इक्कीसवीं सदी का संविधान

दूसरों के साथ वह व्यवहार नहीं करेंगे

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    हम चाहते हैं कि दूसरे लोग हमारे साथ सज्जनता का उदार और मधुर व्यवहार करें, जो हमारी प्रगति में सहायक हो और ऐसा कार्य न करें, जिससे प्रसन्नता और सुविधा में किसी प्रकार विघ्न उत्पन्न हो। ठीक ऐसी ही आशा दूसरे लोग भी हम से करते हैं। जब हम ऐसा सोचते हैं कि अपने स्वार्थ की पूर्ति में कोई आँच न आने दी जाए और दूसरों से अनुचित लाभ उठा लें, तो वैसी ही आकांक्षा दूसरे भी हम से क्यों न करेंगे? लेने और देने के दो बाट रखने में ही सारी गड़बड़ी पैदा होती है। यदि यही ठीक है कि हम किसी के सहायक न बनें, किसी के काम न आएँ, किसी से उदारता, नम्रता और क्षमा की रीति- नीति न बरतें तो इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि दूसरे लोग हमारे साथ वैसी ही धृष्टता बरतेंगे तो हम अपने मन में कुछ बुरा न मानेंगे।

    जब हम रेल में चढ़ते हैं और दूसरे लोग पैर फैलाए बिस्तर जमाए बैठे होते हैं, तो हमें खड़ा रहना पड़ता है। उन लोगों से पैर समेट लेने और हमें भी बैठ जाने देने के लिए कहते हैं तो वे लड़ने लगते हैं। झंझट से बचने के लिए हम खड़े- खड़े अपनी यात्रा पूरी करते हैं और मन ही मन उन जगह घेरे बैठे लोगों की स्वार्थपरता और अनुदारता को कोसते हैं, पर जब हमें जगह मिल जाती हैं और नए यात्रियों के प्रति ठीक वैसे ही निष्ठुर बन जाते हैं, क्या यह दुहरा दृष्टिकोण उचित है? हमारी कन्या विवाह योग्य हो जाती है तो हम चाहते हैं कि लड़के वाले बिना दहेज के सज्जनोचित व्यवहार करते हुए विवाह संबंध स्वीकार करें, दहेज माँगने वालों को बहुत कोसते हैं, पर जब अपना लड़का विवाह योग्य हो जाता है तो हम भी ठीक वैसी ही अनुदारता दिखाते हैं जैसी अपनी लड़की के विवाह- अवसर पर दूसरों ने दिखाई थी। कोई हमारी चोरी, बेईमानी कर लेता है, ठग लेता है तो बुरा लगता है, पर प्रकारांतर से वैसी ही नीति अपने कारोबार में हम भी बरतते हैं और तब उस चतुरता पर प्रसन्न होते और गर्व अनुभव करते हैं। यह दुमुँही नीति बरती जाती रही तो मानव- समाज में सुख- शांति कैसे कायम रह सकेगी?

      कोई व्यक्ति अपनी जरूरत के वक्त कुछ उधार हमसे ले जाता है तो हम यही आशा करते हैं कि आड़े वक्त की इस सहायता को सामने वाला व्यक्ति कृतज्ञतापूर्वक याद रखेगा और जल्दी से जल्दी इस उधार को लौटा देगा। यदि वह वापस देते वक्त आँखें बदलता है तो हमें कितना बुरा लगता है। यदि इसी बात को ध्यान में रखा जाए और किसी के उधार को लौटाने की अपनी आकांक्षा के अनुरूप ही ध्यान रखा जाए तो कितना अच्छा हो। हम किसी का उधार आवश्यकता से अधिक एक क्षण भी क्यों रोक कर रखें? हम दूसरों से यह आशा करते हैं कि वे जब भी कुछ कहें या उत्तर दें, नम्र, शिष्ट, मधुर और प्रेम भरी बातों से सहानुभूतिपूर्ण रुख के साथ बोलें। कोई कटुता, रुखाई, निष्ठुरता, उपेक्षा और अशिष्टता के साथ जबाब देता है तो अपने को बहुत दुःख होता है। यदि यह बात मन में समा जाए, तो फिर हमारी वाणी में सदा शिष्टता और मधुरता ही क्यों न घुली रहेगी? अपने कष्ट के समय हमें दूसरों की सहायता विशेष रूप से अपेक्षित होती है। इस बात को ध्यान में जाए, तो फिर हमारी वाणी में सदा शिष्टता और मधुरता ही क्यों न घुली रहेगी? अपने कष्ट के समय हमें दूसरों की सहायता विशेष रूप से अपेक्षित होती है। इस बात को ध्यान में रखा जाए तो जब दूसरे लोग कष्ट में पड़े हों, उन्हें हमारी सहायता की अपेक्षा हो, तब क्या यही उचित है कि हम निष्ठुरता धारण कर लें? अपने बच्चों से हम यह आशा करते हैं कि बुढ़ापे में हमारी सेवा करेंगे, हमारे किए उपकारों का प्रतिफल कृतज्ञतापूर्वक चुकाएँगे, पर अपने बूढ़े माँ- बाप के प्रति हमारा व्यवहार बहुत ही उपेक्षापूर्ण रहता है। इस दुहरी नीति का क्या कभी कोई सत्परिणाम निकल सकता है?
         
