एक ऐसी औषधि है, जिसके सेवन से व्यक्ति को चिकित्सक के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। चिंतन के आधार पर ही उसके कर्म बनते है। आन्तरिक व्यक्ति त्व गढने, परिस्कृत करने हेतू श्रेष्ठ, सकारात्मक विचारों को ग्रहण करना,श्रेष्ठ साहित्स को पढऩा, श्रेष्ठ संगति करना, कुसंग से बचना व गलत विचारों को क्रियांवित होने से रोकना होता है अंतरंग की शुद्धि व परिष्कार से व्यक्ति आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है। वह रत्नाकर डाकू से महर्षि बाल्मिकी बन जाता है अंगुलिमाल व आम्रपाली सेवा व्रतधारी भिक्षुक/भिक्षुणियों में रूपांतरित हो जाते हैं।
आदतें - व्यक्ति चिंतन के आधार पर कर्म करता है और लम्बे समय तक किया जाने वाला कार्य आदत के रूप में स्थापित हो जाता हैं। आदतें अच्छी भी हो सकती है और बुरी भी यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह कैसी आदत बनाना चाहता है क्योंकि आदतें हमारें व्यक्तित्व के पहचान है कराती हैं। ऐसी आदतें जिससे किसी को परेशानी हो रही हो, जिससे फिजूल खर्ची झलकती हो, ऐसी आदतें जिससे चरित्र पर असर पड़ता हो, बचकर रहना चाहिए। जैसे देर रात सोना, सुबह देर में जगना, देर में भोजन करना, बड़ो का सम्मान नहीं करना, बात-बात में गाली देना, ये छोटी-छोटी आदतें ही आपके व्यक्तित्व को निखारने में बाधक होते है अत: यदि आप अपना व्यक्तित्व अच्छा बनाना चाहते हैं तो इन छोटी आदतों से अपने को अच्छा बनाने का प्रयास कीजिए, धीरे-धीरे आपके व्यक्तित्व में निखार आते जाये ।
स्वभाव- कोई आदत जब जीवन का अंग बन जाता है तो वह हमारे स्वाभाव के रूप में परिणित हो जाता है। जैसे किसी व्यक्ति की बोली बड़ी कर्कश एवं व्यवहार रूखा होता है,तो कुछ की बोली बड़ी मधुर एवं विनम्र होता है, यह उनका स्वभाव है। कुछ व्यक्ति बड़े शालीन होते हैं तो कुछ उदण्ड। इस प्रकार व्यक्ति के व्यवहार से उसका स्वभाव का पता चलता है। यदि आप अपने व्यक्तित्व को अच्छा बनाना चाहते हैं तो जरूरी है कि आपको शालीनता, शिष्टता एवं मधुरता को अपने स्वभाव का अंग बना लेना चाहिए।
संस्कार- स्वभाव जब व्यक्ति के भीतर जड़ जमा लेता है वह हटने का नाम ही नहीं लेता उसे संस्कार कहते है। संस्कार अच्छा भी होता है और बुरा भी। सर्वविदित है कि बुरे संस्कार से किसी अच्छा व्यक्तित्व नहीं बन सकता। अत: व्यक्ति निर्माण करना है तो अच्छे संस्कारों की परम्परा हमें डालने ही पड़ेंगे। अच्छे संस्कार के लिये अच्छे व्यक्तियों का सत्संग एवं अच्छे साहित्यों का अध्ययन आवश्यक है। जैसे यदि छोटे बच्चे को अपने से बड़ो को प्रतिदिन प्रणाम करने की आदत डाल दी जाये तो यह बच्चे में संस्कार के रूप में स्थाई हो जायेगी।
चरित्र- व्यक्ति का जैसा संस्कार रहता है वैसा ही उसका चरित्र बन जाता है। जैसा चरित्र बनेगा वैसा ही व्यक्तित्व बनेगा। अर्थात् चरित्र निर्माण ही व्यक्ति निर्माण है। कहा गया है- ‘धन गया तो कुछ गया, स्वास्थ्य गया तो बहुत कुछ गया, चरित्र गया तो समझो कि सब कुछ चला गया।’ आन्तरिक व्यक्तित्व चिंतन, चरित्र व विचार से बनता है। चरित्र सर्वश्रेष्ठ सम्पदा है। चरित्रवान अपनी विश्वसनीय छवि के कारण समाज में सर्वत्र श्रद्धा का पात्र बन जाता है। चरित्र की रचना संस्कारों से एवं संस्कारों की रचना विचारों से होती है। आदर्श चरित्र के लिए आदर्श विचारों को ही ग्रहण करना होता है। छत्रपति शिवाजी, भगतसिंह, लोकनायक, जयप्रकाश नारायण, महात्मा गाँधी का उज्ज्वल व्यक्तित्व व चरित्र उनके आदर्श विचारों के ही प्रतिबिंब है।
गुण संवेदना- व्यक्ति के भीतर संवेदना जागृत होने से सेवा का भाव पैदा होता है और सेवा का भाव व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारता है।
बाह्य व्यक्तित्व
हम प्रकृति प्रदत्त रूप, रंग, कद, काठी में फेरबदल किए बिना ही अपने व्यक्तित्व को स्मार्ट प्रभावशाली व गरिमामय बना सकते हैं। कैसे? आइए उन पक्षों पर विचार करते हैं-
