राजनीति में हमारी भूमिका

हमारी दिशाधारा

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        इन तथ्यों को जानते हुए भी हम और हमारा संगठन राजनीति में प्रवेश क्यों नहीं करता, इसके सम्बन्ध में लोग हमें उलाहना देते और भूल सुधारने के लिये आग्रह करते हैं। वे जानते हैं कि हम लोग शासन तन्त्र में प्रवेश करने में बहुत दूर तक सफल हो सकते हैं। इसलिए उनकी आतुरता आदि भी अधिक रहती है। कितनी ही राजनैतिक पार्टियों द्वारा अपनी ओर आकर्षित करने और प्रत्यक्ष- परोक्ष रूप में सम्मिलित होने के लिये डोरे डाले जाते हैं और इसके बदले में वे हमें किस प्रकार सन्तुष्ट कर सकते हैं, इसकी पूछताछ करते रहते हैं। यह सिलसिला मुद्दतों से चलता रहा है और जब तक हम विदाई नहीं ले लेते, तब तक चलता ही रहा और हो सकता है कि यह परिवार वर्तमान क्रम से आगे बढ़ता रहा और सशक्त बनता रहा, तो इस प्रकार के दबाव उस पर आगे भी पड़ते रहें।

        इस सन्दर्भ में हमारा मस्तिष्क बहुत साफ है। शीशे की तरह उसमें पूर्ण स्वच्छता है। बहुत चिन्तन और मनन के बाद हम एक निष्कर्ष पर पहुँचे हैं और बिना लाग- लपेट, छिपाव एवं दुराव के अपनी स्वतन्त्र नीति निर्धारण करने में समर्थ हुए हैं। हम सीधे राजनीति में प्रवेश नहीं करेंगे वरन् राजनीति को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करेंगे और यही अन्त तक करते रहेंगे। अपना संगठन यदि अपने प्रभाव और प्रकाश को सर्वथा तिरस्कृत नहीं कर देता, तो उसे भी इसी मार्ग पर चलते रहना होगा।

        भारत की वर्तमान राजनैतिक रीति- नीतियों की गतिविधियों और तन्त्र की कार्य प्रणाली पर आमतौर से सभी को असन्तोष है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कई वर्षों की लम्बी अवधि में जो हो सकता था वह नहीं हुआ। तथाकथित आर्थिक प्रगति की बात भी विदेशी ऋण और युद्ध स्थिति तक बढ़ती हुई बेकारी गरीबी को देखते हुए खोखली है। नैतिक स्तर ऊपर से नीचे तक बुरी तरह गिरा है। विद्वेष और अपराधों की प्रवृत्ति बहुत पनपी है। गरीब अधिक गरीब बने हैं और अमीर अधिक अमीर। शिक्षा की वृद्धि के साथ- साथ जो सत्प्रवृत्तियाँ बढ़नी चाहिए थीं, इस दिशा में घोर निराशा ही उत्पन्न हुई है। शासन में कामचोरी और रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति बहुत आगे बढ़ गई है और भी बहुत कुछ ऐसा ही हुआ है जो आँखों के आगे प्रकाश नहीं, अँधेरा ही उत्पन्न करता है। अपनी इस राजनैतिक एवं प्रशासकीय असफलता पर हम में से हर कोई चिन्तित और दुःखी है। स्वयं शासक वर्ग भी समय- समय पर अपनी इन असफलताओं को स्वीकार करके रहते हैं। जिन्हें अधिक क्षोभ है, वे उदाहरण प्रस्तुत करते शासन- कर्त्ताओं की कटु शब्दों में भर्त्सना करते सुनते हैं और अमुक पार्टी को हटाकर अमुक पार्टी के हाथ में शासन सौंपने की बात का प्रतिपादन करते हैं।

        हमारे चिन्तन की दिशा अलग है, हम अधिक बारीकी से सोचते हैं। शासन की असफलता से हम दुःखी हैं। हमें बहुत खेद है कि विगत कई वर्षों में जितना बढ़ा जा सकता था, उतना नहीं बढ़ा गया। प्रगति कुछ भी न हुई हो सो बात नहीं, पर गाँधी जी के धर्म राज्य, रामराज्य और विश्व- मंगल की अध्यात्मिक प्रगति तो अभी लाखों मील आगे की बात है।

        इन परिस्थितियों के लिये किसी राजनेता या पार्टी को दोष देकर अपना जी हलका नहीं कर सकते; वरन् गम्भीरता से उन कारणों को तलाश करते हैं जिनके कारण ये विकृतियाँ उत्पन्न हुई हैं। रोग का कारण प्रतीत होने पर ही उसका उपचार सम्भव है। दूसरों की तरह उथला नहीं, अधिक गम्भीर और दूरदर्शी होने की ही किसी दार्शनिक से आशा की जानी चाहिए। देखना यह होगा कि यह सब क्यों हो रहा है? अपना एक हजार वर्ष का इतिहास देशी और विदेशी सामन्तवाद द्वारा प्रजा के उत्पीड़न का है। इस उत्पीड़न को सरल बनाये रखने के लिये जनता का मनोबल गिरा और बिखरा रखा जाना जरूरी था, सो तत्कालीन दार्शनिकों द्वारा ऐसी विचारधाराओं का प्रचलन किया गया, जो उपर्युक्त प्रयोजन पूरा कर सकें। शासन की दृष्टि से प्रजा ने जो नृशंसता पायी और दर्शन की दृष्टि से भ्रान्ति। ‘ब्राह्म’ और ‘क्षात्र’ दोनों ही अवांछनीय स्वार्थों की सिद्धि में लगे थे। प्रजा इस चक्की में भौतिक और आत्मिक दृष्टि से निरन्तर पददलित होती रही। यही एक तथ्य है जिसने भारत जैसे उत्कृष्ट परम्पराओं वाली प्रजा पर हजार वर्ष जितनी लम्बी अवधि तक पददलित रहने का कलंक लगाया।
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