हम चाहते हैं कि हमारी बहू- बेटियों की दूसरे लोग इज्जत करें, उन्हें अपनी बहन- बेटी की निगाह से देखें, फिर यह क्यों कर उचित होगा कि हम दूसरों की बहिन- बेटियों को दुष्टता भरी दृष्टि से देखें? अपने दुःख के समान ही दूसरों का जो दुःख समझेगा वह माँस कैसे खा सकेगा? दूसरों पर अन्याय और अत्याचार कैसे कर सकेगा? किसी की बेईमानी करने, किसी को तिरस्कृत, लांछित और जलील करने की बात कैसे सोचेगा? अपनी छोटी- मोटी भूलों के बारे में हम यही आशा करते हैं कि लोग उन पर बहुत ध्यान न देंगे, ‘क्षमा करो और भूल जाओ’ की नीति अपनाएँगे तो फिर हमें भी उतनी ही उदारता मन में क्यों नहीं रखनी चाहिए और कभी किसी से कोई दुर्व्यवहार अपने साथ बन पड़ा है तो उसे क्यों न भुला देना चाहिए?
        
अपने साथ हम दूसरों से जिस सज्जनतापूर्ण व्यवहार की आशा करते हैं, उसी प्रकार की नीति हमें दूसरों के साथ अपनानी चाहिए। हो सकता है कि कुछ दुष्ट लोग हमारी सज्जनता के बदले में उसके अनुसार व्यवहार न करें। उदारता का लाभ उठाने वाले और स्वयं निष्ठुरता धारण किए रहने वाले नर- पशुओं की इस दुनिया में कमी नहीं है। उदार और उपकारी पर ही घात चलाने वाले हर जगह भरे हैं। उनकी दुर्गति का अपने को शिकार न बनना पड़े, इसकी सावधानी तो रखनी चाहिए, पर अपने कर्तव्य और सौजन्य को इसलिए नहीं छोड़ देना चाहिए कि उसके लिए सत्पात्र नहीं मिलते। बादल हर जगह वर्षा करते हैं, सूर्य और चंद्रमा हर जगह अपना प्रकाश फैलाते हैं, पृथ्वी हर किसी का भार और मल- मूत्र उठाती है, फिर हमें भी वैसी ही महानता और उदारता का परिचय क्यों नहीं देना चाहिए?

    उदारता प्रकृति के लोग कई बार चालाक लोगों द्वारा ठगे जाते हैं और उससे उन्हें घाटा ही रहता है, पर उनकी सज्जनता से प्रभावित होकर दूसरे लोग जितनी उनकी सहायता करते हैं, उस लाभ के बदले में ठगे जाने का घाटा कम ही रहता है। सब मिलाकर वे लाभ में ही रहते हैं। इसी प्रकार स्वार्थी लोग किसी के काम नहीं आने से अपना कुछ हर्ज या हानि होने का अवसर नहीं आने देते, पर उनकी सहायता नहीं करता तो वे उस लाभ से वंचित भी रहते हैं। ऐसी दशा में वह अनुदार चालाक व्यक्ति, उस उदार और भोले व्यक्ति की अपेक्षा घाटे में ही रहता है। दुहरे बाट रखने वाले बेईमान दुकानदारों को कभी फलते- फूलते नहीं देखा गया। स्वयं खुदगर्जी और अशिष्टता बरतने वाले लोग जब दूसरों से सज्जनता और सहायता की आशा करते हैं तो ठीक दुहरे बाट वाले बेईमान दुकानदार का अनुकरण करते हैं। ऐसा व्यवहार कभी किसी के लिए उन्नति और प्रसन्नता का कारण नहीं बन सकता।

    दुकानदार अपने पैसे गिनने लगा, तो देखा उसमें कई खोटे सिक्के भी लोग धोखे में दे गए। वह सिक्के नाली में फेंकने लगा, तो पड़ोसी ने कहा- मूर्ख जैसे किसी ने तुझे धोखे में दिए हैं, तू भी ऐसे ही किसी को भेड़ दे। दुकानदार ने कहा- थोड़े से सिक्के कई लोगों को बेईमानी और धूर्तता सिखाएँ, उससे अच्छा तो खोटे सिक्कों को फेंक देना है। यह कहकर उसने सिक्के पानी में फेंक दिए।

 

 

 

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