1. स्वास्थ्य : -व्यक्ति काला हो या गोरा हो, नाटा हो, लम्बा हो, जैसा भी हो परन्तु स्वस्थ होना चाहिए। शरीर माद्यं खलु धर्म साधनम्। स्वास्थ्य को बेहतर बनाने, शानदार शरीर सौष्ठव के निर्माण के लिए नियमित व्यायाम तथा आहार (भोजन व खानपान सम्बन्धि नियम) तथा विहार (दिनचर्या) संयमित जीवन जीना चाहिए। शरीर के स्वास्थ्य के बिना जीवन में कोई उपलब्धि नहीं हो सकती। शरीर से कमजोर बीमार व्यक्ति का न कोई भविष्य होता है न व्यक्तित्व। उसका मनोबल भी गिर जाता है। स्वामी विवेकानन्द का भौतिक शरीर देखें, हनुमान जी, स्वामी दयानन्द सरस्वती, वीर शिवाजी का शरीर सौष्ठव हमें इस बात की प्रेरणा देता है। युवा इन्हें अपना रोल मॉडल बना लें तो क्रान्ति आ जाए।
2. वेशभूषा: - किसी भी व्यक्ति की छवि सर्वप्रथम उसके पहनावे से आँका जाता है। सादा जीवन उच्च विचार मात्र सिद्धांत की बात नहीं है। ऐसा व्यक्ति जन श्रद्धा का आधार भी बन जाता है, स्वयं भी सन्तुष्ट प्रसन्न होता है। परिधान, वेशभूषा व्यक्तित्व ही नहीं हमारी संस्कृति का भी परिचायक हैं। आज तथाकथित आधुनिकता की ऊंची दौड़ में हमारी सांस्कृतिक आस्मिता खतरे में हैं। खासकर नारियों के परिधान में जो बदलाव आया है वह लज्जाजनक एवं चिन्ताजनक है। हमारे देश में गौरवशाली व्यक्ति के अनेक उदाहरण हैं। स्वामी विवेकानंद द्वारा विदेश में उनकी वेशभूषा (साफ तथा ढीला वस्त्र) पर व्यंग्य किये जाने पर उनका जवाब था- In your country tailor makes a man but in my country. Character makes a man केवल बाहरी दिखावे से व्यक्तित्व नहीं बनता आन्तरिक प्रसन्नता चाहिए। बाहरी दिखावा करने वालों के लिए एक शायर ने कहा है-दिखता तो ताजमहल है, पर भीतर कब्रिस्तान है। भारतीय वेशभूषा खादी सूती, धोती-कुर्ता, पायजामा, गांधी जी की वेशभूषा व सादगी भरा पहनावा गौरवशाली व्यक्तित्व बनाते हैं।
3. वाणी : - किसी व्यक्ति की पहचान उसकी वाणी से होती है। वाणी व्यक्ति के अन्तर्मन में पल रहे विकारों का व्यक्त करती हैं। यह वाणी ही आगे कर्मों का रूप लेती है, जिसका परिणाम अच्छे या बुरे कर्मों के फल के रूप में मिलता है। वाणी का प्रभाव ही है जो किसी को शत्रु तो किसी को मित्र बना लेता है। वाणी किसी को ताज पहनाती है तो किसी को तख्त पर चढ़ाती है। इसलिए कहा गया है। मीठी बोली बोल, यह सेवा है अनमोल। बोलना एक कला है।
वाणी कैसी हो? संभाषण के गुण हैं तीन वाणी सत्य, सरल, शालीन। बुद्धिमान व्यक्ति बोलने से पहले सोचते हैं, नासमझ व्यक्ति बोलने के बाद सोचते हैं फिर पछताते हैं। वाणी के आधार पर व्यक्ति के सरल, सहज या अहंकारपूर्ण व्यक्तित्व की पहचान होती हैं। (उदाहरण एक नेत्रहीन वृद्ध द्वारा राजा, मंत्री और उसके नौकर को उनकी वाणी द्वारा पहचान लेना)
हमारे बोल कैसे हों? कम बोलें, धीरे और समझाकर स्पष्ट बोलें, मीठा बोलें, सरल बोंले, उपयुक्त अवसर देखकर बोलें, हितकर व कल्याणकारी बोलें। संत तुलसीदास जी-
तुलसी मीठे वचन से, सुख उपजत चहुं ओर।
वशीकरण यह मंत्र है, तज दे वचन कठोर॥
मृदु वचनों से कटुता दूर हो जाती है। मृदु एवं हितकारी वाणी स्वयं को एवं दूसरों को शीतलता प्रदान करती है। ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करें, आपहू शीतल होय। सत्य बोलें, प्रिय बोलें। अप्रिय सत्य न बोलें। प्रिय असत्य न बोलें।
हंसी मजाक में भी वाणी की शालीनता बनी रहे। अशुद्ध, अश्लिल्, अपशब्दों, व्यंग्य, अपमानजनक शब्दों का प्रयोग न हो। द्रौपदी के एक शब्द अन्धे ( अन्धा के अन्धे ही होते हैं ) से महाभारत का युद्ध हो गया। परिवार में आज ऐसी घटनाओं की बाढ़ है। झिडक़कर न बोलें, जोर-जोर से चिल्लाकर न बोलें।
