इक्कीसवीं सदी का संविधान

अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग

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     सामाजिक न्याय का सिद्धांत ऐसा अकाट्य तथ्य है कि इसकी एक क्षण के लिए भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। एक वर्ग के साथ अन्याय होगा तो दूसरा वर्ग कभी भी शांतिपूर्वक जीवनयापन न कर सकेगा। सामाजिक न्याय, अधिकारों का उपयोग दूसरों की भाँति ही कर सकें, ऐसी स्थिति पैदा किए बिना हमारा समाज शोषण- मुक्त नहीं हो सकता। सौ हाथों से कमाओ भले ही, पर उसे हजार हाथों से दान अवश्य कर दो अर्थात् अगणित बुराइयों को जन्म देने वाली संग्रह- वृत्ति को पनपने न दो।

   कोई व्यक्ति अपने पास सामान्य लोगों की अपेक्षा अत्यधिक धन तभी संग्रह कर सकता है जब उसमें कंजूसी, खुदगर्जी, अनुदारता और निष्ठुरता की भावना आवश्यकता से अधिक मात्रा में भरी हुई हो। जबकि दूसरे लोग भारी कठिनाइयों के बीच अत्यंत कुत्सित और अभावग्रस्तता जीवनयापन कर रहे हैं, उनके बच्चे शिक्षा और चिकित्सा तक से वंचित हो रहे हों, जब उनकी आवश्यकताओं की ओर से जो आँखें बंद किए रहेगा, किसी को कुछ भी न देना चाहेगा, देगा तो राई- रत्ती को देकर पहाड़- सा यश लूटने को ही अवसर मिलेगा तो कुछ देगा, ऐसा व्यक्ति ही धनी बन सकता है। सामाजिक न्याय का तकाजा यह है कि हर व्यक्ति उत्पादन तो भरपूर करे, पर उस उपार्जन के लाभ में दूसरों को भी सम्मिलित रखे। सब लोग मिल- जुलकर खाएँ, जिएँ और जीन दें। दुःख और सुख सब लोग मिल- बाँट कर भोगे। यह दोनों ही भार यदि एक के कंधे पर आ पड़ते हैं, तो वह दब कर चकनाचूर हो जाता है, पर यदि सब लोग इन्हें आपस में बाँट लेते हैं तो किसी पर भार नहीं पड़ता, सबका चित्त हलका रहता है और समाज में विषमता का विष भी उत्पन्न नहीं हो पाते।

    जिस प्रकार आर्थिक समता का सिद्धांत सनातन और शाश्वत है उसी प्रकार सामाजिक समता का मानवीय अधिकारों की समता का आदर्श भी अपरिहार्य है। इसको चुनौती नहीं दे सकते। किसी जाति, वंश या कुल में जन्म लेने के कारण किसी मनुष्य के अधिकार कम नहीं हो सकते और न ऊँचे माने जा सकते हैं। छोटे या बड़े होने की, नीच या ऊँच होने की कसौटी गुण, कर्म, स्वभाव ही हो सकते हैं। अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं के कारण किसी का न्यूनाधिक मान हो सकता है, पर इसलिए कोई कदापि बड़ा या छोटा नहीं माना जा सकता कि उसने अमुक कुल में जन्म लिया है। इस प्रकार की अविवेकपूर्ण मान्यताएँ जहाँ भी चल रही हैं, वहाँ कुछ लोगों का अहंकार और कुछ लोगों का दैन्य भाव ही कारण हो सकता है। अब उठती हुई दुनियाँ इस प्रकार के कूड़े- कबाड़ा जैसे विचारों को तेजी से हटाती चली जा रही है।

    स्त्रियों के बारे में पुरुषों ने जो ऐसी मान्यता बना रखी है कि शरीर में भिन्नता रहने मात्र से नर और नारी में से किसी की हीनता या महत्ता मानी जाए, वह ठीक नहीं। यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि हम समाज के अभिन्न अंग हैं। जिस प्रकार एक शरीर से संबंधित सभी अवयवों का स्वार्थ परस्पर संबद्ध है, उसी प्रकार सारी मानव जाति एक ही नाव में बैठी हुई है। पृथकता की भावना रखने वालो, भिन्न स्वार्थों, भिन्न आदर्शों और भिन्न मान्यताओं वाले लोग कहीं बहुत बड़ी संख्या में अधिक इकट्ठे हो जाएँ तो वे एक राष्ट्र, एक समाज, एक जाति नहीं बन सकते। एकता के आदर्शों में जुड़े हुए और उस आदर्श के लिए सब कुछ निछावर कर देने की भावना वाले व्यक्तियों का समूह ही समाज या राष्ट्र है। शक्ति को स्रोत इसी एकानुभूति में है। यह शक्ति बनाए रखने के लिए हर व्यक्ति स्वयं को विराट् पुरुष का एक अंग, राष्ट्रीय मशीन का एक प्रामाणिक पुर्जा मानकर चले, सबके संयुक्त हित पर आस्था रखे, यह आवश्यक है। हमारी सर्वांगीण प्रगति का आधार यही भावना बन सकती है।

    सबके हित में अपना हित सन्निहित होने की बात जब कही जाती है तो लोग यह भी तर्क देते हैं कि अपने व्यक्तिगत हित में भी सबका हित साधना चाहिए। यदि यह सच है तो हम अपने हित की बात ही क्यों न सोचें? यहाँ हमें सुख और हित का अंतर समझना होगा। सुख केवल हमारी मान्यता और अभ्यास के अनुसार अनुभव होता है, जबकि हित शाश्वत सिद्धांतों से जुड़ा होता है। हम देर तक सोते रहने में, कुछ भी खाते रहने में सुख का अनुभव तो कर सकते हैं, किंतु हित तो जल्दी उठने, परिश्रमी एवं संयमी बनने से ही सधेगा। अस्तु व्यक्तिगत सुख को गौण तथा सार्वजनिक हित को प्रधान मानने का निर्देश सत्संकल्प में रखा गया है।

