इक्कीसवीं सदी का संविधान

चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी

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    किसके भीतर क्या है, इसका परिचय उसके व्यवहार से जाना जा सकता है। जो शराब पीकर और लहसुन खाकर आया होगा, उसके मुख से बदबू आ रही होगी। इसी प्रकार जिसके भीतर दुर्भावनाएँ, अहंकार और दुष्टता का ओछापन भरा होगा, वह दूसरों के साथ अभद्रतापूर्ण व्यवहार करेगा। उसकी वाणी से कर्कशता और असभ्यता टपकेगी। दूसरे से इस तरह बोलेगा जिससे उसे नीचा दिखाने, चिढ़ाने, तिरस्कृत करने और मूर्ख सिद्ध करने का भाव टपके। ऐसे लोग किसी पर अपने बड़प्पन की छाप छोड़ सकते, उलटे घृणास्पद और द्वेषभाजन बनते चले जाते हैं। कटुवचन मर्मभेदी होते हैं, वे जिस पद छोड़ें जाते हैं, उसे तिलमिला देते हैं और सदा के लिए शत्रु बना लेते हैं। कटुभाषी निरंतर अपने शत्रुओं की संख्या बढ़ाता और मित्रों की घटाता चला जाता है।

    दूसरों के साथ असज्जनता और अशिष्टता का बरताव करके कई लोग सोचते हैं, इससे उनके बड़प्पन की छाप पड़ेगी, पर होता बिलकुल उल्टा है। तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करने वाला व्यक्ति घमंडी और ओछा समझा जाता है। किसी के मन में उसके प्रति आदर नहीं रह जाता। उद्धत स्वभाव के व्यक्ति अपना दोष आप भले ही न समझें, दूसरे लोग उन्हें उथला, हल्का मानते हैं और उदासीनता, उपेक्षा का व्यवहार करते हैं। समय पड़ने पर ऐसा व्यक्ति किसी को अपना सच्चा मित्र नहीं बना पाता और आड़े वक्त कोई उसके काम नहीं आता। सच तो यह है कि मुसीबत के वक्त वे सब लोग प्रसन्न होते हैं, जिनको कभी तिरस्कार सहना पड़ा था। ऐसे अवसर पर वे बदला लेने और कठिनाई बढ़ाने की ही बात सोचते हैं।

     हमें संसार में रहना है तो सही व्यवहार करना भी सीखना चाहिए। सेवा- सहायता करना तो आगे की बात है, पर इतनी सज्जनता तो हर व्यक्ति में होनी चाहिए कि जिससे वास्ता पड़े उससे नम्रता, सद्भावना के साथ मीठे वचन बोलें, थोड़ी- सी देर तक कभी किसी से मिलने का अवसर आए, तब शिष्टाचार बरतें। इसमें न तो पैसा व्यय होता है, न समय। जितने समय में कटुवचन बोले जाते हैं, अभद्र व्यवहार किया जाता है, उससे कम समय में मीठे वचन और शिष्ट तरीके से भी व्यवहार किया जा सकता है। उद्धत स्वभाव दूसरों पर बुरी छाप छोड़ता है और उसका परिणाम कभी- कभी बुरा ही निकलता है। अकारण अपने शत्रु बढ़ाने चलना, बुद्धिमानी की बात नहीं। इस प्रकार के स्वभाव का व्यक्ति अंततः घाटे में रहता है। 

     जब हम किसी से मिलें या हमसे कोई मिले, तो प्रसन्नता व्यक्त की जानी चाहिए। मुस्कराते हुए अभिवादन करना चाहिए और बिठाने- बैठने कुशल समाचार पूछने और साधारण शिष्टाचार बरतने के बाद आने का कारण पूछना, बताना चाहिए ।। यदि सहयोग किया जा सकता हो तो वैसा करना चाहिए अन्यथा अपने परिस्थितियाँ स्पष्ट करते हुए सहयोग न कर सकने का दुःख व्यक्त करना चाहिए। इसी प्रकार यदि दूसरा कोई सहयोग नहीं कर सका है तो भी उसका समय लेने और सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में ही देना चाहिए। रूखा, कर्कश, उपेक्षापूर्ण अथवा झल्लाहट, तिरस्कार भरा उत्तर देना ढीठ और गँवार को भी शोभा देता है। हमें अपने को इस पंक्ति में खड़ा नहीं करना चाहिए।

    बड़े जो व्यवहार करेंगे, बच्चे वैसा ही अनुकरण सीखेंगे। यदि हमें अपने बच्चों को अशिष्ट, उद्दंड बनाना हो तो ही हमें असभ्य व्यवहार की आदत बनाए रहनी चाहिए अन्यथा औचित्य इसी में है कि आवेश, उत्तेजना, उबल पड़ना, क्रोध में तमतमा जाना, अशिष्ट वचन बोलना और असत्य व्यवहार करने का दोष अपने अंदर यदि स्वल्प मात्रा में हो तो भी उसे हटाने के लिए सख्ती के साथ अपने स्वभाव के साथ संघर्ष करें और तभी चैन लें, जब अपने में सज्जनता की प्रवृत्ति का समुचित समावेश हो जाए।