प्रयोग करें:- यदि अपनी दिनचर्या मेंं से अपनी बड़ाई एवं दूसरों की निन्दा चुगली के शब्दों को निकाल दिया जाए तो बोलने के लिए बहुत कम रह जाता है। इससे सज्जन, शालीन, गम्भीर प्रभावी व्यक्तित्व की छवि बनती है।
4. व्यवहार : - हमारा व्यवहार हमें समाज से, औरोंसे जोडऩे का साधन है। आप बुद्धिमान हैं, विद्वान हैं, धनवान है, ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित भी हैं, परन्तु यदि हमारे पास पड़ोस सम्पर्क क्षेत्र में हमारा व्यवहार सही नहीं है, तो हमें उनकी ओर से घमण्ड, फुहड़, धोखेबाज, बदतमीज, कृतघ्र, अहसान फरामोश आदि उपाधियाँ दे दिए जाएँगे। वास्तव में व्यक्ति का व्यवहार हमारे व्यक्तित्व की कसौटी है। व्यवहार सम्बन्धी सूत्र हैं-दूसरों से वह व्यवहार न करें, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।
श्रेष्ठ व्यवहार सम्बन्धी कुछ टिप्स :-
खोजें परगुण अपने दोष, सीमित साधन में सन्तोष।
करो नहीं ऐसा व्यवहार, जो न स्वयं को हो स्वीकार।
1. जो पाना चाहते है, उसे देना सीखें। Art of living is actually art of giving सहयोग दें, सहयोग लें।
2. सलाह लें सम्मान दें, सुख बाँटें दु:ख बटाएँ। हमारी कमी यह है कि सलाह भी हम दे और सम्मान भी हम ही पाएंगे।
3. दूसरों का छिद्रान्वेषण न करें, सद्गुणों को देखें उसे धारण करें। अपने से बड़ों का सम्मान करें, छोटों का उपेक्षा नहीं उन्हें स्नेह दें, उनसे पहल कर बात करें, उन्हें आगे बढ़ाएँ, मिलनसार प्रवृत्ति बनाएँ, दूसरों में रूचि लें।
4. बातचीत में शिष्टाचार व अभिवादन का ध्यान रखें। उचित सम्बोधन देकर बात करें, मुस्कुराकर, विनम्रतापूर्वक, सहज ढंग से बात करें। अहंकार न झलके, सहज बने रहें।
5. शेखी न बघारें, कथनी व करनी में अन्तर न रखें, ऐसे लोगों की बहुत ही जल्दी कलई खुल जाती है।
6. अपने आपको, अपने कार्यों को, शिक्षा को, उपलब्धियों को बड़ा न मानें, अपनी जिम्मेदारी को बड़ा मानें और निभाएँ।
7. गलती पर क्षमा करें, विवाद हो तो मौन हो जाएँ ( क्षमा वीरस्य भूषणम्) दूसरों के मामले में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें।
8. किसी के जन्मदिवस, सफलता या खुशी के अवसर पर उसे बधाई देना न भूलें। दु:ख की घड़ी मे उन्हें ढाढ़स जरूर बंधाएँ।
9. किसी से कुछ लिया हो तो उसे समय पर वापस करें। उपकार के लिए कृतज्ञता अर्पित करें। नैतिकता का ध्यान रखें। सामाजिक मर्यादाओं एवं वर्जनाओं के अनुरूप हमारा व्यवहार हो।
10. प्रामाणिक व्यक्तित्व हेतु - मातृवत परदारेषु , लोष्ठवत् परद्रव्येषु एवं आत्मवत सर्वभूतेषु की दृष्टि रखकर व्यवहार करें। व्यवहार कुशल व्यक्ति की छवि समाज में विश्वसनीय प्रामाणिक, प्रेमास्पद, सम्माननीय की होती है।
आन्तरिक व्यक्तित्व चिन्तन, चरित्र व विचार से बनता है। चरित्र सर्वश्रेष्ठ सम्पदा है। चरित्रवान अपनी विश्वसनीय छवि के कारण समाज में सर्वत्र श्रद्ध का पात्र बना जाता है। चरित्र की रचना संस्कारों से एवं संस्कारों की रचना विचारों से होती है। आदर्श चरित्र के लिए आदर्श विचारों को ही ग्रहण करना होता है। छत्रपति शिवाजी , भगतसिंह, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, महात्मा गांधी, का उज्जवल व्यक्तित्व व चरित्र उनके आदर्श विचारों के ही प्रतिबिम्ब हैं।
जो जैसा सोचता और करता है वह वैसा ही बन जाता है। चिन्तन से चरित्र बनता है, चरित्र के अनुसार ही व्यक्ति का व्यवहार संचालित होता है। आन्तरिक व्यक्तित्व गढऩे, परिष्कृत करने हेतु श्रेष्ठ सकारात्मक विचारों को ग्रहण करना, श्रेष्ठ साहित्य पढऩा, श्रेष्ठसंगति करना, कुसंग से बचना, (टी.वी. के कुसंगों से भी) व गलत विचारों को क्रियान्वित होने से रोकना होता है। अन्तरंग की शुद्धि व परिष्कार से व्यक्ति आमूलचूल परिवर्तित हो जाता है। वह रत्नाकर डाकू से महर्षि वाल्मीकि बन जाता है। अंगुलिमाल व आम्रपाली सेवा व्रतधारी भिक्षुक/भिक्षुणी में रूपान्तरित हो जाते हैं।
व्यक्तित्व निर्माण आपकी मर्जी पर निर्भर
