वैज्ञानिक अध्यात्म के क्रान्ति दीप

जीवन की प्रयोगशाला में जीवन देवता के उपासक सुकरात

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          पश्चिमी जगत् में वैज्ञानिक अध्यात्म का बीजारोपण करने वाले महात्मा सुकरात एथेन्स की गलियों में घूम रहे थे। उनके शरीर पर थोड़ा फट चुके पुराने से वस्त्र थे, जो सम्भवतः पिछले कई दिनों से न धुले जाने के कारण अब मैले दिख रहे थे। पाँवों में पहने हुए जूतों की स्थिति शरीर के कपड़ों से भी ज्यादा खराब थी। कई बार सिले जाने के बावजूद भी इनकी स्थिति फटेहाल थी। लेकिन इस सबका उन पर कोई असर नहीं था। उनके मुख पर वही मधुर हँसी थी और आँखों में वही प्रकाशपूर्ण तेज। आयु भले ही अब उनकी सत्तर साल की हो रही हो, परन्तु चुस्ती, फूर्ती, स्फर्ति वही पचास साल पहले वाली थी। आयु बढ़ने का असर उनके शरीर पर थोड़ा बहुत जरूर हुआ था, परन्तु अन्तर्मन इससे सर्वथा अप्रभावित आनन्द का निर्झर बना हुआ था। जिसमें उनके आस- पास और साथ रहने वाले लोग सदा स्नान करते रहते थे।

         अभी भी उनके साथ जीनोफेन, क्राइटो और प्लेटो थे। इन्हीं के साथ चलते हुए वह एक मण्डी में आ पहुँचे। जहाँ सब्जी- तरकारी, मिट्टी एवं धातु के बर्तन, मूर्तियाँ, अनाज आदि कई चीजों की खरीद- फरोख्त हो रही थी। आगे बढ़ते हुए वह एक मूर्ति की दुकान पर आकर रूके और झुक कर उन्होंने एक मूर्ति उठाई फिर थोड़ी देर तक उसे देखते रहे। फिर उन्होंने उस मूर्ति को उसी स्थान पर रखा और जोर से हँस पड़े। उनके इस तरह हँसने पर साथ चल रहे प्लेटो ने विनम्रता से पूछा- आप इस तरह से हँसे क्यों मास्टर? मुझे अपना अतीत याद आ गया। तब मैं युवा था, मेरे मूर्तिकार पिता मुझे भी मूर्तिकार बनाना चाहते थे। तब मैंने उनसे कहा था कि मैं मूर्तियाँ गढूँगा तो अवश्य, परन्तु जीवित मानवों के जीवन की। मैं कलाकार बनूँगा तो अवश्य परन्तु यह कला जीवन जीने की होगी। यही कला मैं औरों को भी सिखाऊँगा।

         महात्मा सुकरात को आया हुआ देख उस मण्डी की भीड़ उनके आस- पास जुटने लगी थी। इस भीड़ में ज्यादातर एथेन्स के युवा थे। पता नहीं युवाओं को इन वृद्ध हो चुके सुकरात में क्या आकर्षण नजर आता था। परन्तु सामान्य बल्कि सामान्य से भी किंचित कम अच्छी शक्ल- सूरत वाले सुकरात के व्यक्तित्व में एथेन्स के युवा एक जबर्दस्त चुम्बकीय आकर्षण अनुभव करते थे। यही बात वहाँ के शासक वर्ग को नहीं भाती थी। परन्तु इस बात से सुकरात को न कोई चिन्ता थी न डर। वह बड़े बेखौफ हो अपना काम कर रहे थे। अभी भी उन्होंने पास जुट चुके युवकों से पूछा- अच्छा तुममें से कोई यह बताओ कि वह कौन सा देवता है, जो अपनी पूजा से प्रसन्न होकर तुरन्त मनचाहा वरदान देता है? तुम यह भी बताओ कि उसकी पूजा की विधि क्या है? इन दो प्रश्रों ने उन युवकों के मन में विचारों की कई लहरें पैदा कर दी। वे परस्पर सोचने और चर्चा करने लगे, किसी ने एटलस का नाम लिया तो किसी ने पिटोरस का। देवताओं और इनकी पूजा विधियों की चर्चा वाद- विवाद में बदल गयी।