     हम अपनी और दूसरों की दृष्टि में सज्जनता और शालीनता से परिपूर्ण एक श्रेष्ठ मनुष्य की तरह अपना आचरण और व्यक्तित्व बना सकें तो समझना चाहिए कि मनुष्यता की प्रथम परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए। उसके आगे के कदम नैतिकता, सेवा, उदारता, संयम, सदाचार, पुण्य, परमार्थ के हैं। इसमें भी पहली एक अति आवश्यक शर्त यह है कि हम सज्जनता की सामान्य परिभाषा समझें और अपनाएँ, जिसके अंतर्गत मधुर भाषण और विनम्र, शिष्ट एवं मृदु व्यवहार अनिवार्य हो जाता है। अस्वच्छता मनुष्य की आंतरिक और गई- गुजरी स्थिति का परिचय देती है। गंदा आदमी यह प्रकट करता है कि उसे अवांछनीयता हटाने और उत्कृष्टता बनाए रखने में कोई रुचि नहीं है। लापरवाह, आलसी और प्रमादी ही गंदे देखे गए हैं जो अवांछनीयता से समझौता करके उसे गले से लगाए रह सकता है, वही गंदा भी रह सकता है। गंदगी देखने में सबको बुरी लगती है और उस व्यक्ति के प्रति सहज ही घृणा भाव उत्पन्न करती है। गंदे को कौन अपने समीप बिठाना चाहेगा? दुर्गंध से किसे अपनी नाक, मलीनता से किसे अपनी आँखें और हेय प्रवृत्ति को देखकर कौन मनोदशा क्षुब्ध करना चाहेगा।

    गंदगी स्वास्थ्य की दृष्टि से अतीव हानिकारक है। उसे बीमारी का संदेशवाहक कह सकते हैं। जहाँ गंदगी रहेगी वहाँ बीमारी जरूर पहुँचेगी। गंदगी से बीमारी को बहुत प्यार है। फूलों को तलाश करती हुई तितली जिस प्रकार फूल पर जा पहुँचती है, उसी तरह जहाँ गंदगी फल- फूल रही होगी वहाँ बीमारी भी खोज, तलाश करती हुई जरूर पहुँच जाएगी। बीमारी भी गंदगी पैदा करती है यह ठीक है, पर यह निश्चित है कि जो गंदे हैं वे स्वस्थ न रह सकेंगे। मनुष्य की मूल प्रकृति गंदगी के विरुद्ध है, इसलिए किसी व्यक्ति या पदार्थ को गंदा देखते हैं तो अनायास ही घृणा उत्पन्न होती है, वहाँ से दूर हटने का जी करता है। अस्तु जिन्हें मनुष्यता का ज्ञान है, उन्हें गंदगी हटाने का स्वभाव अपनी प्रकृति में अनिवार्यतः जोड़ देना चाहिए।

    हर हालत में हर व्यक्ति को स्वच्छता के लिए स्नान आवश्यक मानना चाहिए। चेचक जैसे रोगों में मजबूरी उत्पन्न हो जाए तो बात दूसरी है, नहीं तो बीमारों को भी चिकित्सक के परामर्श से स्वच्छता का कोई न कोई रास्ता जरूर निकालते रहना चाहिए।

    मुँह की सफाई बहुत ध्यान देने योग्य है। जीभ पर मैल की एक पर्त जमने लगती है और दाँतों की झिरी में अन्न के कण छिपे रहकर सड़न पैदा करते हैं। सबेरे कुल्ला करते समय दाँतों को भली प्रकार साफ करना चाहिए। जितने बार कुछ खाया जाए उतने ही बार कुल्ला करना चाहिए और रात को सोते समय तो जरूर ही मुँह की सफाई कर लेनी चाहिए। इससे दाँत अधिक दिन टिकेंगे, मुँह में बदबू न आएगी और लोगों को पास बैठने पर दूर हटने की आवश्यकता न पड़ेगी।

     कपड़े जो शरीर को छूते हैं, उन्हें विशेष ध्यान देकर साबुन से रोज धोना चाहिए। बनियान, अंडरवियर, धोती, पायजामा आदि पसीना सोखते रहते हैं और रोज साबुन तथा धूप की अपेक्षा करते हैं। कोट जैसे कपड़े जिनका पसीने से सम्पर्क नहीं होता, नित्य धोने से छूट पा सकते हैं। भारी बिस्तरों को धोना तो कठिन पड़ेगा, पर शरीर छूने वाली चादरें जल्दी- जल्दी बदलते रहना चाहिए और बिस्तर को कड़ी धूप में हर रोज सुखाना चाहिए।