व्यक्तित्व निर्माण आपकी मर्जी पर निर्भर करता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व ही है, जिससे लोग इस जीवन में ही नहीं बल्कि जीवन के बाद भी हमेशा स्मरण करते हैं। बिना व्यक्तित्व के व्यक्ति खोखला है। जीवन में सम्मान-असम्मान, सफलता-असफलता सब कुछ आपके व्यक्तित्व पर ही निर्भर करता है। आप मेहनत करके डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, कलाकार आदि कुछ भी बन सकते हैं इससे आपको खूब धन भी मिलेगा, लेकिन आपका व्यक्तित्व ठीक नहीं है तो आपको इज्जत कहीं नहीं मिलेगी। अत: जितनी मेहनत हम भौतिक जगत के उच्च सोपानों को प्राप्त करने के लिए करते हैं, कुछ मेहनत तो अपनी व्यक्तित्व निर्माण के लिए भी करना पड़ेगा, क्योंकि जिस तरह डॉक्टर, इंजीनियर बनने के लिए आपको ही मेहनत करना पड़ता है। उसी तरह व्यक्तित्व निर्माण आपके अलावा दूसरा कोई नहीं कर सकता। न आपके माता-पिता, न गुरु और न ही आपका भगवान। हाँ यदि आप व्यक्तित्व निर्माण की दिशा में चल पड़े हैं, तो ये सभी आपकी मदद जरूर करेंगे।
अत: आपका व्यक्तित्व निर्माण आपकी मर्जी पर निर्भर करता है कि आप क्या चाहते हैं। समग्र व्यक्तित्व निर्माण हेतु आन्तरिक उत्थान एवं उत्कर्ष के चार आधार हैं, चार सूत्र हैं जिन पर हमारी आत्मिक उन्नति टिकी हुई है-साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा। इनमें से एक भी ऐसा नही हैं जिसे आत्मोत्कर्ष के लिए छोड़ा जा सके। ये चारों आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। जैसे बीज, जमीन, खाद और पानी इन चारों के मिलने से ही कृषि सम्भव है। जैसे मकान बनाना हो, तो उसके लिए ईंट, चूना, लोहा, लकड़ी चारों चीजों की जरूरत है। इनमें से एक भी कम रहा तो इमारत नहीं बन सकती। ठीक इसी प्रकार से आत्मोत्कर्ष के लिए साधन, स्वाध्याय, संयम, सेवा इन चारों का होना अनिवार्य है, अन्यथा व्यक्ति निर्माण का उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। पहला सूत्र है साधना।
(1) साधना
इसके दो रूप है ( क) उपासना, (ख) जीवन साधना, इन दोनों को मिलाकर एक पूरी चीज बनती है।
(क) उपासना - अर्थात् भगवान पर विश्वास, भगवान की समीपता। भगवान के नजदीक बैठना। इसका अर्थ हुआ भगवान की विशेषताएँ हम अपने जीवन में धारण करें। जैसे आग के पास बैठने से गर्मी, बर्फ के पास बैठने से ठंडक मिलती है वैसे ही उपासना द्वारा भगवान के समीप बैठकर उनकी विशेषता अर्थात् उनकी ऊर्जा, शक्ति, प्राण, ज्ञान उनकी इच्छा को हम आत्मसात करते हैं। उनकी चेतना से एकाकार होने, उनके समान बनने की प्रक्रिया ही उपासना है। जैसे गाड़ी को चलाने के लिए पेट्रोल चाहिए वैसे ही अपने शरीर मन व जीवन को सही दिशा में गतिशील बनाये रखने हेतु जिस ऊर्जा की जरूरत पड़ती है उसकी आपूर्ति नियमित उपासना द्वारा होती रहती है। नियमित उपासना से जीवन साधना सही चलती है।
उपासना कैसे करें :-
1. नित्य प्रात: जागरण के समय आत्मबोध एवं रात्रि शयन पूर्व तत्वबोध की साधना बिस्तर पर ही सम्पन्न करें। तथा ईश्वर द्वारा हमारे ऊपर किये गए उपकार व सुविधाओं कि लिए धन्यवाद करें।
2. ईश्वर के समदर्श, न्यायकारी व सर्वव्यापी रूप को बारम्बार स्मरण करते हुए यह विश्वास गहराई तक जाम लें, कि वह हमारे प्रत्येक कार्यों एवं भावनाओं को ध्यानपूर्वक देखता है।
3. शौच स्नानादि से निवृत्त होकर नित्य कम से कम १०८ मन्त्र अर्थात एक माला (५-६ मिनट) गायत्री मन्त्र का जप कर लेना चाएि। जो किसी अन्य देवता के मन्त्र के उपासक हों वे उसे भी करें, पर गायत्री उपासना को भी भारतीय संस्कृति के अनुयायी होने के नाते एक अनिवार्य कत्र्तव्य मानकर इसे दैनिक जीवन मे स्थान दिया जाना चाहिए।
4. श्रद्धा और विश्वास के आधार पर उपासना बलवती और फलवती होती है, स्वाध्याय से उपासना में मन लगता है। उपासना से सामान्य मनुष्य में भी देवत्व की अभिवृद्धि होती जाती है।