         सुकरात इन्हें वाद- विवाद करता हुआ छोड़ उस भीड़ से थोड़ा अलग हटकर प्लेटो को समझाने लगे। प्रश्र से विचार जन्म लेते हैं। विचारों की निरन्तरता विचारशीलता को प्रकट करती है। विचारशीलता यदि गहरी एवं स्थायी हो तो जिज्ञासा का अंकुर फूटता है। जिज्ञासा की सच्चाई और सघनता में विवेक उत्पन्न होता है। यदि इस विवेक में तीव्रता व त्वरा बढ़ती जाय तो अन्तर्प्रज्ञा का प्रकाश फूटता है। इस अन्तर्प्रज्ञा से उपजता है- जिज्ञासा के समाधान का अनुभव। यह अनुभव ही बोध है, यही ज्ञान है। सुकरात की ये बातें जीनोफेन एवं क्राइटो भी सुन रहे थे। सुकरात ने उन सबसे कहा- मैंने जीवन की प्रयोगशाला में जीवन विद्या के, अध्यात्म विज्ञान के यही प्रयोग किए हैं। अन्यों को भी यही प्रयोगविधि सिखा रहा हूँ। इस प्रयोगविधि से जो ज्ञान मिला है, वह केवल कल्पनाओं एवं विचारों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि जीवन शैली को परिवॢतत कर स्वयं जीवन शैली बन जाता है।

          सुकरात ये बातें करते रहे और युवाओं की भीड़ वाद- विवाद करती रही। इतने में उनमें से कुछ युवक उनके पास आए और उनसे बोले- ऐसा कोई देवता नहीं है। लेकिन तभी एक युवक ने पास आकर जोर से कहा- है एक देवता है- जीवन देवता। यदि सद्गुणों से इसकी पूजा हो, तो सभी वरदान तुरन्त मिलते हैं। और सबसे बड़ा सद्गुण क्या है युवक? ज्ञान ही सबसे बड़ा सद्गुण है। इस उत्तर को सुनकर सुकरात मुस्कराए और उन्होंने अर्थपूर्ण दृष्टि से प्लेटो की ओर देखते हुए कहा- अब मेरी शिक्षाओं को, जीवन में ज्ञान के प्रयोग के महत्त्व को एथेन्स का युवावर्ग समझने लगा है। इस ज्ञान के प्रयोग का विस्तार हुआ तो रूढ़ियाँ, मूढ़ताएँ एवं अन्धता नहीं रहेगी। यही तो अध्यात्म के वैज्ञानिक प्रयोग के उद्देश्य हैं, जिसे अब तुम सबको पूरा करना है। मेरी अन्तर्वाणी कह रही है- एथेन्स की गलियों में यह मेरी शिक्षा का अन्तिम दिन है। महात्मा सुकरात सम्भवतः कुछ और कहते इसके पहले उनके पीछे से अचानक आए एथेन्स के सैनिकों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।

          अदालत में उनपर मुकदमा चला। उन पर तीन आरोप लगाए गए। १. सुकरात ने राष्ट्रीय देवताओं की अवहेलना की है। २. उन्होंने राष्ट्रीय देवताओं के स्थान पर कल्पित जीवन देवता को स्थापित किया है। ३. उन्होंने एथेन्स के युवकों को पथभ्रष्ट किया है। उनसे कहा गया कि यदि वे अपनी गलती के लिए माफी माँगे और भविष्य में ऐसी गलती न करें तो उन्हें माफ किया जा सकता है। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। परिणाम में उन्हें मृत्युदण्ड दिया गया। अपराध और दण्ड दोनों पर सुकरात हँस पड़े। फिर उन्होंने बड़ी शान्ति से कहा- निर्णय करने वालों! जब तुम्हें मृत्यु लेने आए, तब तुम भी उसे उसी साहस के साथ स्वीकार करना, जैसे कि आज मैं कर रहा हूँ। और यह हमेशा याद रखना कि एक सच्चे इन्सान पर न जीवन में, न मृत्यु के बाद ही कभी कोई आपत्ति आती। परमेश्वर उसके भाग्य की ओर से कभी उदासीन नहीं होते।

