उन दिनों परिस्थितियाँ विचित्र थीं। काँग्रेस नेता गाँधी जी से सहमत न हो सके। सारी शक्ति राजतन्त्र को सँभालने में लग गई। रचनात्मक कार्यों में विश्वास करने वाले लोकसेवी भी उसी तन्त्र में खप गए। सबका ध्यान सत्ता की ओर चला गया। सत्ता एक नशा है, उसका चस्का जिसे लगा कि फिर वह उसी घाट का हो लिया। काँग्रेस और उसका परिवार उसी दिशा में चल पड़ा। जन जागरण के लिए जिन रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों की जरूरत थी। वे या तो विस्मृत हो गये या उनकी लकीर पिटती रही। अन्य छोटी- बड़ी राजनैतिक एवं सामाजिक स्तर की संस्थाओं का भी यही हुआ। उन्होंने भी अपनी बड़ी बहन का अनुकरण किया। अपना बाहरी जामा वे कुछ भी बनाये रही हों, भीतर ही भीतर सत्ता संघर्ष के लिए चल रही विभिन्न पार्टियों की प्रतिद्वंद्विता में ही वे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में शामिल थीं। ध्यान बँटा सो बँटा। पिछले कई वर्षों में जिस बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति की जरूरत थी, शिक्षा और कला के महान् माध्यमों को सृजनात्मक दिशा में लगाने के लिये उन्हें हथियाया या अपनाया जाना चाहिए था, उस दिशा में किसी ने कुछ नहीं किया। इस भूल को हम ईमानदारी से स्वीकार कर लें, तो कुछ हर्ज नहीं है।
दिशा भूलने का जनमानस में हजार वर्ष की गुलामी की कुसंस्कारी प्रक्रिया हटाने की उपेक्षा करने का जो परिणाम होना चाहिए था, वह सामने है। उन परिस्थितियों, उत्कृष्ट राजनेतृत्व एवं आदर्श शासन तन्त्र की आशा रखना व्यर्थ है। राजनेताओं का चुनाव होता है। चुनावों द्वारा प्रतिनिधि चुने जाते हैं और उनके चुनाव से सरकारें बनती हैं। जनता का जो स्तर है उसमें चुनाव जीतने के लिए पैसे को पानी की तरह बहाने की जाति- पाँति के नाम पर लोगों को बरगलाने की व्यक्तिगत या स्थानीय लाभ दिलाने के सब्जबाग दिखाने की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। जो यह सब तिकड़में भिड़ाने में समर्थ न हो, उसका चुनाव जीतना कठिन है। जनता का स्तर ही ऐसा है कि वह वोट का मूल्य और उसके दूरगामी परिणामों को अभी समझ ही नहीं पायी। झाँसे पट्टी और वास्तविकता का अन्तर करना उसे आया ही नहीं, इसलिए चुनाव में वे लोग जीत न सके, जो रामराज्य स्थापित कर सकने में सचमुच समर्थ हो सकते थे। जनता ने अपने स्तर के विधायक चुने। उन विधायकों ने अपने स्तर की सरकारें बनायीं, उन सरकारों के संचालकों ने वही किया, जो जनता कर रही है या कर सकती है। जड़ के आधार पर पत्ते बनते हैं। धतूरे के बीज से उगे पौधे पर शहतूत कहाँ से लगें?
राज्य शासन के संचालन में जो व्यक्ति काम करते हैं, उनकी मनोभूमि एवं कार्यशैली ही शासन तन्त्र के संचालन का स्वरूप निखारती है। कानून कितने ही अच्छे क्यों न हों, नीतियाँ कितनी ही निर्दोष क्यों न हों, योजनाएँ कितनी ही बढ़िया क्यों न हों, उनके संचालन का भार जिस मशीनरी पर है, उसके पुर्जे यदि घटिया होंगे, तो सारा गुड़- गोबर होता रहेगा। सरकार कई योजनाएँ बनाती और चलाती हैं पर उसका स्वरूप जनता तक पहुँचते- पहुँचते विकृत हो जाता है, क्योंकि जिनके हाथ में उस प्रक्रिया के संचालन का भार है, वे उतने शुद्ध नहीं होंगे, जितने होने चाहिए।
अपराधों के रोकने और अपराधियों को पकड़ने की जिम्मेदारी जिस मशीन पर है यदि ऊँचे स्तर की हो और भावनापूर्वक काम करे, तो निस्सन्देह अपराधों का उन्मूलन हो सकता है। उपयोगी कार्यों के लिए ऋण या अनुदान बाँटने वाली मशीन यदि स्वच्छ हो, तो वह धन खुर्द- बुर्द न होकर सचमुच- सम्पत्ति और सुविधा बढ़ाने में समर्थ हो सकता है। शिक्षा देने वाली मशीन यदि भावनाओं से ओत- प्रोत हो तो छात्रों को ढालने में उन व्यक्तियों का जादू आश्चर्यजनक ढलाई का प्रतिफल प्रस्तुत कर सकता है। सरकारी कानूनों या योजनाओं में उतना दोष नहीं है जितना कि प्रस्तुत प्रक्रिया का संचालन करने वाली मशीनरी की आदर्शवादी भावनाओं का न्यूनतम रूप है।