(ख) जीवन साधना - साधना का अर्थ है अपने गुण कर्म स्वभाव को साध लेना। वस्तुत: मनुष्य चौरासी लाख योनियों में घूमते-घूमते उन सारे प्राणियों के कुसंस्कारों को अपने भीतर इकटा किया होता है जो मनुष्य जीवन में अनावश्यक ही नहीं बल्कि हानिकारक भी है, तो भी स्वभाव के अंग बन गये हैं जिसके कारण हम मानव होकर भी पशु प्रवृत्तियों से प्रेरित व संचालित होते रहते हैं। इस अनगढ़पन को निरस्त कर अपने को ठीक कर लेना जिसे मानवोचित कह सकें-साधना है। इसके लिए हमें लगभग वही प्रयत्न करने पड़ते हैं। जैसे सरकस के पशुओं को उसका मालिक तमाशा दिखाने लायक प्रशिक्षित कर देता है। कच्ची धातुओं को जिस तरीके से आग में तपाकर शुद्ध-परिष्कृत बनाया जाता है। जैसे जेवर आभूषण बनाए जाते हैं। उसी तरीके से हमारे कुसंस्कारी जीवन को ढालकरके ऐसा सभ्य और सुसंस्कृत बनाया जाए कि हम अपने शानदार व्यक्तित्व की सुगंधि से चारों ओर को सुवासित कर सकें।
जीवन साधना अर्थात् आत्मदेव की साधना कैसे करें?-
1. इसके लिए हमें नित्य आत्मनिरीक्षण करना होगा। अपनी गलतियों को बारीकी से गौर करना होगा। कोई और हमारे गलत विचारोंं, आदतों, स्वभाव, खानपान, वेशभूषा आदि पर ऊँगली उठाये इससे पहले हमें स्वयं अपनी कमियों का निष्पक्ष निरीक्षण करके अपने भीतर घुसे हुए चोर को पकडऩा होगा। यह पहला चरण है।
2. आत्मशोधन या आत्मपरिष्कार :- अपनी कमियाँ पकड़ में आ जाने पर उनको सुधारने के लिए कमर कसनी होगी जो कमियाँ हमारे स्वभाव में हैं दिनचर्या का अंग बना हुआ है, जैसे अधिक टी.वी.देखना, आलस्य में गप्प में समय गंवाना, गाली देकर बाते करना, झृठ बोलना, शेखी बघारना, नशा करना, इन्हें दूर करने के लिए संकल्पपूर्वक निरन्तर जुटे रहना होगा। यही शुद्धिकरण आत्मशाोधन है जिसमें दुर्गुण रूपी अपने भीतर घुसे हुए चोर को निकालना तथा बाहर से आने वाले चोर से बचना होता है। यह दूसरा चरण है।
3. आत्मनिर्माण :-दुर्गुणों को दूर करने से जो जगह रिक्त होती है उसके स्थान पर श्रेष्ठ सद्गुणों, स्वभावों, संस्कारों, आदतों, का अपने भीतर आरोपण करना व उनका अभ्यास करते करते उनका विकास करना आत्म निर्माण व आत्मविकास है। जैसे- उपासना, स्वाध्याय, दूसरों की सहायता करना, सत्य बोलने का प्रयास करना, विनम्रतापूर्ण शब्द बोलना, अभिवादन करना आदि का सतत? अभ्यास करना। यह तीसरा चरण है।
4. आत्मविस्तार :- अपने ज्ञान को, सद्गुण की सुगंधि को, सेवा से, प्रेम से, सद्भाव से समाज में फैलाना। अपनी योग्यता, प्रतिभा, समय, धन, श्रम से समाज को सींचना, सेवा करना। प्रेम बाँटना, वसुधैव कुटुम्कबकम् के अनुसार अपना परिकर चौड़ा करना , सबको अपना परिवार समझना। यह चौथा चरण है। अन्य देवी देवताओं की साधना उपासना करने पर हमें फल मिलेगा या नहीं कह नहीं सकते, लेकिन जीवन साधना का परिणाम निश्चित रूप से भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में हाथों हाथ पाया जा सकता है। ये रही साधना अब दूसरा सूत्र है-
(२) स्वाध्याय
मन की मलिनता को धोने के लिए स्वाध्याय अति आवश्यक है। हमारे मस्तिष्क और विचार में प्राय: वही रहती है जो हमने अपने परिवार, मित्रों परिचितों की संगति में सीखा व जाना हेै। अब हमें श्रेष्ठ विचार को अपने भीतर धारण करने के लिए श्रेष्ठ पुरुषों का सत्संग करना होगा। जो हमें श्रेष्ठता के मार्ग पर ले चले। परन्तु महापुरुषों का नित्य सत्संग सम्भव नहीं है। बल्कि महापुरुषों से उनके सत्साहित्यों के माध्यम से जुड़ और पुस्तकों के माध्यम से सत्संग करें, यही स्वाध्याय है। जिस तरीके से शरीर को स्वच्छ रखने के लिए स्नान करना, कपड़े धोना आवश्यक है। उसी प्रकार स्वाध्याय द्वारा मन में जमें कषाय कल्मषों को धोना आवश्यक है। स्वाध्याय से हमें प्रेरणा मिलती है, दिशाएँ व मार्गदर्शन मिलता है। स्वाध्याय का उपासना व साधना के बराबर ही मूल्य व महत्व है। (स्वाध्याय जीवन की अनिवार्य आवश्यकता पृष्ठ-४८ में विस्तार से देख सकते हैं।)
