राजनीति ने आज मानव जीवन के सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया है। इसलिए उसका महत्त्व बहुत हो गया है। प्राचीनकाल में न्याय और व्यवस्था तक ही शासन का हस्तक्षेप होता था, पर अब उसका क्षेत्र बहुत बढ़ गया है और जीवन के हर पहलू को राजनीति प्रभावित करती है। स्वास्थ्य, संस्कृति, भाषा, साहित्य, कला, विज्ञान जैसे जनरुचि के विषय भी अब राजनैतिक प्रभाव क्षेत्र में आते जा रहे हैं। शिक्षा, उत्पादन, श्रम, व्यवसाय, शासन, न्याय, निर्माण, विज्ञान, शिल्प आदि तो पहले से ही उसके नियन्त्रण में पहुँच चुके हैं। धीरे- धीरे जीवन का हर क्षेत्र राजनैतिक प्रभाव के अन्तर्गत आता चला जा रहा है।
जहाँ अधिनायकवाद का प्राधान्य है, वहाँ तो जनता को शासनतंत्र की मशीन का एक पुर्जा मात्र बनकर रहना पड़ता है। जानने, सोचने और निष्कर्ष निकालने तक के साधन (अधिकार) लोगों के हाथ में नहीं रहते। प्रचार का सम्पूर्ण उपकरण सरकार के हाथ में रहने से जनमानस को शासन जिधर चाहे उधर मोड़ता, बदलता रहता है। ऐसी दशा में यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि आज राजनीति की, शासनतंत्र की प्रबलता सर्वोपरि बनती चली जा रही है और कल वह समय आयेगा, जब व्यक्ति शासन के हाथ का खिलौना मात्र बनकर रह जायेगा।
जनजीवन में अपनी प्रमुखता रखने वाली राजनीति में शासन तन्त्र में, यदि कहीं दोष रहते हैं, तो उसका दुष्परिणाम सर्वसाधारण को बुरी तरह भोगना पड़ता है। वर्तमान स्थिति में जबकि जन साधारण की नैतिक स्थिति निम्न स्तर की ओर गिर रही है, शासन तन्त्र के संचालकों का उच्च चरित्र से, उच्च आदर्शों से पूर्ण होना आवश्यक है। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की उक्ति असत्य नहीं है। बड़ों को देखकर छोटे उनसे प्रभाव ग्रहण करते हैं, अनुकरण के लिए अग्रसर होते हैं। प्राचीनकाल में सन्तों, ऋषियों और ब्राह्मणों का राजा और प्रजा सब पर नियन्त्रण था, उनका व्यक्तित्व ऊँचा माना जाता था, इसलिये जनता उनकी भावनाओं और प्रेरणाओं से प्रभावित होकर अपनी दिशा निर्धारित करती थी।
अब वह स्थान शासन- संचालकों को मिल रहा है। उन्हीं के वक्तव्यों, भाषणों, गतिविधियों और योजनाओं से अख़बार, रेडियो, पुस्तकें भरे रहते हैं। सभा- सम्मेलनों में उन्हीं की चर्चा प्रधान रूप से होती है। जन- चर्चा का विषय वे ही हैं। किसी बिगाड़ या सुधार के लिये उन्हीं को उत्तरदायी माना जाता है। इतनी ऊँची स्थिति जिस वर्ग ने प्राप्त कर ली है, उन शासन संचालकों का प्राचीनकाल के सन्तों और ऋषियों के समान ही आदर्श होना चाहिये अन्यथा राज्य कर्मचारियों पर ही नहीं, जन- साधारण पर भी उसकी प्रतिक्रिया होगी। हीन चरित्र का शासक वर्ग कभी भी जन प्रेरणा का प्रकाश स्तम्भ नहीं बन सकता।
देशगत राजनीति पर विचार किया जाय या अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर, सभी क्षेत्रों से उच्च चरित्र के मार्गदर्शकों की नितान्त आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इसी कमी के कारण समस्त विश्व की जनता क्षुब्ध और निराश होती चली जा रही है।
