व्यक्तित्व निर्माण युवा शिविर - 1

व्यक्तित्व निर्माण के सूत्र

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व्याख्यान का उद्देश्य :-
१.    व्यक्तित्व का वास्तविक अर्थ समझ में आए।
२.     व्यक्तित्व निर्माण अर्थात् चरित्र निर्माण (आन्तरिक व्यक्तित्व) हेतु संकल्प जागे।
३.    नर मानव व देव मानव बनने की अभिलाषा जागे।
४.    वाणी, वेश-विन्यास व व्यवहार में वांछित परिवर्तन कर सादगीयुक्त व्यक्तित्व के प्रति आकर्षण पैदा हो।

व्याख्यान का क्रम :-
क्या आप एक शानदार व्यक्तित्व के स्वामी बनना चाहते हैं? या देवदास की भाँति मुह लटकाए हताशा निराशापूर्ण जीवन चाहते हैं। नहीं कोई भी ऐसा नहीं चाहता। स्वामी विवेकानन्द का शरीर सौष्ठव से लेकर उनका ज्ञान तथा मानवता व संस्कृति के लिए उनके समर्पण से किसका मन प्रफुल्लीत नहीं होता। चिते की तरह शरीर में फूर्ति, सज्जनों भाँति वेशभूषा व शालीन संभाषण, प्रसन्नचित्त चेहरा, मिलनशारिता, सन्तुलित मस्तिष्क, सादयुक्त जीवन, श्रेष्ठ संस्कारवान व्यक्तित्व से भला कौन प्रभावित नहीं होगा।

    वास्तव में व्यक्तित्व निर्माण मानव जीवन का परम लक्ष्य है। युवा डॉ. बनें, इंजिनियर बने, वकिल, प्रोफेसर, आई.ए. एस. अफसर बनें चाहे नेता, अभिनेता, व्यवसायी, धनपति, कलाकार, संगीतकार, वैज्ञानिक अन्वेषक कुछ भी बनने के पहले पहली आवश्यकता है पहले सफल मनुष्य बनें, सुसंस्कृत नागरिक बनें। यदि वह व्यक्ति व्यक्तित्ववान बन गया तो एक कृषक और मजदूर के रूप में अपने तथा समाज में चारों ओर सुगंधि बिखेरेगा। लोग उनकी चुम्बकीय व्यक्तित्व के पीछे दौड़ेंगे अन्यथा व्यक्ति में घटियापन होने पर ऊँची डीग्री, धन, पद-प्रतिष्ठा भी घातक सिद्ध होगी। आज ऐसे उदाहरणों से समाज भरा पड़ा है। यह ज्ञान वह समझ रहे हैं कि हमें विकास किस ओर करना है। निर्माण किस पक्ष का करना है। ताकि लक्ष्य स्पष्ट रहे। पहले व्यक्तित्ववान, चरित्रवान बनना है। यह मुख्य लक्ष्य है। उके साथ हम अपने निर्धारित उपलक्ष्य के अनुसार जो बन जायें उत्तम है। यो तो सभी मनुष्य अपनी शारीरिक संरचना के आधार पर समान होते हैं। उनकी विशेषताओं के आधार पर उनमें बहुत अन्तर होता है। मनुष्य की जीवन शैली, जीवन के प्रति उनका नजरिया, उनकी रूचियों व गतिविधियों के आधार पर उनके स्तर की पहचान होती है। इसी आधार पर महापुरुषों ने मनुष्य को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया है। पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने मानव के चार प्रकार बताये हैं।

१. नर पिशाच :-जो दूसरों को कष्ट देकर, दु:ख देकर प्रसन्न होते हैं, जैसे-आतंकवादी, नक्सलवादी, चोर, तस्कर, अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति। जो सैकड़ों मानव समूह को मौत के घाट उतारकर प्रसन्न होते हैं। जो अपने परिवार पड़ोस में भी क्रूरता द्वारा अपनी पैशााचिक प्रवृत्ति का प्रमाण देते हैं। बहु को जलाना, प्रताडि़त करना, पत्नी को पीटना आदि।

२. नरपशु :- जो जीवन में अपना स्वार्थ व अपने हित को प्राथमिकता देते हुए केवल अपने लिए जीते है, अपने स्वार्थ के लिए लड़ते भी हैं। पेट व प्रजनन के लिए जीना ही जिनका ध्येय होता है। अपनी सारी प्रतिभा, धन, समय, बुद्धिमता को केवल स्वयं के लिए नियोजित करने में ही जिनका सम्पूर्ण जीवन चूक जाता है, वे नर पशु हैं। जीवन के प्रति इनका नजरिया- Eat Drink and be merry मै भला तो जग भला’ का होता है। आज के अधिकांश प्रतिभाशाली, साधन सम्पन्न तथाकथित आधुनिक लोगों की ऐसी ही विचारधारा है।

३. नर मानव : - ऐसे मनुष्य जो समाज को अपने जीवन का एक अभिन्न अंग मानकर समाज के हित में अपना हित समझते हैं, जो अपने लिए तो जीते हैं, लेकिन अपने समय, साधन, प्रतिभा व ज्ञान का एक अंश औरों के लिए भी लगाते हें। देश धर्म समाज संस्कृति के लिए भी उनका चिन्तन होता है।  उन्हें परोपकार प्रिय होता है।