     घर के बर्तन इस तरह नहीं रहने चाहिए जिन पर चूहे और छिपकली पेशाब करें और उस जहर से अप्रत्यक्ष बीमारियाँ शरीरों में घुस पड़ें। खुले हुए वाद्य पदार्थों में कीड़े- मकोड़े घुसते हैं। इसलिए हर खाने में काम आने वाली वस्तु दबी- ढकी रहनी चाहिए। कपड़े, बर्तन, फर्नीचर, किताबें, जूते तथा अन्य सामान यथास्थान रखा हो तो ही सुंदर लगेगा अन्यथा बिखरी हुई अस्त- व्यस्त चीजें कूड़े और गंदगी की ही शक्ल धारण कर लेती हैं, भले ही वे कितनी ही मूल्यवान क्यों न हों। जिस वस्तु को झाड़ते- पोंछते न रहा जाएगा, वह धूल की पर्त जमा होने तथा लगातार ऋतु प्रभाव सहते रहने से मैली, पुरानी हो जाएगी। हर चीज सफाई, मरम्मत और व्यवस्था चाहती है। घर का हर पदार्थ हम से यही आशा करता है कि उसे स्वच्छ और सुव्यवस्थित रखा जाए। जिन्हें स्वच्छता से सच्चा प्रेम है, वे शरीर का शृंगार करके ही न बैठ जाएँगे वरन् जहाँ रहेंगे वहाँ हर पदार्थ की शोभा, स्वच्छता एवं सुसज्जा का ध्यान रखेंगे। मकान की टूट- फूट और लिपाई- पुताई का, किवाड़ों की रंगाई का ध्यान रखा जाएगा तो उसमें बहुत पैसा खर्च नहीं होता। थोड़ा- थोड़ा समय बचाकर घर के लोग मिल- जुलकर यह सब सहज ही एक मनोरंजन की तरह करते रह सकते हैं और घर परिवार में शरीर और बच्चों में मानवोचित स्वच्छता का दर्शन हो सकता है। कलाकारिता, स्वच्छता से आरंभ होती है। अवांछनीयता को अस्वीकार करने की प्रवृत्ति का अभिवर्धन शरीर से आरंभ होकर वस्त्रों तक और मन से लेकर व्यवहार तक की स्वच्छता तक विकसित होता चला जाता है और इस अच्छी आदत के सहारे परम सौंदर्य से भरे हुए इस विश्व में भगवान की प्रकाशवान कलाकारिता को देखकर आनंद विभोर रहता हुआ पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है।

     अपने यहाँ मल- मूत्र संबंधी गंदगी के लोग बुरी तरह अभ्यस्त हो गए हैं। पुराने ढंग के पाखानों में फिनायल, चूना आदि न पड़ने से उनमें भारी दुर्गंध आती है। बच्चों को नालियों पर, गलियों में टट्टी कराके रास्ते दुर्गंध पूर्ण एवं जी मिचलाने वाले बना दिए जाते हैं। घरों के आगे लोग कूड़े का ढेर लगा देते हैं। पेशाब ऐसे स्थानों पर करते रहते हैं, जहाँ सार्वजनिक आवागमन रहता है। सफाई कर्मी के भरोसे सब कुछ निर्भर रहता है। यह नहीं सोचते कि मल- मूत्र आखिर है तो हमारे ही शरीर का, उसकी स्वच्छता के लिए कुछ काम स्वयं भी करें और सफाई कर्मी के काम में सहयोग देकर स्वच्छता बनाए रखने का अपना कर्तव्य निबाहें। देहातों में तो और भी बुरी दशा का वातावरण, गंदगी, दुर्गंध और अस्वास्थ्यकर, घृणास्पद दृश्यों से भरा रहता है। कूड़े और गोबर के ढेर जहाँ- तहाँ लगे रहते हैं और उसकी सड़न सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए संकट उत्पन्न करती रहती है। इस दिशा में विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए। सोखता पेशाब घर, सोखता नालियाँ तथा गड्ढे खोद कर लकड़ी के शौचालय बहुत सस्ते में तथा बड़ी आसानी से बनाए जा सकते हैं। गाँव में पानी का लोटा साथ ले जाने की तरह यदि खुरपी भी लोग साथ ले जाया करें और छोटा गड्ढा खोदकर उसमें शौच जाने के उपरांत गड्ढे को ढक दिया करें, तो जमीन को खाद भी मिले और गंदगी के कारण उत्पन्न होने वाली शारीरिक, मानसिक और सामाजिक अवांछनीयता भी उत्पन्न न हो।

 

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