         जो दण्ड आज मुझे दिया गया है, वह दरअसल दण्ड नहीं दैवी योजना है। मेरी मार्गदर्शक अन्तर्वाणी ने मुझसे यही कहा है- मेरे जीवन विज्ञान के प्रयोग इसी तरह से अपना विस्तार करेंगे। फिर मेरा कार्य भी अब पूर्ण हो गया है। अब शरीर छोड़ना और क्लेश मुक्त होना ही मेरे लिए अच्छा है। मैं न आरोप लगाने वालों से रूष्ट हूँ और न दोषी ठहराने वालों पर कुपित हूँ। अब समय आ गया है कि हम लोग यहाँ से चल दें- मैं मरने के लिए और तुम जीने के लिए। परन्तु यह परमात्मा ही जानता है कि तुम्हारे जीवन और मेरी मृत्यु में कौन श्रेष्ठ है। फिर उन्होंने कुछ सोचते हुए कहा- मेरी यह मृत्यु- मृत्यु नहीं जीवन भर अध्यात्म विद्या के वैज्ञानिक प्रयोग करने वाले व्यक्ति के जीवन का अन्तिम प्रयोग है।

ऐसा कहकर वह कारागार की ओर चल पड़े। जिस दिन उन्हें विष दिया जाना था। प्रातः ही उनके शिष्य उनसे मिलने पहुँचे। वह बड़ी निश्चिन्तता से गाढ़ी नींद ले रहे थे। नियत समय पर कर्मचारी विष का प्याला लाया। उसे देखकर वह हर्षित और उत्साहित हो उठे, बोले- लाओ- लाओ। फिर उन्होंने शिष्यों से कहा- तुम लोग मेरे पास बैठो। हमेशा मैंने तुम्हें अपने जीवन के अनुभव सुनाए हैं, आज मृत्यु का अनुभव सुनाऊँगा। ऐसा कहते हुए उन्होंने विष का प्याला पी लिया। और शरीर में धीरे- धीरे होने वाले परिवर्तनों को एवं अपनी मानसिक स्थिति को बताने लगे- कि अब उनका शरीर शनैः- शनैः प्राणहीन एवं निश्चेष्ट होता जा रहा है, परन्तु मन में आनन्द का दैवी प्रकाश फैलता जा रहा है। अन्त में उन्होंने कहा- अहा! मैं स्वर्गीय प्रकाश में प्रकाश रूप में अवस्थित हो रहा हूँ। शरीर की मृत्यु और इसके लिये दिया गया विष मुझे तनिक भी आघात नहीं पहुँचा सका। फिर उन्होंने प्लेटो की ओर देखते हुए कहा- मेरे इस अन्तिम प्रयोग के निष्कर्ष के बारे में सभी को यह बताना कि जीवन देवता की अपने सद्गुणों से, अपने ज्ञान से पूजा- अर्चना करने वाले लोग न केवल अपने जीवन में शोक- सन्ताप मुक्त रहते हैं बल्कि मृत्यु के बाद, उससे भी कहीं उन्नत अवस्था में स्वर्गीय प्रकाश राज्य में आनन्दमय होकर रहते हैं। इसी के साथ उन्होंने आँखें मूँद ली। महात्मा सुकरात की शिक्षाओं का यही विचार बीज रेने देकार्ते के वैज्ञानिक विचारों में प्रखरता से अंकुरित हुआ। 
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