स्वाध्याय के लिए क्या करें ? -
1. स्वाध्याय के लिए नित्य कम से कम आधा घंटा समय निकालें।
2. वही साहित्य काम में लें जो जीवन की वास्तविक समस्याओं पर व्यवहारिक मार्गदर्शन प्रस्तुत करता हो। जैसे अखण्ड ज्योति, युगनिर्माण योजना , महात्मा गाँधी के, विवेकानन्द के व अन्य महापुरुषों के साहित्य, उनकी जीवनी, युग साहित्य आदि।
3. अश्लिल्, हल्के-फुल्के निरर्थक विषयों से सम्बन्धिति पाठ्य सामग्री व पुस्तकों से वैसे ही बचना चाहिए, जैसे दूषित भोजन से बचते हैं।
(३) संयम
संयम का अर्थ है रोकथाम। शक्तियों को अपव्यय से बचाना और संग्रहित शक्ति को श्रेष्ठ कार्य में नियोजित करना। हमारी शक्तियों का घोर अपव्यय होता रहाता है, उसको बचा सकते हैं। हम अपनी अधिकांश शारीरिक और मानसिक शक्तिओं को अपव्यय कर नष्ठ कर देते हैं। यदि उन्हें रोककर उपयोगी मार्ग में लगाया जा सके, तो चमत्कार हो जाएगा। इतिहास पुरुष महात्मा गाँधी, संत तुलसीदास, न्यूटन आदि सामान्य व्यक्ति थे लेकिन संयम से महापुरुष, वैज्ञानिक बन गए।
चार तरह के संयम द्वारा हम शारीरिक, मानसिक व आत्मिक रूप से शक्तिशाली बन सकते हैं-
(क) इंद्रिय संयम :-इंद्रिय निग्रह में जिह्वा और कामेंद्रिय का संयम मुख्य है। इन इंद्रियोंं के असंयम से हमारी अपार शक्तियों का क्षरण होता है और स्वास्थ्य की दृष्टि से व्यक्ति खोखला हो जाता है। शारीरिक दृष्टि जिन्हें निरोग, दीर्घजीवी व समर्थ बनना हो वे इंद्रिय संयम का महत्व समझें और उसका अभ्यास करें।
क्या करें?-
1. आहार संयम करें, तेज मिर्च, मसाले, लज्ज्तदार भोजन न हो अनेक स्वाद के व्यंजन आहार में शामिल न हो।
2. सप्ताह में एक दिन उपवास का अभ्यास करें, अन्नमय कोश को साधें।
3. साधना का आरम्भ स्वाद साधना से होता है। सप्ताह में एक दिन नमक शक्कर के बिना भोजन का अभ्यास बनाएँ।
4. सिनेमा, ताश, बीड़ी, सिगरेट का शौक, लत धीरे-धीरे त्यागेेें। विलासिता की चीजें घटे, सादगी बढ़े।
5. अश्लिल् चिन्तन पर रोक लगे। विवाहित जीवन में भी कामसेवन की अवधि और मर्यादा रहे। वह मर्यादा उत्तरोत्तर लम्बी ही होती चले, छोटी नहीं। ब्रह्मचर्य का अभ्यास करें।
(ख) अर्थ संयम : - आमतौर पर मेहनत से कमाया हुआ धन भी विलासिता से लेकर न जाने किस-किस व्यर्थ के कार्यों, अनाचारों , व्यसनों में खर्च हो जाता है। अगर उनको फिजुलखर्ची से बचाकर किसी उपयोगी काम में लगा सकें, तो हम भौतिक और आत्मिक उन्नति की दिशा में कितना ही आगे बढ़ जाएंगे।
क्या करें?
१. बिना आवश्यकता के कोई चीज न खरीदें। (संत तुकाराम की कहानी)
२. वस्तुओं, भौतिक सामग्री का पूर्ण सदुपयोग करें। विलासिता, दिखावा, ठाट-बाट त्याग करने का अभ्यास करें।
३. सादगी भरा जीवन जीने में गौरव महसूस करें।
(ग) समय संयम : - समय को आलस्य और प्रमाद में पड़े रहकर बरबाद करते रहते हैं। योजनाबद्ध कार्य न करके, मनमर्जी से जब जैसा मन हुआ काम कर लिया। इस अस्तव्यस्तता में हमारा जीवन नष्ट हो जाता है। जबकि समय का थोड़ा सा भी उपयोग करते तो कितना लाभ उठा सकते थे।
क्या करें? -
१. प्रतिदिन प्रात: दिनभर के समय को कहाँ किस कार्य में लगाना है, योजना बनाएँ। एक-एक क्षण को योजनाबद्ध रूप से खर्च करें।
२. नित्य कर्म, भोजन, अध्ययन जीविकोपार्जन, स्कूल, कॉलेज, मनोरंजन, आराम, सेवा, स्वाध्याय व अन्य सभी कार्य के लिए समय का आवश्यकतानुसार नियोजन करें। इससे अनावश्यक कार्यों में समय खर्च नहीं होगा।
३. प्रात: सोकर उठते समय योजना बनाएँ कि अपना दिनभर का समय, अपना श्रम व सम्पदा को किस श्रेष्ठ प्रयोजन में खर्च करना है एवं किस अपव्यय से बचाना है। रात्रि में सोने से पूर्व समीक्षा करें कि दिन भर में हमने जो भी समय, श्रम, धन जिस कार्य में लगाया, क्या वह आवश्यक था? क्या उसे बचाया जा सकता था? यदि हाँ में जवाब मिलता है तो मानना चाहिए कि असंयम बरता गया। उसे अगले दिन सुधारने का निश्चय करना होगा।