४. देवमानव :-वे महान आत्माएँ जिनकी हर श्वांस, सम्पूर्ण जीवन औरों के लिए होता है। औरों के लिए जीता है। औरों के हित जो मरता है उसका हर आंसू रामायण, प्रत्येक कर्म ही गीता है, की पंक्तियों को जो चरितार्थ करता है, वे हर क्षण समाज के लिए ही समर्पित जीवन जीते हैं मरते भी औरों के लिए ही हैं। जो देश, धर्म, समाज, संस्कृति के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर देते हैं। (जैसे-जटायु की भांति, गांधी, विनोबा, विवेकानन्द की भांति जीवन) मनुष्य शरीर धारी प्राण में इन विभिन्न चरणों में होने वाली विकास उनके विचारों व भावों का ही विकास है। हमारी गौरवशाली भारतीय संस्कृति में वसुधैव कुटुम्बकम का आदर्श है जो सम्पूर्ण विश्व वसुधा को अपना परिवार मानती है। हमें जानना चाहिए कि हम ऋषियों की सन्तान हैं, हमारी संस्कृति संस्कार प्रधान है। भारतीय संस्कृति में चेतना के विकास को महत्ता दी गई है। इसी मापदण्ड के आधार पर व्यक्तित्व का, जीवन का निर्माण हो न कि व्यक्तिगत रूची भौतिक उपलब्धियों को व्यक्तित्व का मापदण्ड माना जाए। इसके लिए महापुरुषों को, सिद्धान्तों को जीने वाले सफल व्यक्तिओंं को अपना रोल मॉडल बनाएँ। शार्टकट रास्ता अपनाने वाले आधुनिक लोगों को नहीं।

    आइए व्यक्तित्व शब्द पर विचार करें। व्यक्तित्व में दो शब्द हैं व्यक्त और तत्व। जो व्यक्ति के प्रत्यक्षत: सामने न होने पर भी प्रभावित करता है वह उसका व्यक्तित्व है। आपने प्राय: लोगों से यह कहते सुना होगा-अमुक व्यक्ति देवता हैसा है, शानदार व्यक्तित्व है, अमुक व्यक्ति बहुत अहंकारी है, गांधी जी महान व्यक्तित्व के धनी थे, आदि। ये सभी टिप्पणी व्यक्ति के व्यक्तित्व के अलग-अलग पक्षों की ओर संकेत करते हैं।
व्यक्तित्व दो प्रकार के होते हैं- १.बाह्य, २. आन्तरिक। व्यक्तित्व वंशानुक्रम पर आधारित जन्मजात नहीं होता बल्कि उसे बनाया जाता है।
१. बाह्य व्यक्तित्व :- यह स्थूल शरीर से सम्बन्ध रखता है। व्यक्ति का बाहरी रूप, रंग, कद, स्वास्थ्य, आहार-विहार, आदतें, बातचीत करने का तरीका, व्यवहार, वेश विन्यास आदि सम्मिलित रूप से किसी व्यक्ति के बाह्य व्यक्तित्व को बनाते हैं।

२. आन्तरिक व्यक्तित्व :- यह व्यक्ति के सूक्ष्म और कारण शरीर से सम्बन्ध रखता है। व्यक्ति का चिन्तन, विचार, स्भाव, चरित्र, संस्कार, लोभ, मोह, अहंकार जनित समस्त भावनाएँ, श्रद्धा संवेदना आदि सभी प्रकार के सकारात्मक और नकारात्मक तत्वों से व्यक्ति का आन्तरिक व्यक्तित्व बनता है।
    आन्तरिक व्यक्तित्व ही वास्तव में व्यक्ति का वास्तविक व्यक्तित्व होता है, क्योंकि उसी की परछाई बाह्य व्यक्तित्व में झलकती है। इसी आधार पर व्यक्ति स्वस्थ, सुन्दर, सेवा, सहकारिता, आत्मविश्वास सम्पन्न, परोपकारी, उच्च आदर्श से सम्पन्न यो इसके विपरीत होता है।
   
चिंतन:-    ‘‘जो व्यक्ति जैसा सोचता और करता है वह वैसा ही बन जाता है ।’’ निश्चित रूप व्यक्ति का चिन्तन ही है जो व्यक्तित्व को ऊपर उठाता है या नीचे गिराता है। सकारात्मक चिंतन एक ऐसी औषधि है, जिसके सेवन से व्यक्ति को चिकित्सक के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। चिंतन के आधार पर ही उसके कर्म बनते है। आन्तरिक व्यक्ति त्व गढने, परिस्कृत करने हेतू श्रेष्ठ, सकारात्मक विचारों को ग्रहण करना,श्रेष्ठ साहित्स को पढऩा, श्रेष्ठ संगति करना, कुसंग से बचना व गलत विचारों को क्रियांवित  होने से रोकना होता है अंतरंग की शुद्धि व परिष्कार से व्यक्ति आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है। वह रत्नाकर डाकू से महर्षि बाल्मिकी बन जाता है अंगुलिमाल व आम्रपाली सेवा व्रतधारी भिक्षुक/भिक्षुणियों  में रूपांतरित हो जाते हैं।

आदतें - व्यक्ति चिंतन के आधार पर कर्म करता है और लम्बे समय तक किया जाने वाला कार्य आदत के रूप में स्थापित हो जाता हैं। आदतें अच्छी भी हो सकती है और बुरी भी यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह कैसी आदत बनाना चाहता है क्योंकि आदतें हमारें व्यक्तित्व के पहचान है कराती हैं।
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