 

    व्यक्तिगत स्वार्थ को सामूहिक स्वार्थ के लिए उत्सर्ग कर देने का नाम ही पुण्य, परमार्थ है, इसी को देशभक्ति, त्याग, बलिदान, महानता आदि नामों से पुकारते हैं। इसी नीति को अपनाकर मनुष्य महापुरुष बनता है, लोकहित की भूमिका संपादन करता है और अपने देश, समाज का मुख उज्ज्वल करता है। मुक्ति और स्वर्ग का रास्ता भी यही है। आत्मा की शांति और सद्गति भी उसी पर निर्भर है। इसके विपरीत दूसरा रास्ता यह है जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए, सारे समाज का अहित करने के लिए मनुष्य कटिबद्ध हो जाता है। दूसरे चाहे जितनी आपत्ति में फँस जाएँ, चाहे जितनी हानि और पीड़ा उठाएँ, पर अपने लिए किसी की कुछ परवाह न की जाए। अपराधी मनोवृत्ति इसी को कहते हैं। आत्म- हनन का, आत्म- पतन का मार्ग यही है। इसी पर चाहते हुए व्यक्ति नारकीय यंत्रणा से भरे हुए सर्वनाश के गर्त में गिरता है।

    इसलिए अपनी सद्गति एवं समाज की प्रगति का मार्ग समझकर, व्यक्तिगत सुख- स्वार्थ की अंधी दौड़ बंद करके व्यापक हितों की साधना प्रारंभ करनी चाहिए। अपनी श्रेयानुभूति को क्रमशः सुखों, स्वार्थों से हटाकर व्यापक हितों की ओर मोड़ना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।
   
भगवान ने मनुष्य को इतनी सारी सुविधाएँ, विशेषताएँ, इसलिए नहीं दी हैं कि वह उनसे स्वयं ही मौज- मजा करे और अपनी काम- वासनाओं की आग को भड़काने और उसे बुझाने के गोरखधंधे में लगा रहे। यदि मौज- मजा करने के लिए ही ईश्वर ने मनुष्य को इतनी सुविधाएँ दी होतीं और अन्य प्राणियों को अकारण इससे वंचित रखा होता तो निश्चय ही वह पक्षपाती ठहरता। अन्य जीवों के साथ अनुदारता और मनुष्य के साथ उदारता बरतने का अन्याय भला वह परमात्मा क्यों करेगा, जो निष्पक्ष, जगत पिता, समदर्शी और न्यायकारी के नाम से प्रसिद्ध है |
    युग निर्माण सत्संकल्प में इस अत्यंत आवश्यक कर्तव्य की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है कि मनुष्य का जीवन स्वार्थ के लिए नहीं
, परमार्थ के लिए है। शास्त्रों में अपनी कमाई को आप ही खा जाने वाले को चोर माना गया है।     जो मिला है उसे बाँटकर खाना चाहिए। मनुष्य को जो कुछ अन्य प्राणियों के अतिरिक्त मिला हुआ है वह उसका अपना निज का उपार्जन नहीं, वरन् सृष्टि के आदि से लेकर अब तक के श्रेष्ठ सत्पुरुषों के श्रम एवं त्याग का फल है। यदि ऐसा न हुआ होता तो मनुष्य भी एक दुर्बल वन्य पशु की तरह रीछ- वानरों की तरह अपने दिन काट रहा होता। इस त्याग और उपकार की पुण्य प्रक्रिया का नाम ही धर्म, संस्कृति एवं मानवता है। उसी के आधार पर, प्रगति पथ पर इतना आगे बढ़ जाना संभव हुआ। यदि इस पुण्य प्रक्रिया को तोड़ दिया जाए, मनुष्य केवल अपने मतलब की बात सोचने और उसी में लग रहने की नीति अपनाने लगे, तो निश्चय ही मानवीय संस्कृति नष्ट हो जाएगी और ईश्वरीय आदेश के उल्लंघन के फलस्वरूप जो विकृति उत्पन्न होगी, उससे समस्त विश्व को भारी त्रास सहन करना पड़ेगा। परमार्थ की आधारशिला के रूप में जो परमार्थ मानव जाति की अंतरात्मा बना चला आ रहा है, उसे नष्ट- भ्रष्ट कर डालना, स्वार्थी बनकर जीना निश्चय ही सबसे बड़ी मूर्खता है। इस मूर्खता को अपनाकर हम सर्वतोमुखी आपत्तियों को ही निमंत्रण देते हैं और उलझनों के दलदल में आज की तरह ही दिन- दिन गहरे धँसते चले जाते हैं।
    
श्रावस्ती में भयंकर अकाल पड़ा। निर्धन लोग भूख मरने लगे। भगवान् बुद्ध ने संपन्न लोगों को बुलाकर कहा- भूख से पीड़ितों को बचाने के लिए कुछ उपाय करना चाहिये। संपन्न व्यक्तियों की कमी नहीं थी, पर कोई कह रहा था- मुझे तो घाटा हो गया, फसल पैदा ही नहीं हुई आदि। उस समय सुप्रिया नामक लड़की खड़ी हुई और बोली- मैं दूँगी, सबको अन्न। लोगों ने कहा-
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