(घ) विचार संयम : - (मनोनिग्रह) सभी प्रकार के असंयम की श्ुारुआत मन से होती है। मन में कितने ही विचार हर क्षण उठते रहते हैं, यदि समीक्षा करें तो पाएँगे कि उसमें से अधिकतर असंयमित बुराईयों एवं मनोविकार से भरे होते हैं। इससे हमारा मानस विकृत होता है और हमारा मन सर्वनाश करने वाला शत्रु बन जाता है। मन की शक्तियों को ही निग्रहीत करके कार्य में लगा दिया जाए तो न्यूटन, आइंस्टीन, बब्दुल कलाम जैसे वैज्ञानिक बन जाएंगे या बड़े साहित्यकार , संगीतकार बन जाएंगे। जिस भी कार्य में मन को एकाग्रतापूर्वक लगाएँगे, सफलता की उच्च श्रेणी तक जा पहुँचेंगे। इसी से हमारी सफलता का द्वारा खुलेगा।
क्या करें?-
१. अवांछित अनगढ़ विचार जैसे-ईष्र्या, द्वेष, क्रोध, कामुकता, नशा, सिनेमा एवं निरर्थक विचार, जो कोई सकारात्मक फल नहीं देते ऐसे नकारात्मक विचारों को मन में प्रवेश करते ही दबोच लेने का अभ्यास करें।
२. नकारात्मक विचारों को काटकर उसके विपरीत सकारात्मक विचारों की सेना खड़ी करें। उस पर चिन्तन करते रहें तो नकारात्मक विचार भाग जाते हैं। जैसे- पुलिस को देखकर चोर भाग जाता है।
३. मौन का अभ्यास करें।
४. नियमित सत्साहित्य का स्वाध्याय करें, मन को निग्रहीत करने का यही सर्वोत्तम उपाय है। इस प्रकार इन चारों निग्रहों-इंद्रिय निग्रह, अर्थ निग्रह, समय निग्रह एवं विचार निग्रह (मनोनिग्रह) द्वारा अपनी शक्ति का बहुत बड़ा भाग अपव्यय से बचाकर अपने व्यक्तित्व को शानदार बनाने, अपने निर्धारित लक्ष्यों को पाने हेतु लगा सकते हैं। इसी से महान पुरुषों व तपस्वियों ने इतिहास रचा है, हम उनकी सन्तानें हैं यह न भूलें।
(4) सेवा
व्यक्तित्व निर्माण का चौथा सूत्र है- सेवा। युवा शक्ति के प्रतिक स्वामी विवेकानन्द, सिस्टर निवेदिता आदि सभी रत्नों ने अपने व्यक्तित्व को सेवा धर्म में ही शिखर तक पहुँचाया। बिना सेवा के मानव जीवन को व्यर्थ ही बताया गया है, क्यों कि इस के बिना जीवन अधूरा है। (जार्ज वाशिंगटन की सेवा घटना का उदाहरण)
सेवा क्या है?- जीवन साधना में निस्वार्थ सेवा का स्थान सर्वोच्च है। मानव की जीवात्मा का विकास और जीवनप लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सेवा से बड़ा तप और पुण्य कुछ भी नहीं है। जब श्रेष्ठ कर्मों के फल का उदय होता है, तभी सेवा के अवसर सामने आते है। सेवा अर्थात विश्व हित में अपनी समस्त उपलब्धियों (समय, श्रम, ज्ञान, प्रतिभा, योग्यता, धन, श्रेष्ठ गुण, सद्भाव) को लगाना, जिससे विश्व उद्याप की सुन्दरता में वृद्धि होती है व दु:ख, पीड़ा-पतन अभाव, रोग-शोक अशान्ति व तनाव में कमी आती है।
सेवा क्यों करें?
1. मनुष्य समाज का ऋणी है, वह सामाजीक प्राणी है, उसके जीवन का हर पल समाज के उपकार से दबा हुआ है। सभ्य समाज में कृतघ्रता नहीं कृतज्ञता को मनुष्य के लिए अनिवार्य माना जाता है।
2. आत्मिक रूप से स्वस्थ मनुष्य की आत्मा की भूख है सेवा। उसे इसी में सुख व आत्मसन्तोष मिलता है, जो किसी भी धन से बड़ा है। सेवामय जीवन अपनाने वाला जीवन का संपूर्ण आनन्द पाता है। विवेकानन्द, गांधीजी ने भौतिक सम्पत्ति नहीं कमाई लेकिन उनका व्यक्तित्व आनन्द से भरा हुआ था।
3. सारी सृष्टि सेवा के ही सिद्धात पर टिकी है। प्रकृति में यदि इसका पालन न हो, तो जीवन ही संकट में पड जायेगा। हम इसी प्रकृति के व्यवस्था के अंग है, अत: इसका पालन करने पर ही हम भी सुखी रह सकते है। (पेड़, पौधे, नदी, जल, वायु, पशु, पृथ्वी, माता-पीता की निस्वार्थ सेवा का उदा.)
4. सेवा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है। पीड़ा पतन निवारण रूपी सेवा से ईश्वर को प्रसन्न करना आसान है। अत: केवल स्थूल जप-तप पूजा पाठ ही नहीं सेवा भी अनिवार्य है।
सेवा कैसी हो?