संसार के राजनीतिज्ञों के पास सारे साधन मौजूद हैं। उच्च शिक्षा, सुविकसित मस्तिष्क, चतुर सलाहकार, विज्ञान, जन सहयोग सभी कुछ तो उन्हें प्राप्त है। कमी केवल उदारता और उद्दात्त भावनाओं की है। काश, आज की दुनिया का नेतृत्व किन्हीं महापुरुषों के हाथ रहा होता, काश गाँधी, ईसा, बुद्ध, सुकरात, कन्फ्यूशियस सरीखी आत्माओं के हाथों शासनाध्यक्षों का कार्य संचालित हुआ होता तो दुनिया आज की तरह नरक की स्थिति में पड़ी न रहकर स्वर्ग बन गई होती। काश, राजनीति ने कूटनीति (धूर्तता) का रूप छोड़कर धर्मनीति बनना स्वीकार किया होता, तो आज सर्वत्र शान्ति, प्रेम और आनन्द की ही निर्झरिणी बह रही होती।
सम्पन्नता, शिक्षा, कला, विज्ञान एवं चतुरता बढ़ रही है, पर चरित्र बल घट रहा है। संसार में शासन तन्त्र अधिक शक्तिशाली बनते चले जा रहे हैं पर उनकी वह विशेषता घट रही है, जिसके प्रभाव से जनमानस में प्रेरणा और आशा का संचार होता है। आज जबकि जन- जीवन के सारे साधन राजनीति के प्रभाव क्षेत्र में चले जा रहे हैं, तो यह आवश्यक है कि उसके नेता एवं संचालकों का व्यक्तित्व, चरित्र एवं भावना का स्तर इतना ऊँचा हो कि दण्ड भय से नहीं श्रद्धा से अवनत होकर लोग उनका अनुसरण करने लग जायें। इसी से जन- जीवन में सच्ची प्रगति का संचार हो सकता है। यदि यह क्षेत्र दुर्बल बना रहा, बिल्ली के गले में घण्टी न बँध सकी, तो भ्रष्टाचार की स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहेगी। जनता सरकार को दोष देती रहेगी और सरकार जनता का कसूर बताती रहेगी। समस्या जहाँ की तहाँ उलझी पड़ी रहेगी।
अनीति को रोकना और साधनों को बढ़ाना शासन का कार्य है। सबको समान अवसर तथा समान न्याय प्राप्त कराना राजकीय उत्तरदायित्व माना गया है। इन उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए राज्य कर्मचारियों को न्याय और कानून के प्रति नितान्त निष्ठावान, निर्लोभी, निष्पक्ष एवं कर्तव्यपरायण होना चाहिए। कानून तो पुस्तकों में बन्द रहते हैं, उनका पालन करना और कराना कर्मचारियों का काम है। उनका चरित्रवान एवं उच्च आदर्शवादी होना ही प्रजा की सुख- शान्ति की गारण्टी हो सकती है।
यदि वह शासक वर्ग अपने कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों की उपेक्षा करेगा तो प्रजा का न्याय पर से विश्वास कम होता चलेगा और हर क्षेत्र में अनीति पनपेगी, भ्रष्टाचार बढ़ेगा, रिश्वतखोरी पनपेगी और अधिकारियों को अपने पक्ष में करके दुष्ट लोग जनता को संत्रस्त करेंगे। टैक्स चुरायेंगे तथा निर्भय होकर नाना प्रकार के अपराध करेंगे। अपराधों की रोकथाम के समस्त उपाय एक ओर और राज्य कर्मचारियों की कर्त्तव्यपरायणता को एक ओर रखकर तोला जाय, तो कर्मचारियों की ईमानदारी ही अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी। इसके अभाव में नाना प्रकार की योजनाएँ बनती- बिगड़ती रह सकती हैं, पर जनहित का, समस्या का ठीक समाधान न हो सकेगा।