1. सेवा चुपचाप हो। दाए हाथ से सेवा हो तो बाए हाथ को भी पता न चले। सेवा को कर्तव्य मानकर नि:स्वार्थ भाव से ही करें। अन्यथा मान-शान-अहंकार के पशु सेवा रूपी पौधों को चर जायेंगे।
2. सेवा के बदले नाम यश मिल जाने पर उसका पुण्य क्षय हो जाता है। अत: सेवा कर उसे भूल जाएं, वर्णन करते न फिरें। ईश्वर का धन्यवाद करें, कि उन्होने सेवा का अवसर, साधन एवं सेवा की प्रेरणा सेवा भरा हृदय दिया। हम तो इस संसार में खाली हाथ ही आए थे फिर अहं कैसा?
सेवा हेतु क्या करें (सेवा के प्रकार)
1. हर क्षण अपने सम्मुख उपस्थित व्यक्तियों को अपनी ओर से कुछ न कुछ देना का भाव रखें जिससे उनका हित होता हो।
2. भूखे को भोजन, प्यासे को पानी, सहपाठियों की पढ़ाई में मदद, पडोसी की सहायता, माता-पीता को उनके कार्यों में मदद, आवश्यकता पडऩे पर शरीर सेवा, गरीब बीमार को दवा, सडक साफ करना भी सेवा है।
3. अपने पास जो भी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक क्षमता व आत्मिक उत्कृष्टता है, उसे लोक कल्याण मे बोना।
4. कुछ साधन न हो तो, मीठी वाणी बोलकर, मुस्कुराकर अपनी उद्भावना व शुभकामना द्वारा सेवा कर सकते है। स्नेह प्यार का वातारण बनाना भी सेवा है। युक्ति युक्त पालन द्वारा परिवार, समाज,राष्ट्र की सेवा करें।
5. सबसे बड़ा सेवा कार्य ज्ञानयज्ञ- ज्ञान यज्ञ सर्वोत्तम सेवा धर्म है क्यों कि इससे मनुष्यों को दिशा देकर, बुराईयों से बचाकर, उन्नति के मार्ग पर उंचा उठा सकते है। वस्तुगत सेवा से किसी को अस्थायी लाभ भी हो सकता है, किन्तु जब किसी को समझ मिल जाए ज्ञान आ जाए तो स्थायी रूप से जीवन ही बदल जाता है। इसके लिए एक घण्टा समय निकालकर ज्ञान यज्ञ करें।
सेवा का प्रतिफल क्या है?
1. संसार परिवर्तन एवं सच्ची सुख शांति की प्राप्ति होती है।
2. आत्मा का उच्चत्तम विकास होता है। अंत:करण पवित्र हो जाता है।
3. नि:स्वार्थ सेवा के पुण्य से जीवन में प्रतिकूलताएँ घटती है अनुकूलताएँ बढ़ती हैं।
4. सेवा भावी व्यक्ति लोकप्रिय एवं सबकी श्रद्धा का पात्र बन जाता है, उस पर सबकी शुभकामना एवं आशीष बरसता है। शरीर जल से, मन सत्य से, बुद्धि ज्ञान से एवं आत्मा सेवा से शुद्ध होती है। अत: सेवा पराधर्म है।
इन चारों सूत्रों को अपनाकर अपनी दिनचर्या में इन्हें शामिल करके एक अदना या व्यक्ति कहाँ से कहाँ पहुँच सकता है। यह प्रयोग करके देखने का विषय है, मात्र कहने सुनने का नहीं।
आइए व्यक्तित्व निर्माण के महान पुरुषार्थ के लिए संकल्पित हों। विश्वास करे कि आप संसार के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। इसलिए अतीत को भुलाकर नई शुरुआत करें। स्वामी विवेकानंद का उत्तिष्ठत। जागृत॥ प्राप्य वरन्निबोधत्॥ का आव्हान् इसी निमित्त है। कमर कसकर खड़े हो जाएं।
व्याख्यान का संक्षेपीकरण
(व्यक्तित्व निर्माण के सूत्र)
व्याख्यान क्रम लम्बा है, किन्तु सम्पूर्ण है। लम्बा होने के कारण भटकाव न हो। सार में बिन्दुओं के आधार पर स्मरण रखने में सुविधा होगी। अत: संक्षेप में सार बिन्दु प्रस्तुत है।
कक्षा क्रम-
1. व्यक्तित्व निर्माण की आवश्यकता। 2. व्यक्तित्व के प्रकार-आंतरिक व बाह्य।
3. बाह्य व्यक्तित्व के घटक एवं उसका निर्माण।
(क) स्वास्थ्य (ख)वेशभूषा (ग)वाणी (घ)व्यवहार
4. आन्तरिक व्यक्तित्व के घटक-चिन्तन चरित्र विचार, संस्कार
5. समग्र व्यक्तित्व निर्माण के सूत्र:- (साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा।)
(क) साधना- 1. उपासना 2. जीवन साधना (आत्मनिरीक्षण, आत्मशोधन, आत्मनिर्माण, आत्मविस्तार)
(ख) स्वाध्याय- क्या है? किसका करें?
(ग) संयम- इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम, विचार संयम।
(घ) सेवा- क्या है? क्यों करें? सेवा कैसी हो? सेवा के प्रकार, सबसे बड़ा सेवाकार्य ज्ञान यज्ञ, सेवा का प्रतिफल क्या है?
उत्तिष्ठत्। जागृत॥ प्राप्य वरन्नि बोधत्
सन्दर्भ पुस्तकें:-
1. आत्मिक उन्नति के चार चरण- साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा।
2. वेशभूषा शालीन रहे।
3. सफल जीवन की दिशाधारा
4. जीने की कला-मुम्बई
5. निश्चित फलदायी जीवन साधना (पॉकेट बुक)